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हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे सहारे

लोकसभा चुनाव के ठीक पहले उजागर हुए बॉन्ड काण्ड ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि लुटेरे कारपोरेट की पूंजी और घोटालेबाजों का काला धन ही मोदी ब्रान्ड हिन्दुत्वी राजनीति की शक्ति का स्रोत है

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे सहारे
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- बादल सरोज

लोकसभा चुनाव के ठीक पहले उजागर हुए बॉन्ड काण्ड ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि लुटेरे कारपोरेट की पूंजी और घोटालेबाजों का काला धन ही मोदी ब्रान्ड हिन्दुत्वी राजनीति की शक्ति का स्रोत है। यह और इसी तरह का दूसरा, इससे भी ज्यादा तादाद वाला पैसा है जिसकी दम पर भारत के संसदीय लोकतंत्र की बखिया उधेड़ी जा रही हैं, चुनाव में सभी दलों के लिए समान अवसर की सारी संभावनाएं खत्म की जा रही है।

कहते हैं कि कोई अगर गिरने के लिए अपनी पर भी आ ही जाये तब भी उसकी कोई न कोई सीमा होती ही है। मगर भारतीय जनता पार्टी एक अलग तरह की पार्टी है। आजादी के बाद के भ्रष्टाचार कांडों में सबसे विराट रकम वाले चुनावी बॉन्ड्स के महा-घपले का भांडा फूटने के बाद ऊपर से नीचे तक पूरी भाजपा की बेशर्मी इसी की मिसाल है। पहले तो इन इलेक्टोरल बॉन्ड्स को लेकर दायर की गई याचिकाओं की सुनवाई में ही लगातार टांग अड़ाई गईं। इसके बाद भी जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से इसके महासचिव सीताराम येचुरी सहित 5 याचिकाकर्ताओं की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की संविधान पीठ ने सुनवाई पूरी करके अपने फैसले में इन बॉन्ड्स को अवैधानिक करार दे दिया। इसी के साथ स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को इनसे जुड़ी सभी जानकारियां 6 मार्च तक सार्वजनिक करने के लिए आदेशित किया तो बैंक ही मुकर गई; उसने इसे बहुत ज्यादा ही बड़ा काम बताते हुए जून तक का समय मांग लिया।

मंशा साफ़ थी कि जो भी सामने आये वह आम चुनाव पूरे होने के बाद ही आये। यह एसबीआई का काम नहीं था, यह मोदी सरकार द्वारा देश की सर्वोच्च अदालत को अंगूठा दिखाने जैसा काम था। याचिकाकर्ताओं ने जब इसे चुनौती दी तो संविधान पीठ ने एक बार पुन: एकदम साफ़-साफ़ चेतावनी के साथ एसबीआई से कहा कि वह पूरी जानकारी 12 मार्च तक चुनाव आयोग को सौंपे और चुनाव आयोग 15 मार्च की शाम तक इसे अपनी वेबसाईट पर सार्वजनिक करे। एसबीआई ने इस स्पष्ट आदेश में भी टंगड़ी मारने की कोशिश की ; बॉन्ड खरीदने वालों की जानकारी और इन बॉन्ड्स से रकम उठाने वालों की जानकारी तो दे दी, मगर किसका बांड किसने भुनाया इसकी जानकारी वाला यूनिक कोड साझा नहीं किया।

जाहिर है सुप्रीम कोर्ट को झांसा देने की यह दूसरी धोखाधड़ी भी एसबीआई के किसी अफसर या चेयरमैन के बूते की बात नहीं थी। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने एक और आदेश में कहा कि , 'हमने आदेश में पूरी जानकारी देने को कहा था। लेकिन एसबीआई ने बॉन्ड नंबर नहीं दिया। एसबीआई पूरे आदेश का पालन करे। सभी बॉन्ड के यूनिक नंबर यानी अल्फा न्यूमेरिक नंबर निर्वाचन आयोग को 21 मार्च तक मुहैया कराए।' इसके बाद भी जानकारी अधूरी ही आई है- अभी कुछ है जो छुपाई जा रही है। कुल मिलाकर यह कि भाजपा ने अपने अपराध छुपाने के लिए सारी नैतिक, न्यायिक और वैधानिक सीमाएं लांघ दीं और देश की न्यायपालिका की खुल्लम खुल्ला अवमानना की।

