तपती दोपहरियों में जल संकट: सही प्राथमिकताएं तय करना बहुत जरूरी
मनरेगा के माध्यम से या बुंदेलखंड पैकेज के माध्यम से हाल के समय में पहले की अपेक्षा जल संरक्षण व इससे मिले-जुले कार्यों के लिए पहले की अपेक्षा अधिक धन उपलब्ध हुआ है पर इसमें भ्रष्टाचार भी बहुत हुआ है

यह सच है कि मनरेगा के माध्यम से या बुंदेलखंड पैकेज के माध्यम से हाल के समय में पहले की अपेक्षा जल संरक्षण व इससे मिले-जुले कार्यों के लिए पहले की अपेक्षा अधिक धन उपलब्ध हुआ है, पर इसमें भ्रष्टाचार भी बहुत हुआ है तथा क्रियान्वयन में बहुत कमिया रह गई हैं। जहां भ्रष्टाचार आगे रहता है, वहां जन-भागेदारी पीछे जाती है क्योंकि भ्रष्टाचारी कभी जन भागेदारी नहीं चाहते हैं। आगे जहां जन-भागेदारी कम होती है वहीं असरदार व सफ ल कार्य होने की संभावना कम होती है। इस तरह जल-संरक्षण के नाम पर खर्च हो रहे बहुत से धन के उचित परिणाम नहीं मिल रहे हैं।
महानगरों में इस बारे में जरूर विमर्श हो सकता है कि गर्मी की मार को कम करने के लिए उपलब्ध दर्जनों कोल्ड ड्रिंक में कौन सी सबसे मन माफिक है, पर हमें ललितपुर जिले के झाबर (पुरा) की सहरिया बस्ती की 70 वर्षीय शुभजा से भी उसके पेयजल संकट के बारे में पूछना चाहिए। गांववासी बताते हैं कि प्यास से पीडि़त होने पर वह अनायास रो देती है। बस्ती में पानी का संकट इतना विकट हो गया है कि दूर के कुएं तक स्वयं जाने में असमर्थ शुभजा को कभी-कभी समझ नहीं आता है कि वह किससे पानी मांग कर अपनी प्यास बुझाए।
इसी गांव के बच्चों से पूछा कि बहुत प्यास लगने पर भी क्या कभी-कभी पानी नहीं मिलता तो उन्होंने कहा कि यह तो रोजमर्रा की बात है। उनके स्कूल में पेयजल व्यवस्था है नहीं। बस्ती में 30 घरों पर एक हैंडपंप है जो बहुत थोड़ा सा पानी गिरा पाता है।
पर टीकमगढ़ जिले के वनगॉय गांव में तो 200 परिवारों के लिए मात्र एक ही चालू हैंडपंप है जो बुरी तरह हांफते हुए कुछ पानी गिरा देता है। फिर इसी जिले के 350 परिवारों के मस्तपुरा गांव के एक कोने में खड़ा एकमात्र चालू हैंडपंप भी उसी तरह हांफते हुए पानी गिरा रहा है।
एक-एक हैंडपंप पर आश्रित हुए इन गांवों को दूर-दूर के दूषित कुंओं व तालाबों पर निर्भर होना पड़ा है व इस कारण बीमारियां भी बढ़ी है। पिछले तीन महीनों में पानी के अभाव में मस्तपुरा में लगभग 300 पशु दम तोड़ चुके हैं तो वनगॉय में लगभग 100 पशु मर चुके हैं।
एक बड़ी चिंता की बात यह है कि अपेक्षाकृत अच्छी मानसूनी वर्षा के बाद भी गर्मी का चरम आते-आते बुंदेलखंड में जल-संकट बहुत गंभीर रूप में सामने है। कुछ गांवों के लोग कहते हैं कि जब सरकारी तौर पर सूखा घोषित था कम से कम एक-दो बार टैंकर आ जाते थे, पशुओं के लिए कुछ पानी की व्यवस्था भी हो जाती थी, पर इस समय तो सरकारी सहायता कम से कम दूर-दूर के गांवों में तो नजर नहीं आ रही है।
इतना ही नहीं, जल संरक्षण के जैसे प्रयास अगली मानसूनी वर्षा से पहले दिखाई देने चाहिए, वे भी जमीनी स्तर पर नजर नहीं आ रहे हैं। सवाल यह है कि दूर-दूर बसे गांव टैंकर की आस में कितनी गर्मियां बिता सकेंगे? दीर्घकालीन उपाय तो यही है कि भली-भांति जल-संरक्षण हो।
इस दृष्टि से देखा जाए तो जल-संरक्षण के परंपरागत ज्ञान की दृष्टि से बुंदेलखंड काफी समृद्ध क्षेत्र रहा है। बहुत पुराने, चंदेल राजाओं के समय के समृद्ध तालाब यहां का गौरव रहे है। ऐसे अनेक तालाब एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। उनके नियोजन व निर्माण को आज के पारखी भी सराहते हैं। इस धरोहर को सहेजने का कार्य तो हमें कम से कम करना चाहिए था, पर यहां भी चूक हो गई।
