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आखिर हमारे डॉक्टरों को क्या बीमारी है?

स्वास्थ्य सेवा के 'व्यवसायीकरण' पर आवाज़ें उठ रही हैं। अनेक कहानियां सामने आ रही हैं

आखिर हमारे डॉक्टरों को क्या बीमारी है?
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- संजना ब्रह्मवार मोहन

मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाने में बहुत कठोरता थी। शिक्षक अपने छात्रों पर पूरा ध्यान देते थे और हर एक को व्यक्तिगत रूप से जानते थे। कक्षाएं तय समय के अनुसार आयोजित की जाती थीं। यह सख्ती कमज़ोर होती जा रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता कार्यशालाओं में कई डॉक्टरों ने कहा कि कॉलेज में उनकी उपस्थिति मायने नहीं रखती, वे 'घर में ही रहते हैं' और वह भी कई हफ़्तों तक रहते हैं।

स्वास्थ्य सेवा के 'व्यवसायीकरण' पर आवाज़ें उठ रही हैं। अनेक कहानियां सामने आ रही हैं। हाल ही में किडनी प्रत्यारोपण के बारे में आई रिपोर्ट इसका एक उदाहरण है। लगता है कि इस स्थिति के जवाब में भारतीय न्याय संहिता इस 'डॉक्टर्स डे' पर लागू हुई, जिसमें लापरवाही का दोषी पाए जाने पर डॉक्टरों को जेल की सज़ा का प्रावधान है। नीट परीक्षा में कई त्रुटियों और पीजी प्रवेश परीक्षाओं के स्थगन ने भारत में चिकित्सा शिक्षा की ओर देश का ध्यान आकर्षित किया है। जैसे-जैसे हम परीक्षा प्रक्रियाओं का पुनर्निर्माण करना शुरू करते हैं, यह देखना उचित होगा कि और क्या करने की आवश्यकता है ताकि हमारे डॉक्टर अपने काम में शीर्ष पर रहें।

ग्रामीण आदिवासी राजस्थान में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के हमारे दशक भर के काम में हमने बड़ी संख्या में युवा डॉक्टरों के साथ काम किया है और सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) में काम करने वाले कई लोगों से बातचीत की है। हमने डॉक्टरों को ग्रामीण भारत की वास्तविकताओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए कई कार्यशालाएं भी आयोजित की हैं। इनके आधार पर हम कुछ प्राथमिकताएं साझा करते हैं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

एक लोकप्रिय शिकायत यह है कि पुराने ज़माने के एमबीबीएस डॉक्टर आज के समय के डॉक्टरों से ज़्यादा चिकित्सा के बारे में जानते थे और वे स्वतंत्र रूप से मरीजों को देख सकते थे। हममें से बहुतों को याद होगा कि डॉक्टर ब्रीफ़केस लेकर हमारे घर आते थे, बीमारों को देखते थे और वहीं पर इलाज करते थे। वे लगभग गायब हो चुके हैं। मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाने में बहुत कठोरता थी। शिक्षक अपने छात्रों पर पूरा ध्यान देते थे और हर एक को व्यक्तिगत रूप से जानते थे। कक्षाएं तय समय के अनुसार आयोजित की जाती थीं।

यह सख्ती कमज़ोर होती जा रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता कार्यशालाओं में कई डॉक्टरों ने कहा कि कॉलेज में उनकी उपस्थिति मायने नहीं रखती, वे 'घर में ही रहते हैं' और वह भी कई हफ़्तों तक रहते हैं। उन्होंने दुख जताया कि उनके शिक्षकों के पास उनके लिए बहुत कम समय है। 'लोग सिफ़र् मुंह हैं, कान नहींÓ, यह बात हम अक्सर सुनते हैं। 'आपका काम मरीज़ों का इलाज करना है, सहानुभूति दिखाना नहीं'- एक वरिष्ठ स्त्री रोग विशेषज्ञ ने एक बार उनमें से एक को यह कहकर डांटा था।

हम निजी मेडिकल कॉलेजों से भी कहानी का दूसरा पहलू सुनते हैं। डॉक्टर बनने वाले लोग बहुत अमीर परिवारों से आते हैं, आलीशान कारों में घूमते हैं, अपनी कक्षाओं में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती। उनमें से कई के अभिभावकों ने नर्सिंग होम या अस्पताल बना लिए हैं, जहां उनके बच्चे पढ़ाई पूरी कर आने के बाद प्रैक्टिस कर सकें। कई बार प्रबंधन शिक्षकों पर दबाव डालता है कि वे उन्हें पास कर दें और न रोकें।

तीसरा समूह जो तेजी से बढ़ रहा है, वह चीन, रूस, अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों में अपनी चिकित्सा शिक्षा पूरी करने वाले छात्र हैं। भारतीय मेडिकल कॉलेजों में शिक्षण की खराब गुणवत्ता के बावजूद विदेशी शिक्षित डॉक्टरों और स्थानीय डॉक्टरों के बीच व्यापक अंतर है। मरीजों से बात करते समय जानकारी का कोई स्पष्ट प्रवाह नहीं होता है, साथ ही चिकित्सा की कई बुनियादी बातों के बारे में भी जानकारी का अभाव है।

ऐसा नहीं चल सकता। हमें यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि डॉक्टर बनने वाले सभी लोगों के पास ज्ञान और कौशल दोनों हों; और उनके पास सहानुभूति हो जो एक डॉक्टर के लिए ज़रूरी है।