इलेक्टोरल बॉन्ड्स की अब तक की जानकारी में किस किसने कितना दिया, जुआ कम्पनी, बीफ निर्यातक कम्पनी वगैरा ने कितना दिया ये सारी जानकारियां लगातार आ रही हैं इसलिए उन्हें गिनाकर जगह घेरने का कोई मतलब नहीं। मगर दो-तीन रुझान गौरतलब हैं; इधर इनकम टैक्स और ईडी का छापा पड़ा, उधर भाजपा के खाते में कुछ सौ करोड़ रूपये का बॉन्ड पहुंच गया, इधर भाजपा को कुछ सौ करोड़ रुपयों का बॉन्ड मिला और उधर उस कंपनी को हजारों करोड़ रुपयों का ठेका मिल गया या सौदा हो गया। यह सीधे-सीधे घूसखोरी और भ्रष्टाचार का मामला है-ध्यान रहे 1981 में कुछ बिल्डर्स को आउट ऑफ़ टर्न सीमेंट देकर दो ट्रस्टों के लिए महज 5 करोड़ का चन्दा लेने के आरोप में महाराष्ट्र के तब के मुख्यमंत्री ए आर अंतुले को इस्तीफा देना पड़ा था। बोफोर्स में तो सिर्फ 64 करोड़ का कमीशन लेने की बात थी, मगर उसी से सरकार उलट गई थी।

आजाद भारत के पहले वित्तमंत्री टी टी कृष्णमाचारी को तो बिना पैसा लिए ही किसी को मदद करते पाए जाने पर मंत्रीपद छोड़ना पड़ा था। होने को तो खुद इसी भाजपा के लालकृष्ण अडवानी ने जैन हवाला काण्ड में 2 करोड़ रूपये लेने का आरोप लगने पर संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था और शहीद बनने के अंदाज में कहा था कि 'राजनीतिक विश्वसनीयता बुनियादी चीज है. लोग हमें वोट देते हैं और हमें उनका विश्वास कायम रखना पड़ता है।' आज राजनीतिक विश्वसनीयता की दुहाई देने वाले उन्हीं अडवाणी को अपना मार्गदर्शक बताने वाली भाजपा इलेक्टोरल बॉन्ड से 60 अरब रूपये वसूल कर डकार तक नहीं ले रही।

इस बॉन्ड काण्ड का एक और गंभीर रुझान यह है कि जिनकी कुल संपत्ति 2 या 4 करोड़ की भी नहीं है उन कंपनियों ने भी सैकड़ों करोड़ रूपये के बॉन्ड्स भाजपा को दिए। यह बेनामी रकम किसकी है? वह कम्पनी किस देश की है? इसे किन अपराधी गिरोहों से जुटाया गया है? यह किसी भी देश के लिए चिंताजनक बात होती, दुनिया के देशों में आज भी होती है, मगर सरेआम, रंगे हाथों पकड़े जाने के बाद भी भाजपा बजाय शर्मसार होने के आरोप लगाने वालों को ही शर्मिन्दा करने के ढीठ अंदाज में अपने भ्रष्टाचार को सदाचार बताने की मुहिम युद्ध स्तर पर शुरू कर चुकी है। तरह-तरह के कुतर्कों, झूठों और महाझूठों का ज्वालामुखी सा फट पड़ा। झूठ की फैक्ट्री आई टी सैल का काम अब खुद भाजपा के शीर्षस्थ नेताओं से संभाल लिया। अपने चहेते और चुनिन्दा गोदी मीडिया के कभी प्रतिप्रश्न न करने वाले आज्ञाकारी पत्रकारों के बीच अमित शाह बोले कि 'बांड गोपनीय हैं तो क्या हुआ, नकदी चंदा भी तो गोपनीय होता था।' यह भी कि 'यह बांड सिस्टम राजनीति से काला धन समाप्त करने के लिए लाया गया था।'

मतलब यह कि भाई लोग काले धन में अपना भरा पूरा हिस्सा लेकर काला धन समाप्त करने का दावा कर रहे हैं। अपने अपराध को ढांपने के लिए अमित शाह झूठा आंकड़ा तक गढ़ लाये और चुनावी बॉन्ड्स को एसबीआई द्वारा बताई राशि 12 करोड़ से बढ़ाकर उसके 20 हजार करोड़ होने का दावा ठोंक दिया और प्रति सांसद के हिसाब से भाजपा को कम मिलने का शिकवा भी कर मारा। पूरे लेनदेन की तारीखें सामने आने और उनकी क्रोनोलॉजी साफ़-साफ़ दिखने के बाद भी वित्त मंत्राणी निर्मला सीतारमण छुपाछुपी खेलती दिखीं और इनकम टैक्स के छापों के पहले दिया या बाद में इस बहस को ही निरर्थक बता दिया। महाराष्ट्र वाले देवेन्द्र फड़नवीस तो और आगे बढ़ गए उन्होंने दावा किया कि 'ये बॉन्ड काण्ड पोलिटिकल फंडिंग को लेकर किये जाने वाले अच्छे बदलावों में से एक है।' अब अगर यह अच्छा है तो पता नहीं भाजपाई शब्दकोष में बुरे और आपराधिक का मायने क्या होता होगा।

