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बारिश की बूंद-बूंद सहेजने की जरूरत

नदी और पहाड़ हमेशा ही मनुष्य को आकर्षित करते रहे हैं। जब भी कोई आज की भागमभाग वाली जिंदगी से ऊबता है या तनाव में होता है

बारिश की बूंद-बूंद सहेजने की जरूरत
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- बाबा मायाराम

नदी और पहाड़ हमेशा ही मनुष्य को आकर्षित करते रहे हैं। जब भी कोई आज की भागमभाग वाली जिंदगी से ऊबता है या तनाव में होता है, तो वह जंगल और नदियों के पास जाता है। प्रकृति की ओर दौड़ता है। वहां उसे बड़ा सुकून व संबल मिलता है और आश्वस्त होता है। नदियों के किनारे बचपन भी समृद्ध होता है। नदी के पानी और रेत में बच्चे खेलते हैं, नहाते हैं और मौजमस्ती करते हैं।

पानी अब मौसमी नहीं, स्थायी समस्या बन गई है। हमारे अधिकांश गांव, कस्बे और शहर प्यासे हो गए हैं। वे पानी के लिए बाहरी स्रोतों पर निर्भर होने लगे हैं। लेकिन पूर्व में यह स्थिति नहीं थी। इस कॉलम में पानी की समस्या कैसे बढ़ी और हम इसका समाधान कैसे कर सकते हैं, इस पर बातचीत करना चाहूंगा।

कुछ समय पहले तक पानी के मामले में हमारी गिनती संपन्नता में होती थी। हमारे पास कुएं, तालाब, झरनें व झीलें थीं। सदानीरा नदियां थीं। अच्छे हरे-भरे जंगल थे। लेकिन अब न तो कुएं हैं, तालाब भी कम हो गए हैं, और न ही नदियां बची हैं। बारहमासी छोटी नदियां भी मौसमी बन गई हैं।

अगर मैं मध्यप्रदेश के सतपुड़ा अंचल की बात करूं, तो यहां की ज्यादातर बारहमासी नदियां सूख गई हैं। यहां की नदियां दक्षिण में स्थित सतपुड़ा पहाड़ से निकलती हैं और उत्तर में जाकर नर्मदा में मिलती हैं। लेकिन इनके सूखने से नर्मदा भी कमजोर हो गई है।

इस इलाके में विपुल वन संपदा थी। ये हरे-भरे जंगल नदियों के स्रोत थे। इसलिए इऩ नदियों को वनपुत्री व वनजा भी कहते हैं। जबकि उत्तर भारत की नदियों को हिमजा यानी बर्फ से निकलने वाली नदी कहा जाता है। ये नदियां व झरने कल-कल बहते रहते थे।

नदियों के किनारे ही सभ्यताएं पल्लवित पुष्पित हुई हैं। कला, संस्कृति का विकास हुआ है। इन्हीं के किनारे उपजाऊ जमीन के कछार हुआ करते थे, जिससे लोगों की भोजन की जरूरत पूरी होती थी। भोजन व पानी मनुष्य की बुनियादी जरूरत है, जो इनसे पूरी होती रही हैं।

नदियों को पवित्र माना जाता है और उनकी पूजा होती है। धार्मिक ग्रंथों और पुराणों में भी इनकी गाथाएं हैं। प्रचुर मात्रा में लोक साहित्य है। सांस्कृतिक रूप से जीवन में इनका महत्वपूर्ण स्थान है। नर्मदा की तो श्रद्धालु पैदल परिक्रमा करते रहे हैं। इनके किनारे लगने वाले मेले प्रसिद्ध हैं। मेलों में बड़ी संख्या में श्रद्धालु एकत्र होते हैं।
नदी और पहाड़ हमेशा ही मनुष्य को आकर्षित करते रहे हैं। जब भी कोई आज की भागमभाग वाली जिंदगी से ऊबता है या तनाव में होता है, तो वह जंगल और नदियों के पास जाता है। प्रकृति की ओर दौड़ता है। वहां उसे बड़ा सुकून व संबल मिलता है और आश्वस्त होता है।

