संसद से टपकता पानी
सरकारी निर्माण कार्यों में गुणवत्ता की उम्मीद करना भारतीयों ने अरसे से छोड़ दिया है

सरकारी निर्माण कार्यों में गुणवत्ता की उम्मीद करना भारतीयों ने अरसे से छोड़ दिया है। वे मानकर चलते हैं कि यदि किसी शासकीय स्कूल की इमारतें हों या फिर अस्पताल भवन, सड़कें हों या पुल-पुलिया- वे लम्बे समय तक नहीं चलेंगी। फिर वह निर्माण चाहे केन्द्र सरकार की देखरेख में बना हो या फिर राज्य सरकार द्वारा निर्मित हो। सरकारी भवनों को जर्जर होते देर नहीं लगती। कभी स्कूल में पढ़ाई करते बच्चों पर छत का प्लास्टर गिर जाता है तो कभी शाला भवन की दीवार ही ढह जाती है, कभी किसी सरकारी कार्यालय की सीढ़ियां टूटने लगती हैं तो कभी उनकी दीवारों पर उद्घाटन के पहले ही दरारें पड़ने लगती हैं। पुल-पुलियों के खम्भे टूटने लगते हैं तो सड़कें अल्प समय के इस्तेमाल करते ही फटने लगती हैं।
हाल के दिनों में ऐसे कई मामले सामने आये हैं। बिहार में पुलों ने गिरने का रिकॉर्ड बना दिया है। कुछ ही दिनों में दर्जन भर से अधिक पुल गिर गये। कई हाईवे पर तो उद्घाटन के केवल महीने-दो महीने में ही बड़ी दरारें पड़ गईं। सीवरेज अलग कहर ढाते हैं। जहां-जहां स्मार्ट सिटी परियोजना के अंतर्गत कार्य चल रहे हैं उनमें और भी बुरा हाल है। बारिश ने इस महत्वाकांक्षी व बहुप्रचारित योजना की पोल खोल दी है। सड़कों से लेकर मैदानों पर पानी ऐसा भरता है कि वाहन उनमें गिरते हैं, लोग हाथ-पांव तुड़वा रहे हैं या अपने प्राण गंवा रहे हैं। नियोजन से लेकर क्रियान्वयन तक सारा कुछ ऐसा दोषपूर्ण होता है कि इन योजनाओं का फायदा कम नुकसान ही अधिक होता है। जान-माल की हानि तो होती ही है, जीवन ही अव्यवस्थित हो जाता है। तिस पर अगर थोड़ी सी भी बरसात हो जाये तो जीवन को नर्क बनने में देर नहीं लगती।
अक्सर यह भी आरोप लगते हैं कि, जिसमें बड़े पैमाने पर सच्चाई भी है, भ्रष्टाचार का बड़ा योगदान गुणवत्ता को गिराने में होता है। यह किसी एक राज्य की बात नहीं है बल्कि यह सार्वभौमिक सत्य है कि शासकीय कार्य का अर्थ ही है अधिकारियों और राजनीतिज्ञों की जेबों का भरना। निर्माण कार्यों की लागत का आकलन तो वास्तविकता के आधार पर होता है, उसी कीमत पर कामों का आवंटन भी होता है परन्तु जब निर्माण शुरू होता है तो पता चलता है कि लाभ का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जायेगा। इससे ठेकेदार या निर्माण एजेंसियां गुणवत्ता में समझौते करती हैं। निर्माण हो जाता है व उसे विभाग को सौंप दिया जाता है, उद्घाटन हो जाते हैं लेकिन उन निर्माणों की गुणवत्ता जल्दी ही दीवारों, छतों, फर्शों और अन्य जगहों पर से झांकती दिखलाई पड़ती है। इसी कार्य पद्धति के तहत बने पुल लोगों पर गिरते हैं और मासूमों की मौतें होती हैं।
देश में सैकड़ों हादसे ऐसे होते हैं जिनके लिये यही घटिया निर्माण जिम्मेदार होता है परन्तु उससे भी बुरी बात होती है इस पर होने वाली सियासत। यह नया भारत है जहां पहले यह देखा जाता है कि जो भी हादसा हुआ है या निर्माण की खामियां उजागर होती है, तो वह किस राज्य का मामला है और वहां किसकी सरकार है। पहले न कोई ऐसी वारदात का बचाव करता था और न ही भ्रष्टाचार की स्वीकार्यता थी। लेकिन अब एक ही तरह की अलग-अलग राज्यों में होने वाली घटनाएं तय करती हैं कि उनकी आलोचना की जाये या बचाव। भारतीय जनता पार्टी की यह देन कही जा सकती है जिसके पास ऐसा प्रचार तंत्र है जो यह याद दिलाता है कि यदि अभी पुल-पुलिया गिर रहे हैं, एयरपोर्ट में पानी भर रहा है, रेलवे स्टेशन की छतों से पानी चू रहा है तो कोई बात नहीं, क्योंकि ऐसा पहले भी हुआ था- कांग्रेस के समय। भाजपा की ट्रोल आर्मी को फर्क नहीं पड़ता कि जनता के पैसे से बने अयोध्या के राममंदिर की छत से चू रहे पानी से गर्भगृह लबालब हो रहा है या महाकालेश्वर में लगाई गयीं मूर्तियां गिर रही हैं। करोड़ों की लागत से बने एक्सप्रेस-वे टूट जायें या पुल ढह जायें- उनकी बला से।
अपने प्रचार तंत्र और समर्थकों पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार, खासकर नरेन्द्र मोदी को बहुत भरोसा है, फिर वे यह भी जानते हैं कि उन्हें इसे लेकर किसी को जवाब देना नहीं है। यही कारण है कि उनकी सीधी देखरेख में बने और उनका अपना ड्रीम प्रोजेक्ट कहे जाने वाले नये संसद भवन में पानी टपकने को लेकर सरकार का कोई बयान नहीं आया है। वैसे ही जिस प्रकार कुछ हवाई अड्डों में पानी भरने व एक्सप्रेस-वे टूटने पर कुछ नहीं कहा गया। इसके बावजूद देश के सबसे प्रतिष्ठित भवन की छत से अपने निर्माण के इतने कम समय में पानी टपकने की जिम्मेदारी से मोदी नहीं बच सकते।
उन्होंने इसका निर्माण बहुत जल्दबाजी में कराया था। कोरोना काल में जब देश के लिये एक-एक रुपया महत्वपूर्ण था, इस पर करोड़ों रुपये लगाये गये (कितने, यह स्पष्ट नहीं)। मोदी इस काम का बार-बार निरीक्षण करते रहे। सेफ्टी हैलमेट लगाकर ड्राइंग फैलाये अन्य इंजीनियरों को जिस प्रकार से उंगली दिखाकर निर्देश देते हुए मोदी की तस्वीरें देश-दुनिया में प्रकाशित व प्रसारित हुई थीं, वैसी ही गुरुवार को सुबह से उस नीली बाल्टी की फोटुएं वायरल हो रही हैं जिसमें 'सेंट्रल विस्टा' कहे जाने वाले नवीन संसद भवन के भव्य गुंबद से टपकता पानी इकठ्ठा हो रहा है। निर्माण में स्पेस टेक्नालॉजी का इस्तेमाल का दावा करने वाले मोदी को इस पर कुछ कहना चाहिये क्योंकि पुराने संसद भवन के बरक्स उन्होंने इसे अधिक गौरवशाली माना है।


