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भारत की आत्मा को बचाने के लिए करना होगा संघर्ष

जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-'जब दुनिया सोएगी, भारत प्रकाश और स्वतंत्रता के लिए जागेगा

भारत की आत्मा को बचाने के लिए करना होगा संघर्ष
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- जगदीश रत्तनानी

26 नवंबर, 1949 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इन भावनाओं को प्रतिध्वनित किया- 'यदि चुने गए लोग सक्षम, चरित्रवान और सत्यनिष्ठ व्यक्ति हैं तो वे एक दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम बनाने में भी सक्षम होंगे। यदि उनमें इन गुणों का अभाव है तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सकता। आखिरकार संविधान एक मशीन की तरह निर्जीव वस्तु है। यह उन लोगों के कारण जीवन प्राप्त करता है जो इसे नियंत्रित करते हैं और इसे संचालित करते हैं। भारत को ईमानदार लोगों के एक समूह से ज्यादा कुछ नहीं चाहिए जिनके सामने देश का हित होगा।

जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-'जब दुनिया सोएगी, भारत प्रकाश और स्वतंत्रता के लिए जागेगा'। 15 अगस्त, 1947 के उस महत्वपूर्ण अवसर के 75 से अधिक वर्षों में जब हमें इस बात का जश्न मनाना चाहिए कि कैसे उस प्रकाश और स्वतंत्रता ने हमें पोषित किया तथा हमें एक ऐसे राष्ट्र का गौरवशाली नागरिक बनाया जो उन मूल्यों पर खड़ा है जिन्हें हम संजोना चाहते हैं, तब भारत एक बहुत ही अलग दौर में चला गया है। यह पीड़ादायक है और वर्तमान समय में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि उस सपने पर अंधेरा उतर रहा है क्योंकि स्वतंत्रता को लूटा जा रहा है, लोकतंत्र को कुचला जा रहा है और भारत एक पतन के मार्ग पर जा रहा है।

यह पतन अचानक नहीं हो रहा है। यह कुछ समय से संस्थानों, प्रमुख व्यक्तियों और एजेंसियों पर बढ़ते कब्जे के रूप में सामने आ रहा है जिसमें सभी को एक तरह से या किसी अन्य रूप में एक सोच, एक पार्टी और एक विचारधारा के सामने झुकने के लिए मजबूर किया जा रहा है। अधिक स्थानों पर कब्जा करने की तलाश जारी है। यह एक पार्टी द्वारा निर्मित एक बड़ी और अच्छी तरह से पोषित-प्रशिक्षित प्रचार मशीन द्वारा संचालित है जो हर विपक्ष को नजर और दिमाग से बाहर चाहता है। इसमें आक्रमण के सभी संकेत हैं।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी एक ऐसी एजेंसी द्वारा की गई है जिसका विश्वसनीयता मूल्य शून्य है और जो सरकार की दासी की तरह काम करती है। जो सभी संभावनाओं और अर्थों में सत्तारूढ़ पार्टी के राजनीतिक एजेंडे पर बिकी हुई होती है। यह केवल एक उदाहरण है कि उस एक पार्टी को सत्ता में रखने और अन्य सभी को बदनाम करने के लिए कितना दबाव डाला जा रहा है। वर्तमान स्थितियों में यह देखना मुश्किल है कि 2024 में निष्पक्ष चुनाव कैसे लड़ा जा सकता है। राष्ट्रीय मनोदशा को एक कार्टून द्वारा अच्छी तरह से अभिव्यक्त किया गया था जिसमें मैदान में दौड़ के समय सिर्फ सरकार का पदाधिकारी दौड़ रहा है और दौड़ में शामिल अन्य सभी को बंधा हुआ दिखाया गया था और फिर मजाक में एक सवाल पूछा गया है कि 'कौन जीत रहा है?' इस स्तर पर सभी बाजियां बंद हैं। हम बर्फीले पानी में हैं। हम अभी भी सुरक्षित रूप से तट पर पहुंच सकते हैं लेकिन हाइपोथर्मिया होने का खतरा अधिक है।

नेहरू ने हमें बताया था- 'लेकिन इतिहास में कभी न कभी एक पल आता है, जरूर आता है,जब हम पुराने से नए की ओर कदम बढ़ाते हैं, जब एक युग समाप्त होता है और जब लंबे समय से दमित राष्ट्र की आत्मा को अभिव्यक्ति मिलती है।' आज हम वह पंक्ति इस प्रकार पढ़ सकते हैं- 'लेकिन इतिहास में शायद ही कभी एक क्षण आता है, जो आता है, जब हम नए से पीछे हटते हैं और अंधेरे युग में डूब जाते हैं और जब एक राष्ट्र की आत्मा, जिसे अंतत: अभिव्यक्ति मिली होती है, एक बार फिर से दब जाती है।' हम नहीं जानते कि यह आत्मा जिसे यातना दी गई है, पीड़ित है, कुचली हुई है, उस एक दिन के लिए कैसे रुकी रहेगी जब भारत फिर से फल-फूल सकता है और संविधान के मूल्यों और भावना को पुन: प्राप्त कर सकता है। वह संविधान जो कि कितना भी अच्छा दस्तावेज हो लेकिन अंतत: उन लोगों की प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है जो इसकी रक्षा के लिए हैं।