नदियों के किनारे बचपन भी समृद्ध होता है। नदी के पानी और रेत में बच्चे खेलते हैं, नहाते हैं और मौजमस्ती करते हैं। बेर, मकोई जैसे फल खाते हैं। अगर एक नदी सूखती है तो उसके साथ बचपन भी विपन्न हो जाता है।

एक समय नदी की रेत में डंगरबाड़ी ( तरबूज-खरबूज की खेती) होती थी. खेती करने वाले केवट-कहार समुदाय के लोगों का डेरा नदी में होता था। वे यहां खेती करते थे, रहते थे और नदी की महिमा के गीत गाते थे। इससे उनकी आजीविका चलती थी।

लेकिन अब स्थिति बदल गई है। सैकड़ों सालों से सदानीरा नदियां, झील, झरने, कुएं और बावड़ियां सूख गई हैं या सूखने के कगार पर हैं। इस कारण मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी से लेकर समस्त जीव-जगत के लिए पानी की समस्या खड़ी हो गई है।

गहराते पानी के संकट व नदियों के सूखने का एक कारण जंगलों का सफाया है। जिस तरह गंजे सिर पर पानी डालने से वह सरपट बह जाता है, उसी तरह अगर जंगल नहीं होंगे तो पानी बह जाएगा। उसे रोकने के लिए जंगल बहुत ही जरूरी हैं। जंगलों के कारण एक तो बारिश अधिक होती है। लेकिन जंगल नहीं रहने से कम या अनियमित बारिश होने की खबरें आती हैं।

जंगलों के अंदर की झाड़ियां, पौधे और लताओं की जड़ों के कारण मिट्टी पोली व हवादार रहती थी। अत: पानी धरती में जज्ब होता था। इसमें जंगल के जीव-जंतु, केचुएं, मेढक, सांप बिल बनाते थे, जो भूजल रिसाव में सहयोग करते थे। पेड़ों के पत्तों व उसकी शाखाओं के जरिए पानी धरती का पेट भरता था और इससे भूक्षरण भी नहीं होता था। प्रकृति का जल, जंगल और जैव विविधता के संरक्षण का एक तरीका था, जो गड़बड़ा गया है।

जंगल कम होने से तापमान काफी बढ़ गया है। पेड़ भी पानी का ही रूप है। जंगल पानी के स्रोत हैं ही, तापमान भी नियंत्रित करते हैं। और पेड़ों की पत्तियां, छोटी-मोटी शाखाएं सड़ गलकर जैव खाद बनाती हैं, जो खेतों को उपजाऊ बनाती हैं, जिससे किसानों की अच्छी उपज होती है।

आज नदियों को बांधा जा रहा है। उनमें कचरा छोड़ा जा रहा है। पानी का सोख्ता की तरह अपने में समोने वाली रेत का खनन किया है। इससे नदियों का प्रवाह अवरूद्ध हो रहा है। जल की जैव विविधता खत्म हो रही है। पहाड़ों को खोदा जा रहा है, जिससे कई नदियां व जलस्रोत सूख रहे हैं। इन सबके लिए बड़े पैमाने पर लोगों को उजाड़ा जा रहा है।

शहरीकरण का विस्तार किया जा रहा है पर शहरों में पानी का स्रोत नहीं है। बाहर से ही पानी लाकर इमारतों का निर्माण होता है और अब तो पीने का पानी भी बाहर से आता है। शौच के फ्लश में दबाने में ही करीब बीस लीटर पानी चला जाता है। इन सबमें पानी का अत्यधिक दोहन होता है।

पक्के मकान व सड़कें होने से जमीन के अंदर पानी नहीं जा पाता। इसके अलावा, रासायनिक खेती के कारण भी जमीन भी सख्त हो गई है, जिससे धरती का पेट नहीं भरता है।

नदियों के तट पर बड़ी तादाद में ट्यूबवेल खनन किए जा रहे हैं। डीजल पंप से सीधे पानी को खेतों में लिफ्ट करके सिंचाई की जा रही है। जल का प्रवाह अवरूद्ध हो जाता है। इसलिए नदी धीरे धीरे खत्म हो जाती है। ज्यादा पानी वाली फसलें लगाई जा रही हैं। बेहिसाब पानी इस्तेमाल किया जा रहा है।

