आदिवासियों से क्या सीख सकते हैं?
हाल ही मुझे छत्तीसगढ़ में जशपुर जिले के एक आदिवासी गांव में जाने का मौका मिला। इस दौरान मैंने उनके जीवन को देखने, समझने व करीब से जानने की कोशिश की

- बाबा मायाराम
यहां लोग खेतों में कपास बोते थे। चरखा से सूत कातते थे, और फिर उससे कपड़ा बनवाते थे। महुआ की डोरी ( फल), मूंगफली व जटगी का तेल निकाला जाता था। गांव में देशज् तरीके से तेल निकालते थे। यानी मिट्टी तेल व नमक को छोड़कर गांव में जरूरत की सभी चीजें होती थीं। कई मायनों में गांव आत्मनिर्भर हुआ करता था।आदिवासियों ने ही हमें वन खाद्यों से परिचय कराया है। हरी पत्तीदार सब्जियां, मशरूम, कंद-मूलों से अवगत कराया है।
हाल ही मुझे छत्तीसगढ़ में जशपुर जिले के एक आदिवासी गांव में जाने का मौका मिला। इस दौरान मैंने उनके जीवन को देखने, समझने व करीब से जानने की कोशिश की।
यह गांव कुनकुरी के पास स्थित है। यहां उरांव आदिवासी रहते हैं। जिस घर में मैं ठहरा था, वह कच्चा मिट्टी का था, लेकिन सीमेंट व कांक्रीट के पक्के घरों की अपेक्षा ठंडा था। वहां हर चीज सुघड़ता से रखी हुई थी। गोबर व काली मिट्टी से लिपा-पुता यह घर अपना सौंदर्य बिखेर रहा था।
अंग्रेजी के यू आकार से बना यह घर काफी बड़ा था। मिट्टी की ऊंची दीवारें थीं। देसी खपरैल से छत ढकी थी। घर के आगे-पीछे काफी खुली जगह थी। शयन व अतिथियों के लिए अलग कमरा था। रसोई घर और कोठार ( अनाज रखने के लिए) था। मवेशियों व बकरी के लिए अलग जगह थी, मुर्गी घर था। लम्बा-चौड़ा आंगन व खलिहान था।
इस घर को बनाने के लिए स्थानीय सामग्री का इस्तेमाल किया गया है। आसपास के खेतों की मिट्टी, लकड़ी, बांस और देसी खपरैल से घर बनाया गया था। इसमें किसी भी तरह का खर्च नहीं है, जबकि आज पक्के घर बनाना बहुत ही खर्चीला हो गया है।
मिट्टी के घर टिकाऊ होते हैं, जिसमें बिना पंखे-कूलर के रहा जा सकता है। जबकि पक्के व कांक्रीट के घरों में बिना बिजली के रहना मुश्किल है।
सीमेंट के पक्के घर काफी नए हैं, जबकि मिट्टी के घर बनाकर लोग सदियों से रह रहे हैं। इनकी उम्र डेढ़-दो सौ साल तक होती है। जबकि सीमेंट के घरों की उम्र करीब 50 साल होती है। सीमेंट और गिट्टी के लिए पहाड़ों को नष्ट किया जा रहा है। जंगलों को काटा जा रहा है। नदियों से रेत निकाली जा रही है, जिससे वे भी दम तोड़ रही हैं।
यहां घर के पीछे बाड़ी थी। एक कुआं था। जहां प्याज, लहसुन, मूली, मटर, गोभी, टमाटर, सेमी जैसी सब्जियां थीं। घर के सामने पुराना कटहल का पेड़ था, जो बड़े फलों से लदा था।
इसके अलावा, यहां बागान में बेर, आम, लीची और इमली जैसे फलदार पेड़ थे। इससे घर के लोगों को तो ताज़ी सब्जी व फल मिलते हैं, अतिरिक्त होने पर बेचते भी हैं।
घर के आंगन में महुआ सूखने पड़े हुए थे, जिनकी बिनाई का काम इन दिनों चल रहा है। जल्दी जागकर छोटे स्कूली बच्चे भी महुआ बीनने जाते हैं। ऐसे रिश्तेदार व पड़ोसी भी महुआ बिनाई के लिए आ जाते हैं, जिनके पास खुद के महुआ पेड़ नहीं है। एक दिन सभी पेड़ों के महुआ बकरियों और गाय को भी खिला दिए। पूछने पर बताया कि उनका भी इसमें हिस्सा है।
