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देश में बेरोजगारी की असली तस्वीर क्या है?

कृषि में आजीविका अनिश्चित, कम भुगतान और कम उत्पादकता वाली है

देश में बेरोजगारी की असली तस्वीर क्या है?
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- डॉ. अजीत रानाडे

कृषि में आजीविका अनिश्चित, कम भुगतान और कम उत्पादकता वाली है। निर्माण या होटल और रेस्तरां की तुलना में विनिर्माण में रोजगार का हिस्सा स्थिर या गिर रहा है अथवा और भी कम है। चूंकि रोजगार में वृद्धि अनिवार्य और तत्काल आवश्यकता है इसलिए हमें एक ऐसे सटीक 'थर्मामीटर' की आवश्यकता है जो अर्थव्यवस्था में रोजगार और बेरोजगारी का एक विश्वसनीय सूचक हो।

किसी देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले तीन सबसे महत्वपूर्ण मेक्रो इकॉनॉमिक घटक हैं- विदेशी विनिमय दर, मुद्रास्फीति दर और बेरोजगारी दर। पहले घटक विदेशी विनिमय दर के प्रबंधन के लिए भारतीय रिजर्व बैंक जिम्मेदार है जो हर कार्य दिवस पर पहले इसे सटीक और आधिकारिक रूप से रिपोर्ट करता है। दूसरे घटक मुद्रास्फीति दर की रिपोर्ट सरकार के सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) द्वारा हर महीने दी जाती है। इसकी आधिकारिक घोषणा एक महीने के अंतराल के साथ आती है।

यानी नवंबर के महीने में आपको पता चल जाता है कि अक्टूबर में महंगाई दर क्या रही। सटीक या पर्याप्त प्रतिनिधि नहीं होने के कारण आधिकारिक मुद्रास्फीति दर की आलोचना की जा सकती है। यह वस्तुओं की एक टोकरी पर औसत कीमतों के उतार-चढ़ाव पर आधारित है। इसलिए आलोचना वैध और अपरिहार्य है। फिर भी, मुद्रास्फीति की इस संख्या का उपयोग व्यापक रूप से ब्याज दरों, सरकारी कर्मचारियों के लिए महंगाई भत्ते में वृद्धि और विभिन्न अनुबंधों में लागत वृद्धि खंड निर्धारित करने के लिए किया जाता है। महंगाई दर को कम और स्थिर रखना आरबीआई का काम है परन्तु आरबीआई सरकार की खर्च करने की प्रवृत्ति के कारण राजकोषीय बोझ से दबा है। इस महीने जब हम चुनावी मूड में आ रहे हैं तब राजनीतिक दल मुफ्त उपहारों का वादा कर रहे हैं जो राजकोष पर और बोझ डालेंगे तथा मुद्रास्फीति को बढ़ाएंगे। न तो आरबीआई और न ही सरकार इस उच्च मुद्रास्फीति का दोष अपने सिर पर लेगी।

तीसरा मेक्रो इकॉनॉमिक वैरिएबल बेरोजगारी की दर है जिसके बारे में हमारे पास स्पष्ट तस्वीर नहीं है। आखिर बेरोजगारी की सही तस्वीर के इर्द-गिर्द यह कोहरा क्यों छाया हुआ है? सबसे पहली बात यह है कि कृषि क्षेत्र में आधे कार्य बल को उद्यमी या स्व-नियोजित के रूप में देखा जाता है। अनुमान है कि कृषि उत्पादन का चालीस प्रतिशत हिस्सा भूमिहीन श्रमिकों या छोटे किसानों द्वारा उत्पादित किया जाता है जो अन्य खेतों पर मजदूरों के रूप में काम करते हैं। इन श्रमिकों के पास मौसमी रोजगार है लेकिन उनके पास कोई लिखित अनुबंध नहीं है और न ही उन्हें उनके तथाकथित नियोक्ताओं से कोई लाभ मिलता है। शेष कार्य बल का चौथा-पांचवां हिस्सा कृषि से परे अनौपचारिक या अपंजीकृत क्षेत्र में है। ये भी बिना लिखित अनुबंध के काम करने वाले श्रमिक हैं। बहुत से लोग जो कहते हैं कि वे 'काम' कर रहे हैं, वे कई अंशकालिक नौकरियां कर सकते हैं। पूर्णकालिक नौकरी नहीं होने को 'बेरोजगार' माना जा सकता है लेकिन यह भ्रामक होगा। एक ऐसे देश में जहां 90 प्रतिशत कार्य बल के पास सुरक्षित नौकरियां नहीं हैं वहां काम मांगने वालों का नारा है 'मुझे नौकरी नहीं, काम चाहिए'। प्रतिबंधात्मक कड़े श्रम कानूनों या आर्थिक विकास पूंजी गहन श्रम बचत या श्रम विस्थापन के कारण औपचारिक क्षेत्र की रोजगार वृद्धि निराशाजनक है।

