जल, जंगल, जमीन बचाने वालों की खतरे में है जान
भारत में हर सप्ताह ऐसे चार लोगों की हत्या हुई है जो जल, जंगल और जमीन को बचाने की मुहिम जुटे हुए हैं

नई दिल्ली। भारत में हर सप्ताह ऐसे चार लोगों की हत्या हुई है जो जल, जंगल और जमीन को बचाने की मुहिम जुटे हुए हैं। इनमें से अधिकांश खनन माफिया और कृषि कंपनियों के खिलाफ मोर्चा ले रहे थे और पूरे वर्ष 2016 में ऐसी घटनाओं में मरने वालों की संख्या करीबन 200 दर्ज की गई है। चिंता की बात यह है कि इस तरह की हत्याएं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है क्योंकि वर्ष 2015 में 185 लोग मरे थे तो वहीं 2016 में यह बढ़कर 200 हो गई। जानकार मानते हैं कि यह समस्या धीरे धीरे दुनिया के कई देशों में फैल रही है और पिछले वर्ष जहां ऐसी घटनाएं 16 देशों में देखी गयीं तो वहीं 2016 में यह 24 देश हो गए।
यहां ग्लोबल विटनेस नामक संस्था ने अपनी रिपोर्ट जारी करते हुए बताया है कि भारत में ऐसी घटना में तेजी से वृद्धि हुई है क्योंकि पुलिस की बर्बरता और कार्यकर्ताओं पर राज्य का दमन बढ़ा है। वैसे लैटिन अमरीका पहले नंबर पर है और सबसे अधिक खतरनाक जगह है जहां 60 फीसदी कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है।
ग्लोबल विटनेस के कैंपेनर बेन लेदर ने कहा कि यह रिपोर्ट बहुत ही डरावनी है क्योंकि धरती को बचाने की लड़ाई लगातार महंगी होती जा रही है और इस मुहिम में इंसानों की जिंदगी भी लागत में शामिल है। दुनिया के अधिकांश देशों के अधिकतर लोगों के पास अपनी जमीन छीनी जाने या बर्बाद कर दिए जाने के खिलाफ खड़े होने के अलावा विकल्प नहीं है।
पर्यावरण कार्यकर्ताओं पर पुलिस की बर्बरता के मामलों में नरेंद्र मोदी सरकार में वृद्धि हुई है। किसी भी तरह, हर कीमत पर विकास नीतियों को लागू करने के खिलाफ लोगों के ऊपर अत्याचार बढ़ा है। लोग इन नीतियों के विरोध प्रदर्शनों में शामिल होते हैं और फिर मौत की सजा तक भुगतते हैं। उनकी आवाज निर्ममतापूर्वक राजनीतिक और व्यावसायिक घरानों द्वारा दबा दी जाती है और पूंजी निवेशक व बैंक इस लागत को अनदेखा कर देते हैं।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जिसे व्यापक स्तर पर कोयला खदानों के आवंटन के खिलाफ आंदोलन प्रदर्शन करने के लिए बेरहमी से दमन किया गया है। पुलिस-प्रशासन से या कानून से दबाया गया और जबरिया उन्हें उनकी जमीन से खदेड़ा गया है व विरोध करने पर गैरकानूनी ढ़ंग से जेल भेज दिया गया।
लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता रिनचिन दलित लंबे अरसे आदिवासी मजदूर संगठन के साथ काम कर रही हैं, जो कि छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन से जुड़ा है।
रिनचिन का कहना है, कानून का राज खत्म हो गया है। अधिकतर आदिवासियों की जमीन पर उद्योगपतियों ने कब्जा कर लिया है।