कुछ समय पहले तक यहां के कुओं से टेड़ा पद्धति से पानी खींचा जाता था। ट़ेड़ा पद्धति देशज तकनीक है। इसमें बांस की लकड़ी के एक सिरे पर पत्थर बांध दिया जाता है और दूसरे सिरे पर बाल्टी। पत्थर के वजन के कारण पानी खींचने में ज्यादा ताकत नहीं लगती। इशारे से ही पानी से भरी बाल्टी ऊपर आ जाती है। सड़क के बैरियर या रेलवे गेट की तरह।
छत्तीसगढ़ के कई इलाकों में इसी टेड़ा पद्धति से अब भी सिंचाई की जाती है। इससे पानी की रोज़ाना की जरूरत तो पूरी होती ही हैं, उसी पानी से सब्जियों की खेती भी हो जाती है। इसमें पानी की जितनी जरूरत होती है, उतना ही पानी निकाला जाता है, जिससे पानी का खत्म नहीं होता। भूजल भी नीचे नहीं जाता। कई सालों तक पानी बना रहता है। जबकि बिजली के मोटर पंपों से अकूत पानी उलीचा जाता है।
इस गांव में एक आम का बगीचा है,जहां बच्चों की टोलियां खेलती रहती हैं। गुलेल से निशाना साधकर आम गिराना इनके बाएं हाथ का खेल है। बेर और शहतूत के रसदार फल तोड़कर बच्चे खाते रहते हैं। पिछले साल लीची के फल खाने के लिए तो पूरे मोहल्ले के बच्चे आते थे और चिड़ियाओं का चहचहाता झुंड भी आता था।
खेती से लेकर घरेलू कामो में महिलाएं ज्यादा काम करती हैं। उनकी दिनचर्या जल्द शुरू हो जाती है। वे 4 बजे सुबह जाग जाती हैं। धान कूटती हैं, पानी लाती हैं। साफ-सफाई करती हैं। खेतों में धान का रोपा लगाना, निंदाई-गुड़ाई करना, कटाई करना, खलिहान तक फसलें ढोकर लाना इत्यादि। पुरूष कंधे पर ढोकर गोबर खाद डालते हैं। हलों से जुताई कर फसलें बोते हैं।
यहां महिलाओँ पर उतनी पाबंदी नहीं है, जितनी देश के कुछ अन्य स्थानों में दिखाई देती है। यहां लड़कियां साइकिल चलाती हैं, जो उनकी आजादी की प्रतीक बन गई है। वे साइकिल की सवारी कर स्कूल जाती हैं। हाट-बाजार जाती हैं।
गांववालों के मुताबिक पहले यहां बहुत जंगल हुआ करता था। चार महीने खूब बारिश होती थी। हरे-भरे पेड़ थे। छोटे-छोटे नदी नाले थे। उनमें मछलियां खूब मिलती थीं। यहां एक साथ कई फसलें हुआ करती थी। मक्का, कोदो, कुटकी, ज्वार, बाजरा, उड़द, अरहर, कुलथी. जटगी, सरसों आदि फसलें बोई जाती थीं। खेतों में रासायनिक खाद का इस्तेमाल नहीं करते थे। लेकिन जंगल भी कम हो गए हैं और कुछ किसान रासायनिक खेती भी करने लगे हैं।
पहले यहां लोग खेतों में कपास बोते थे। चरखा से सूत कातते थे, और फिर उससे कपड़ा बनवाते थे। महुआ की डोरी ( फल), मूंगफली व जटगी का तेल निकाला जाता था। गांव में देशज् तरीके से तेल निकालते थे। यानी मिट्टी तेल व नमक को छोड़कर गांव में जरूरत की सभी चीजें होती थीं। कई मायनों में गांव आत्मनिर्भर हुआ करता था।
आदिवासियों ने ही हमें वन खाद्यों से परिचय कराया है। हरी पत्तीदार सब्जियां, मशरूम, कंद-मूलों से अवगत कराया है। उन्होंने इन्हें खोदने और पकाकर खाने की पद्धतियां भी बनाई हैं, और बताई हैं। जड़ी-बूटियों की पहचान, और गुणधर्मों की पहचान कराई है। इन सबको खाद्य पदार्थों में शामिल करवाने और पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में इनके इस्तेमाल का श्रेय उनको जाता है।