फिर श्रम बाजार की सही तस्वीर और उसके मिज़ाज के बारे में जानकारी प्राप्त करना कैसे संभव है? अप्रैल 2017 के बाद से सरकार मियादी श्रम बल सर्वेक्षण (पिरीआडिक लेबर फोर्स सर्वे- पीएलएफएस) नामक एक त्रैमासिक बयान प्रकाशित करती है। पीएलएफएस केवल शहरी क्षेत्रों के लिए तीन तिमाही संकेतकों, श्रमिक जनसंख्या अनुपात, श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) तथा बेरोजगारी दर का अनुमान लगाता है। यह ग्रामीण एवं शहरी, दोनों क्षेत्रों में बेरोजगारी का वार्षिक अनुमान भी प्रदान करता है। जुलाई तिमाही के अंत तक की नवीनतम रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष हैं-पिछली पांच तिमाहियों में पुरुषों के लिए एलएफपीआर 73.5 प्रतिशत पर स्थिर था और महिलाओं के लिए 18.9 से बढ़कर 21.1 प्रतिशत था। दूसरी बात यह है कि बेरोजगारी दर पुरुषों के लिए 7.1 से गिरकर 5.9 प्रतिशत और महिलाओं के लिए 7.6 से 6.6 प्रतिशत हो गई है। ये सुधार उत्साहजनक हैं हालांकि महिलाओं के लिए एलएफपीआर अभी भी कम है। 21.1 प्रतिशत की दर वाली इस रिपोर्ट से मालूम होता है कि भारत की महिला एलएफपीआर सभी जी-20 देशों में सबसे कम है।

लेकिन इस डेटा की तुलना इस हफ्ते न्यूज एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित एक अन्य खबर से करें जिसमें शिक्षा मंत्री के हवाले से कहा गया है कि 2022-23 के दौरान महिला एलएफपीआर बढ़कर 37 प्रतिशत हो गया है। यह पीएलएफएस अप्रैल से जुलाई के आंकड़ों (केवल शहरी श्रमिकों के लिए) में उद्धृत आंकड़ों की तुलना में 16 प्रतिशत अधिक है। इनमें से कुछ समस्याएं भारत की कम महिला एलएफपीआर मापने के मुद्दों के कारण हो सकती हैं या शायद जानकारी हासिल करने वाली प्रश्नावली दोषपूर्ण हो सकती है। जब घरेलू उद्यमों के लिए काम करने वाली महिलाओं से पूछा जाता है कि 'क्या आप काम कर रही हैं' तो वे नकारात्मक जवाब दे सकती हैं। लेकिन अगर पूछा जाए- 'क्या आप घरेलू उत्पाद (हस्तकला या कुटीर उद्योग) में योगदान दे रही हैं' तो उनका जवाब हां में हो सकता है। अंतरराष्ट्रीय श्रम कार्यालय ने भी कहा है कि महिलाओं के काम की वाणिज्यिक तथा आर्थिक मूल्य की सही तस्वीर प्राप्त करने के लिए भारतीय डेटा संग्रह में बदलाव करने की आवश्यकता है। कार्यप्रणाली में इस कमी के बावजूद पीएलएफएस में 21.1 और 37 प्रतिशत के बीच का अंतर समझने के लिहाज से बहुत बड़ा है। तो आखिरकार सही कौन है?

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) नामक निजी कंपनी द्वारा श्रम बाजार के इकट्ठा किए गए आंकड़े इस भ्रम को और बढ़ा रहे हैं। सीएमआईई की कार्यप्रणाली के बारे में बहुत चर्चा, बहस और आलोचना की गई है। यह कहना पर्याप्त है कि सीएमआईई के अनुमान, खासकर युवाओं के बीच बेरोजगारी की अधिक निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं। भारत के कुछ राज्यों में सीएमआईई ने युवा बेरोजगारी को 37 प्रतिशत तक बताया है।

डेटा का एक अन्य स्रोत रोजगार भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) से आता है जो विशेष रूप से औपचारिक क्षेत्र में रोजगार के बारे में जानकारी देता है। दावा किया जा रहा है कि ईपीएफओ नामांकन से रोजगार में अच्छी वृद्धि दिख रही है। लेकिन ईपीएफओ केवल उन फर्मों का डेटा कैप्चर करता है जो पीएफ नियमों का पालन करते हैं यानी जो 10 से अधिक कर्मचारियों को रोजगार देते हैं। लेकिन यदि किसी संगठन में श्रमिकों की संख्या 9 से 11 श्रमिकों तक हो जाती है तो ईपीएफओ 11 के नए पंजीकरण दिखाएगा लेकिन वास्तविक रोजगार वृद्धि केवल 2 नई नौकरियों की हुई थी। इसके अलावा अगर कोई कर्मचारी एक नौकरी छोड़कर दूसरी नौकरी ज्वाइन करता है तो ईपीएफओ केवल नए कर्मचारियों को रिकॉर्ड करता है किन्तु नौकरी छोड़ने वालों की संख्या नहीं घटाता है।

नौकरी डॉट कॉम जैसे जॉब पोर्टल और टीमलीज जैसी कंपनियों से भी डेटा इक_ा किया जाता है। लेकिन सही तस्वीर का अनुमान लगाना 'अंधे पुरुषों और हाथी' की कहानी की तरह है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि श्रम शक्ति के किस हिस्से को 'टच' किया जा रहा है। कुछ कम होने से पहले 2018-19 से चार वर्षों में कृषि कार्यबल की हिस्सेदारी 42.5 से बढ़कर 46.5 प्रतिशत हो गई। यह चिंताजनक है क्योंकि कृषि में आजीविका अनिश्चित, कम भुगतान और कम उत्पादकता वाली है। निर्माण या होटल और रेस्तरां की तुलना में विनिर्माण में रोजगार का हिस्सा स्थिर या गिर रहा है अथवा और भी कम है। चूंकि रोजगार में वृद्धि अनिवार्य और तत्काल आवश्यकता है इसलिए हमें एक ऐसे सटीक 'थर्मामीटर' की आवश्यकता है जो अर्थव्यवस्था में रोजगार और बेरोजगारी का एक विश्वसनीय सूचक हो।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। सिंडिकेट: दी बिलियन प्रेस)


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