जलवायु बदलाव एक बहुत चिंता का कारण माना जा रहा है। आजकल बारिश या तो होती नहीं है, या कम होती है, अनियमित या अधिक होती है। यानी मौसम की अनिश्चितता बनी रहती है। कुछ वर्षों से बारिश कम हो रही है, यह भी जलवायु बदलाव का ही नतीजा है।

कुल मिलाकर, हमें पानी के परंपरागत स्रोतों को फिर से बहाल करना होगा। वृक्ष खेती या कम से कम मेड़ों पर फलदार पेड़ों को लगाना होगा, जिससे खेतों में नमी रहे। कुपोषण कम नदियों के किनारे वनाच्छादन,छोटे स्टापडेम और पहाड़ियों पर हरियाली वापसी के काम करने होंगे। मिट्टी-पानी और पर्यावरण का संरक्षण करना होगा।
इसके अलावा, हमें परंपरागत खेती और सिंचाई की ओर भी ध्यान देना चाहिए। भूमि, जलस्रोतों,जरूरतों व संसाधनों के बीच तालमेल बिठाते हुए सिंचाई के कई साधन विकसित किए गए थे। पानीदार परंपराओं का ताना-बाना बना था। जिसके तहत तालाब, कुएं, नदी-नालों का बहाव को मोड़ कर खेतों तक पानी ले जाता था।

सतपुड़ा अंचल में ही पहाड़ी नदियों से कच्ची नाली बनाकर खेतों की सिंचाई की जाती थी। इसी अंचल में हवेली ( बंधिया) पद्धति प्रचलित थी, जिसमें खेतों में बंधिया( मेड़ बनाकर पानी भरा जाता है) बनाकर पानी भरा जाता है जिससे लंबे अरसे तक खेत में नमी रहती है। इस नमी से ही फसलें हो जाती थी।

इसी प्रकार, छत्तीसगढ़ में टेड़ा पद्धति से सब्जी बाड़ी की सिंचाई की जाती है, जिसमें बहुत ही कम पानी लगता है। छत्तीसगढ़ में ही सैकड़ों की संख्या में तालाब हैं जिनमें बारिश के पानी से तालाब लबालब रहते हैं। यहां की पानीदार संस्कृति है। तालाबों के महत्व को पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने अपने लेखों व किताबों में बहुत ही स्पष्ट तरीके से बताया है। यानी पानी के परंपरागत तौर-तरीकों की समृद्ध परंपरा से सीखा जा सकता है।

नदियों को बचाने के लिए मछुआरों व नदी पर आश्रित समुदायों को भी जोड़ना चाहिए, क्योंकि उनके पास नदियों, उनकी पारिस्थितिकीय और जैव विविधता के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी है। उनके पास परंपरागत ज्ञान का खजाना है। इससे नदियों को बचाया जा सकता है।

पानी का एकमात्र स्त्रोत है वर्षा। हमें इस पानी की एक-एक बूंद सहेजना होगा। यह ग्रामीण क्षेत्रों में यह काम तालाब के माध्यम से हो सकता है और शहरी क्षेत्रों में वाटर हार्वेस्टिंग ( जल संचयन) के माध्यम से। वाटर हारवेस्टिंग के माध्यम से पानी को एकत्र कर भूजल को ऊपर लाया जा सकता है। इसके माध्यम से कुओं व नलकूप को पुनजीर्वित किया जा सकता है। हमारे यहां पुरानी कहावत है बूंद-बूंद से घड़ा भरता है। यानी इस सबसे धरती का पेट भरेगा तो वह हमें पानी देती रहेगी।

यानी समन्वित प्रयास से ही हम पानी जैसे बहुमूल्य संसाधन का संरक्षण व संवर्धन कर सकते हैं। इस संदर्भ में हमें महात्मा गांधी की सीख याद रखनी चाहिए, उन्होंने कहा था कि प्रकृति मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, परंतु लालच की नहीं। हमें पानी की किफायत बरतनी चाहिए और नदियों और पारंपरिक स्रोतों को बचाने के लिए आगे आना चाहिए। लेकिन क्या हम इस दिशा में सचमुच कुछ पहल करने के लिए तैयार हैं?


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