ये खतरे हमेशा वहां थे और वास्तव में ढेर सारे शब्दों में व्यक्त किए गए थे। संविधान सभा में संविधान पारित करने से एक दिन पहले 25 नवंबर, 1949 को भाषण देते हुए डॉ. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने चेतावनी दी थी- 'संविधान कितना भी अच्छा हो सकता है लेकिन जिन्हें इन पर अमल करने के लिए चुना जाता है यदि वे बुरे होते हैं तो वह निश्चित रूप से बुरा होगा.., राज्य के अंगों का कामकाज वे कारक हैं जिन पर लोग और राजनीतिक दल बैठते हैं जिन्हें वे अपनी इच्छाओं और अपनी राजनीति को पूरा करने के लिए अपने उपकरण के रूप में उपयोग में लाएंगे। यह कौन बता सकता है कि भारत की जनता तथा उनके राजनीतिक दल किस तरह आचरण करेंगे?'

अगले दिन, 26 नवंबर, 1949 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इन भावनाओं को प्रतिध्वनित किया- 'यदि चुने गए लोग सक्षम, चरित्रवान और सत्यनिष्ठ व्यक्ति हैं तो वे एक दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम बनाने में भी सक्षम होंगे। यदि उनमें इन गुणों का अभाव है तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सकता। आखिरकार संविधान एक मशीन की तरह निर्जीव वस्तु है। यह उन लोगों के कारण जीवन प्राप्त करता है जो इसे नियंत्रित करते हैं और इसे संचालित करते हैं। भारत को ईमानदार लोगों के एक समूह से ज्यादा कुछ नहीं चाहिए जिनके सामने देश का हित होगा। इसके लिए मजबूत चरित्र वाले, दूरदर्शी लोगों की आवश्यकता है, जो देश के हितों का त्याग नहीं करेंगे और जो पूर्वाग्रहों से ऊपर रहेंगे।'

आज पूर्वाग्रहों का प्रयोग, नीति और उसका निष्पादन करने के लिए ही हो रहा है। इसके खिलाफ कुछ संस्थान खड़े हो रहे हैं जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा उल्लेखनीय उस फैसले के मामले में है जिसने 2018 की चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द कर दिया और आदेश दिया था कि इस बात का विवरण सार्वजनिक किया जाए कि बॉन्ड किसने खरीदे और किसने पैसे लिये। फिर भी, इस फैसले से मायूस होकर इसे रोकने की हताशा इतनी अधिक थी कि संविधान पीठ से अपने आदेश में संशोधन करने के लिए कहने हेतु भारत के सबसे बड़े राष्ट्रीयकृत बैंक, भारतीय स्टेट बैंक को डेटा जारी करने के लिए कम से कम 3 महीने का समय मांगने के लिए एक जूनियर अधिकारी का हलफनामा दायर करने का दुस्साहस करना पड़ा। यह समय डेटा जारी करने के लिए पर्याप्त से अधिक था। जैसा कि बाद में पाया गया कि डेटा आसानी से उपलब्ध है।

यह बात चुनावों से पहले बाहर आने के कारण इस कदम को बॉन्ड के माध्यम से पैसे मिलने के सबूत छिपाने और सत्तारूढ़ तंत्र के जबरन वसूली के गंदे रहस्यों को छुपाये रखने के एक स्वाभाविक और ज़बरदस्त प्रयास के रूप में देखा गया था। दाखिल हलफनामा झूठा था क्योंकि अंतत: सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित समय सीमा में ही डेटा जारी किया गया था। हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण फैसलों में से एक पर किस तरह कोई बैंक सुप्रीम कोर्ट से झूठ बोल सकता है? किस तरह आयकर विभाग सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों में से एक कांग्रेस के धन को फ्रीज़ करने की कार्रवाई शुरू करता है? उच्च न्यायालय का न्यायाधीश समय से पहले सेवानिवृत्ति कैसे ले सकता है और उसके तुरंत बाद चुनाव के लिए भाजपा का टिकट प्राप्त कर सकता है? यह कैसे हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक राज्यपाल को संविधान का पालन करने और एक निर्वाचित सरकार को काम करने से न रोकने के लिए कहना पड़ता है?

सभ्यता के पतन का अध्ययन करने वाले इतिहासकार अर्नोल्ड टॉयनबी ने हमें बताया है कि पतन बाहर की हमलावर ताकतों से नहीं आता है बल्कि आत्महत्या के एक रूप से सामने आता है। विघटन की स्थिति में समाज 'आत्मा की फूट' से पीड़ित है। हम एक आंतरिक पतन से पीड़ित हैं। आज सबसे बड़ा सवाल यह नहीं है कि अर्थव्यवस्था कितनी अच्छी है, चुनाव कौन जीतेगा, बल्कि सवाल यह है कि राष्ट्र उन ताकतों के खिलाफ कैसे खड़ा होगा जो भारत की भावना को उसके सबसे पवित्र संस्थानों और कार्यालयों को अंदर से मार सकती हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है। सिंडिकेट : द बिलियन प्रेस)


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