राज्य सभा के बहुमत से क्या फर्क पड़ेगा
यह विडंबना ही है कि जब शासन और संसदीय कामकाज में भाजपा और नरेंद्र मोदी के इकबाल को चुनौतियां मिलनी शुरू हुई हैं

- अरविन्द मोहन
यह मात्र संयोग नहीं है कि जिस दिन भाजपा को राज्य सभा में मोदी-युग का सबसे बड़ा आंकड़ा हासिल हुआ उससे दो दिन पहले एनडीए में और सरकार में साझीदार लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान ने जातिगत जनगणना की मांग कर दी। इस बात की चर्चा एकमात्र सांसद वाले दल के नेता जीतन राम मांझी जैसे लोग भी हल्के-फुल्के ढंग से उठाते रहे थे लेकिन चिराग के कहने का तत्काल बड़ा असर हुआ।
यह विडंबना ही है कि जब शासन और संसदीय कामकाज में भाजपा और नरेंद्र मोदी के इकबाल को चुनौतियां मिलनी शुरू हुई हैं तब राज्य सभा में भाजपा को पहली बार बहुमत मिलने का दावा किया जाने लगा है। लोक सभा चुनाव में (ज्यादातर) राज्य सभा सदस्यों द्वारा जीत हासिल करने से खाली हुए 12 जगहों के उपचुनाव में भाजपा ने नौ स्थान जीते हैं और एनडीए के साथियों ने दो स्थान जीते हंै। हम जानते हैं कि राज्य सभा सदस्यों का चुनाव विधायक करते हैं और अभी ज्यादातर राज्यों में भाजपा या उसके गठबंधन की सरकार है। 245 सदस्यों वाले सदन में अब भाजपा के 96 सदस्य हो गए हैं और एनडीए के उसके सहयोगी दलों के सदस्यों, दो निर्दलीय और छह मनोनीत सदस्यों को लेकर अब उसके खेमे में 119 सदस्य गिने जा सकते हैं। अभी भी मनोनीत सदस्यों की चार जगहें और जम्मू-कश्मीर के चार स्थान खाली हैं और बैठे-ठाले गणित लगाने वालों का अनुमान है कि भाजपा का खेमा 125 तक पहुंच सकता है और अगर जम्मू-कश्मीर वाली गिनती को फिलहाल छोड़ भी दें तो 241 सदस्यों में भाजपा खेमा आराम से 123 तक पहुंच जाएगा। आजकल मनोनीत का मतलब भी शासक दल का सदस्य ही हो गया है। भाजपा के लिए यह स्थिति 2014 के बाद पहली बार बनी है।
अब यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि मोदी का प्रताप गिरने की शुरुआत होने पर इस स्थिति के आने का भी बहुत मतलब है। लेकिन जिस विधायी कामकाज के लिए राज्य सभा में बहुमत होना जरूरी होता है उसमें नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा के एजेंडे वाले काफी काम पहले अटके भी हैं। सबसे पहला झटका तो भूमि अधिग्रहण कानून और श्रम कानूनों में बदलाव के समय ही लगा और हारकर केंद्र ने इसे राज्यों के हवाले कर दिया कि वे अपनी-अपनी मर्जी से और अपनी जरूरत के हिसाब से कानून बनाए। कृषि से संबंधित तीन कानून पास भी हुए, और उसमें की 'न्यूट्रल' दलों का समर्थन लिया गया पर उस पर किसान आंदोलन और फिर उत्तर प्रदेश चुनाव की जरूरत ने पानी फेर दिया। बीजद और वाइएसआर कांग्रेस के साथ कई बार तेलंगाना राज्य समिति भी अपने 'न्यूट्रल' स्टैंड को छोड़कर भाजपा को समर्थन देती रही है। कई और दल भी खास रणनीति से सदन से गायब होकर बिल पास कराने में मदद करते थे। अब तेलंगाना राज्य से भारत देशम बने चंद्रशेखर राव की पार्टी का तो अस्तित्व संकट में है लेकिन बीजद और वाइएसआर कांग्रेस विरोध में आ गए हैं, भले उनकी शक्ति कम हुई हो।