आम तौर पर आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने की बातें होती हैं, अपनी कल्पना और इच्छा के अनुसार उन्हें ढालने या रहन-सहन का अपना ढंग थोपने की कोशिश होती है। लेकिन आदिवासी समुदाय ही ऐसा है जिसका जलवायु बदलाव में कोई योगदान नहीं है। वे आज भी बहुत कम ऊर्जा इस्तेमाल कर व खुद ही मेहनत से जीवन जीते हैं। हालांकि यह भी जरूरी है कि उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाएं मुहैया करानी चाहिए।
वे काफी अनुशासित व मेहनती होते हैं। और सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक भी, वहां परिवार के सभी की इच्छा का सम्मान होता है। आज जब हम जीवन के सौंदर्य से दूर होते जा रहे हैं, और उस आनंद को कृत्रिमता में तलाशते हैं, तब उनके गांवों में आज भी अखड़ा ( सांस्कृतिक स्थल) है। जहां ढोल और मांदर की थाप पर गीत व नृत्य होता है।
यहां दूर-दूर घरों में रहने वाले लोगों में एक दूसरे के साथ करीबी रिश्ता है। उनमें समता और सादगी के मूल्य हैं। एक दूसरे की मदद करने, एक दूसरे का साथ देने के कई तरीके हैं। मिल-जुल घर बनाने व छत के खपरैल बदलने में इसे देखा जा सकता है। इन कामों के बदले पैसों का भुगतान नहीं किया जाता।
छत्तीसगढ़ व देश में कई जनजातियां हैं। अलग-अलग इलाकों में उनकी अलग-अलग जीवन पद्धतियां हैं। मैंने देश के कई हिस्सों में आदिवासियों की जीवनशैली को देखा है। छत्तीसगढ़ में कमार, बैगा, ओड़िशा में कोंध, मध्यप्रदेश में गोंड-कोरकू, भील और महाराष्ट्र में महादेव कोली के इलाकों में गया हूं।
आदिवासियों का देश-दुनिया को देखने का नजरिया हमसे भिन्न है। वे प्रकृतिपूजक हैं और उनकी श्रमप्रधान जीवनशैली है। पुरखा संस्कृति है, वे अपने पुरखों से सीखते हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक परंपरा से पारंपरिक ज्ञान हस्तांतरित होता है। उनमें मिल जुलकर रहने, सामूहिकता, एकजुटता और मेल-जोल की संस्कृति है।
आदिवासियों की जीवनशैली अमौद्रिक होती है। वे प्रकृति के ज्यादा करीब हैं। प्रकृति के साथ उनका रिश्ता मां-बेटे का है। वे प्रकृति से उतना ही लेते हैं, जितनी उन्हें जरूरत है। अगर पत्ता चाहिए तो पत्ते लेते हैं और दातौन चाहिए तो दातौन ही। वे प्रकृति को नष्ट नहीं करते हैं, बल्कि बचाते हैं। वे खुद को भी प्रकृति का हिस्सा मानते हैं। लेकिन समय के साथ उनकी जीवनशैली में बदलाव भी आ रहा है।
मुख्यधारा की आधुनिक जीवनशैली जटिल व ऊर्जा गटकने वाली उपभोक्तावादी संस्कृति से जुड़ी है। उसमें तामझाम व दिखावा है। वह लोभ-लालच पर आधारित है, जिसकी सीमाएं आ चुकी हैं। प्राकृतिक संसाधन खत्म हो रहे हैं। कोयला व तेल खत्म होने वाले हैं। प्रदूषण से जलवायु बदलाव हो रहा है। ऐसे वैश्विक संकट के दौर में आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान, पुरखा संस्कृति, प्रकृतिप्रेमी सरल जीवन पद्धति से काफी कुछ सीखा जा सकता है। लेकिन क्या हम आज के जलवायु बदलाव और वैश्विक संकट के दौर में आदिवासियों से कुछ सीखना चाहेंगे?