कुछ महीने पहले हमारे एक डॉक्टर को एक मित्र का फ़ोन आया, जो एक पीएचसी में काम करने वाला डॉक्टर था। उसने हाल ही में मलेरिया से पीड़ित एक मरीज़ का निदान किया था और यह पूछने के लिए फ़ोन कर रहा था कि उसे क्या उपचार दिया जाए। स्वतंत्र रूप से काम करने वाले डॉक्टरों के लिए मार्गदर्शन की यह ज़रूरत अपेक्षित है क्योंकि एक दिन में वे कई संक्रमणों (टीबी, मलेरिया आदि), गैर-संचारी रोगों, जटिलताओं वाली गर्भवती महिलाओं को देख सकते हैं। इसके साथ ही सड़क दुर्घटनाओं में घायल लोगों को टांके लगा सकते हैं और प्रसव भी करवा सकते हैं।

इस ज़रूरत ने भारत के अलग-अलग हिस्सों में काम करने वाले हम डॉक्टरों को एक समूह के रूप में एक साथ आने के लिए मजबूर कर दिया। हम अपने सवाल समूह में पोस्ट करते हैं या मार्गदर्शन के लिए किसी विशेषज्ञ को बुलाते हैं व पूछते हैं- आप मधुमेह से पीड़ित एक युवा महिला में रक्त शर्करा के उतार-चढ़ाव को कैसे प्रबंधित करते हैं? आप गर्भवती महिला में मलेरिया का इलाज कैसे करते हैं? हम हफ़्ते में एक बार ऑनलाइन मिलते हैं नए ज्ञान, केस स्टडीज़ को साझा करने और सवाल पूछने के लिए। ग्रामीण इलाकों में पीएचसी और शहरों के अस्पतालों में काम करने वाले डॉक्टरों के साथ बातचीत करते हुए हम देखते हैं कि जब उन्हें संदेह होता है, तो उनके पास बहुत कम साथी या वरिष्ठजन होते हैं।

हमें डॉक्टरों के लिए ऐसी व्यवस्था करने की आवश्यकता है जिससे उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर मिल सकें तथा यह सुनिश्चित हो सके कि वे नई जानकारी से अपडेट रहें, जो जरूरी नहीं कि दवा कंपनियों से ही आ रही हो। पंजीकरण के नवीनीकरण के लिए परीक्षाएं शुरू करने की बात चल रही है। इससे मदद मिलेगी, लेकिन हमें और भी कुछ करने की जरूरत है।

हमारे न्यूज़ चैनल और सोशल मीडिया पर किस तरह की खबरें आती रहती हैं? आजकल भारत के विश्व कप जीतने और किसी सेलिब्रिटी की शादी के बारे में बहुत कुछ बताया जाता है। किडनी ट्रांसप्लांट जैसी संभावित गलत हरकतों की कहानियों पर ध्यान दिया जाता है लेकिन उन खबरों के बारे में क्या कहा जाता है जिनमें जान बचाई जाती है?

एक हफ़्ते पहले एक महिला को एक्लेम्पसिया के साथ हमारे क्लिनिक से उदयपुर रेफर किया गया था, जो 120 किलोमीटर दूर है। जब वह अस्पताल पहुंची तो उसे 3 घंटे से ज़्यादा समय से दौरे पड़ रहे थे और वह मुश्किल से होश में थी। उसे बचाया जाना स्त्री रोग विशेषज्ञों और नर्सों द्वारा उसे दिए गए त्वरित उपचार का ही नतीजा था।
विभिन्न समाचार माध्यमों में ऐसी कहानियों को प्रमुखता से दिखाए जाने की आवश्यकता है। इनका डॉक्टरों और उनके पेशे के प्रति दृष्टिकोण पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा, साथ ही समाज का उन्हें देखने का दृष्टिकोण भी है।

इस समय दो कहानियां चल रही हैं, भारतीय न्याय संहिता और किडनी ट्रांसप्लांट रैकेट के इर्द-गिर्द। चलिए पीछे चलते हैं! पिछली बार कब हमने उन भयावह परिस्थितियों के बारे में बात की थी जिसमें हमारे युवा डॉक्टर या डॉक्टर बनने वाले लोग पढ़ते हैं? वे किस तरह के हॉस्टलों में रहते हैं, कैसा खाना खाते हैं, उनका असामान्य रूप से लंबी ड्यूटी रोस्टर? हमने कब उन कहानियों का जश्न मनाया जिनमें वे दिन-ब-दिन मरीजों को बचाते हैं? हमें अच्छी तरह याद है कि हमारे डॉक्टरों ने कोविड महामारी के दौरान कितनी शानदार भूमिका निभाई।

हमें ऐसी कहानियां सुनाते रहना चाहिए। ऐसी कहानियों का अभाव और लगातार ऐसी कहानियां जो इतनी सकारात्मक नहीं होती हैं, बेचैनी पैदा करती हैं, जो खतरनाक हो सकती हैं। कुछ साल पहले मध्य राजस्थान के एक अस्पताल में एक जटिल प्रसव के दौरान महिला की मौत हो गई थी। मीडिया की ओर से तत्काल प्रतिक्रिया और परिवार की ओर से दबाव अप्रत्याशित और अनपेक्षित नहीं था। लेकिन उसके बाद जो त्रासदी हुई वह अपेक्षित नहीं थी। और दिल दहला देने वाली थी। सुर्खियों में रहने वाली डॉक्टर तनाव को बर्दाश्त नहीं कर सकी और उसने अपनी जान दे दी।

आज हमारे देश की स्थिति एक चेतावनी है। जब हम अपनी स्वास्थ्य सेवा का पुनर्निर्माण शुरू कर रहे हैं तो यह उचित होगा कि हम इसके टुकड़ों को न उठाकर समग्र रूप से देखें।
(लेखक डॉक्टर और राजस्थान की एनजीओ बेसिक हेल्थकेयर सर्विसेज की सह-संस्थापक हैं, जो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र चलाती हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)


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