दूसरी ओर कई बार 'धोखा' खाने के बाद नामी वकील अभिषेक मनु सिंघवी तेलंगाना से राज्य सभा में पहुंचे है। कांग्रेस को वैसे तो यह एकमात्र सीट मिली है लेकिन इसने राज्य सभा में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 27 तक पहुंचा दी है। इससे उनका राजनैतिक पुनर्वास तो हुआ ही है कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे सदन में विपक्ष के नेता पद पर निश्चिंत हो गए हैं। अभी तक कांग्रेस के 26 सदस्य ही थे और विपक्ष का नेता बनने के लिए 25 सीटों की जरूरत होती है। जिस रफ्तार से भाजपा दल बदल और तोड़-फोड़ करती रही है उसमें खड़गे जी की कुर्सी छीनना बहुत मुश्किल न था। पिछली लोक सभा में जिस तरह राहुल गांधी और महुआ मोइत्रा की सदस्यता छीनी गई और डेढ़ सौ से ज्यादा सांसदों को निलंबित किया गया उसमें यह खतरा रोज मंडरा रहा था।
लेकिन यह मात्र संयोग नहीं है कि जिस दिन भाजपा को राज्य सभा में मोदी-युग का सबसे बड़ा आंकड़ा हासिल हुआ उससे दो दिन पहले एनडीए में और सरकार में साझीदार लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान ने जातिगत जनगणना की मांग कर दी। इस बात की चर्चा एकमात्र सांसद वाले दल के नेता जीतन राम मांझी जैसे लोग भी हल्के-फुल्के ढंग से उठाते रहे थे लेकिन चिराग के कहने का तत्काल बड़ा असर हुआ। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी द्वारा इस सवाल को राजनीति के केंद्र में ला देने के बाद भी अभी तक भाजपा इसके पक्ष में नहीं दिखती है। वह इसे राहुल के पिच पर खेलना मानती है। लेकिन चिराग जैसे सहयोगियों और महाराष्ट्र (जहां जल्दी ही चुनाव होने वाले हैं) के अपने की नेताओं की मांग को नजरअंदाज करना मुश्किल होगा। पार्टी ने ऐसे ही दबाव में (जिसमें मुख्य दबाव राहुल का था तो एनडीए के साथियों की तरफ से भी बयानबाजी शुरू हुई) बड़े सरकारी पदों पर सीधी भर्ती का अपना विज्ञापन वापस लेना पड़ा। अब सरकारी पक्ष जो कहे लेकिन इसका राजनैतिक श्रेय राहुल और इंडिया गठबंधन के नेता ही ले रहे हैं। सरकार ने इसी तरह कैबिनेट की आपात बैठक में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति के आरक्षण में क्रीमी लेयर बनाने और उसका श्रेणीकरण करने संबंधी फैसले के खिलाफ अपील करने का फैसला किया। यह सवाल दलित समूहों में तो सुगबुगाहट ला रहा था लेकिन राहुल या किसी बड़ी विरोधी नेता ने अदालती फैसले को गलत नहीं कहा था। उलटे तेलंगाना के कांग्रेसी मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी तो इसके पक्ष में बोलते दिखे। राहुल के सलाहकारों में एक योगेंद्र यादव ने भी खुलकर आदालती फैसले का समर्थन किया।
इनसे बड़े-बड़े मामलों में सरकार थर्राती और कांपती दिख रही है। ब्राडकास्ट विधेयक तो बड़ी तैयारी से लाया गया था, अब उसे ठंढे बस्ते में डाल दिया गया। कांग्रेसी साईं पित्रोदा द्वारा वेल्थ टैक्स का सवाल उठाने का विरोध करने के बाद सरकार ने बजट में लगभग वही कर ला दिया। जैसे ही विरोध हुआ, उसमें बदलाव कर दिया गया। ओल्ड पेंशन स्कीम को नए नाम से वापस लाया गया है। सबसे चर्चित मामला वक्फ बोर्ड संबंधी कानून का था जिसे काफी तैयारी से लाया गया था और जो भाजपा की राजनीति के अनुकू ल माना जाता था। पर जैसे ही चर्चा चली जदयू और तेलुगु देशम पार्टी समेत की तरफ से दबाव आने लगे और यह बिल भी लटका दिया गया। बजट पर मोदी सरकार को समर्थन दे रहे दो दलों की राज्य सरकारों पर धन की बरसात करना भी राजनैतिक मुद्दा बना। मुश्किल यह है कि तीसरे टर्म की शुरुआत में नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू, एकनाथ शिंदे जैसे सहयोगियों के बल पर जिस तरह भाजपा को भी जेब में रखा दिखाया (उनको भाजपा संसदीय दल का नेता चुनने की जगह एनडीए का नेता ही चुना गया) अब वही सहयोगी आंख दिखाने लगे हैं ऐसे में लोक सभा के साथ राज्य सभा में भी बहुमत आ जाए तो क्या फर्क पड़ेगा।