जिस भाजपा के केंद्र की सत्ता में पहुंचने की सीढ़ी ही भ्रष्टाचार के खिलाफ उमड़ा जनाक्रोश था, अब सिर्फ वह भाजपा ही इस काण्ड को राष्ट्रनिर्माण का पुण्य कार्य नहीं बता रही. संघ के महासचिव- सरकार्यवाह- दत्तात्रेय होसबोले ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा अवैध घोषित किये और जानकारियां सार्वजनिक होने के बाद और ज्यादा संदेहास्पद हुए चुनावी बॉन्ड्स की हिमायत करते हुए कहा कि 'ये एक प्रयोग हैं और इनमे जांच-परख (चेक एंड बैलेंस) के सारे इंतजाम है।' ध्यान रहे यह प्रमाणपत्र उसी संघ के महासचिव दे रहे थे जिसके सरसंघचालक भागवत दावा करते हैं कि 'आरएसएस राष्ट्रनिर्माण में विश्वास करती है, भ्रष्टाचार के विरुद्ध हर आन्दोलन में वह साथ है।'

लोकसभा चुनाव के ठीक पहले उजागर हुए बॉन्ड काण्ड ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि लुटेरे कारपोरेट की पंूजी और घोटालेबाजों का काला धन ही मोदी ब्रान्ड हिन्दुत्वी राजनीति की शक्ति का स्रोत है। यह और इसी तरह का दूसरा, इससे भी ज्यादा तादाद वाला पैसा है जिसकी दम पर भारत के संसदीय लोकतंत्र की बखिया उधेड़ी जा रही हैं, चुनाव में सभी दलों के लिए समान अवसर की सारी संभावनाएं खत्म की जा रही हैं, सरकार में रहने और ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स जैसे विभागों को गुंडों मवालियों की तरह इस्तेमाल कर अपने लिए वसूली रैकेट ही नहीं चलाया जा रहा है बल्कि विपक्षी दलों को चंदा देने वालों पर भी डंडा चलाया जा रहा है। यही काला धन है जिससे निर्वाचित सांसदों, विधायकों को खरीद कर जनादेश उलटे जा रहे हैं, सारे मीडिया को अपना चारण और भाट बनाया जा रहा है। नौकरशाह एक पार्टी -भाजपा- के तबेले में बांधे जा रहे हैं। तुलसीदास की रामचरितमानस के लंका कांड की चौपाई में कहें तो आम चुनाव में 'रावण रथी विरथ रघुवीरा' जैसी स्थिति बनाई जा रही है। जनता इसे समझ रही है और इसी समझदारी को अप्रैल और मई के मतदान में अपने निर्णय का आधार बनायेगी।

चुनावी बॉन्ड काण्ड तो बानगी है- अभी पीएम केयर्स फण्ड के घोटाले का सामने आना बाकी है। यह वह कोष है जो है तो पीएम के नाम पर मगर असल में मोदी एंड कंपनी लिमिटेड के पास है। आरटीआई सहित जांच-परख के सभी दायरों से ऊपर है। वर्ष 19-20 में इस फण्ड में 3076.6 करोड़ जमा हुए, अगली साल ये बढ़कर 10,990.2 करोड़ हो गए। जबकि दोनों सालों में कुल खर्च इसके आधे से भी कम 6125 करोड़ रूपये ही हुआ। किसी को नहीं पता कि बचा हुआ पैसा साढ़े सात हजार करोड़ रुपए - जो चुनावी बॉन्ड्स में भाजपा को मिले पैसे से भी अधिक है, कहां हैं, किसके नियंत्रण में है। पता तो यह भी नहीं है कि जो खर्च हुआ वह भी किस काम में खर्च हुआ, सही में खर्च हुआ भी है या नहीं।

(लेखक सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा)


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