कई परंपरागत जल-स्रोत उपेक्षित रहे, तो कई में मात्र सजावटी कार्य भर कर संतोष कर लिया गया। मुद्दा यह नहीं था कि एक गेट बनाकर उस पर फूल-पत्ती की तस्वीर बना दी जाती। जरूरत तो इस बात की है कि इनके जल ग्रहण क्षेत्रों से तालाबों व अन्य जल-स्रोतों में पानी पहुंचता रहे। इन जल-ग्रहण क्षेत्रों पर तो कब्जे कर दिए गए। तालाबों की काफी जमीन भी धीरे-धीरे दबंगों ने हड़प ली। उस पर निर्माण किया, होटल तक बना दिए।
उस पर खेती करने लगे जिससे पानी हटने पर भी तालाबों को गहरा करने, साफ करने का काम नहीं हो सका। जहां तालाबों के आसपास जल-संरक्षण के अधिक गुण वाले स्थानीय प्रजातियों के पेड़ लगने चाहिए, वहां महज कुछ झाड़ीनुमा पेड़ लगा दिए गए जिनकी जल-संरक्षण की भूमिका नगण्य है।
यह सच है कि मनरेगा के माध्यम से या बुंदेलखंड पैकेज के माध्यम से हाल के समय में पहले की अपेक्षा जल संरक्षण व इससे मिले-जुले कार्यों के लिए पहले की अपेक्षा अधिक धन उपलब्ध हुआ है, पर इसमें भ्रष्टाचार भी बहुत हुआ है तथा क्रियान्वयन में बहुत कमिया रह गई हैं। जहां भ्रष्टाचार आगे रहता है, वहां जन-भागेदारी पीछे जाती है क्योंकि भ्रष्टाचारी कभी जन भागेदारी नहीं चाहते हैं। आगे जहां जन-भागेदारी कम होती है वहीं असरदार व सफ ल कार्य होने की संभावना कम होती है। इस तरह जल-संरक्षण के नाम पर खर्च हो रहे बहुत से धन के उचित परिणाम नहीं मिल रहे हैं।
अत: भ्रष्टाचार रोकने व जन-भागेदारी को बढ़ाने के प्रयास जरूरी हैं। बुंदेलखंड के कुछ गांवों में पानी-पंचायतों का गठन करने और जल-सहेलियों का चयन जन-भागेदारी बढ़ाने के लिए हुआ है, वह सही दिशा में लिया गया कदम है पर इनकी सक्रियता और बढऩी चाहिए।
इसी तरह कुछ जल-संरक्षण कार्यों से गांववासियों की समितियों का गठन कर उनके हाथ में ही बजट सौंपा गया, यह भी पारदर्शिता व ईमानदारी की दिशा में एक अच्छा प्रयास है।
राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो हैंडपंप, लगाने, पाईप लाईन बिछाने के काम तो तेजी से बढ़े हैं, पर लोगों की प्यास बुझाने में अभी उतनी तेजी नहीं आई है। वजह यह है कि जिन जल-स्रोतों से पाईपलाईनों ने पानी बहाकर गावों तक पहुंचाना है वे जल-स्रोत सूख रहे हैं। कई छोटी नदियां दम तोड़ चुकी हैं या उसके कगार पर हैं।
भू-जल स्तर बहुत से स्थानों पर तेजी से नीचे जा रहा है। मस्तापुर गांव का जल-संकट दूर करने के लिए 300 फीट तक खुदाई कर दी गई, पर पानी बहुत कम निकला। अत: जल संरक्षण ही मूल दीर्घकालीन उपाय है।
मई की दोपहरियों मेंजब मैं बुंदेलखंड के जिन भी गांवों में गया वहां गांववासियों ने अपनी समस्याओं के साथ छोटे स्तर के, कम खर्चीले समाधान भी बताए। इनमें से कुछ ऐसे थे जो स्वीकृत या चर्चित होने के बाद भी उपेक्षित पड़े थे। जहां ऐसे अनेक छोटे समाधानों के लिए बजट की कमी बताई जाती है, वहां सरकार केन-बेतवा जोड़ जैसी योजना पर 18000 करोड़ रुपए खर्च करने के लिए आमादा है जिसके लिए 18 लाख पेड़ काटने जरूरी माने जा रहे हैं।
बहुत से गांववासी विस्थापित होंगे। वन्य जीवों के अभ्यारण्य या आरक्षित क्षेत्र उजड़ेंगे, यह भी एक समस्या है। तिस पर यह कई बार कहा गया है कि केन नदी में बेतवा नदी को देने के लिए अतिरिक्त जल उपलब्ध है, इस बुनियादी दावे को भी प्रमाणित नहीं किया गया है। परियोजना स्थान का ठीक-ठीक परीक्षण नहीं हुआ है।
18000 करोड़ रुपए की ऐसी संदिग्ध योजना के बजट को यदि छोटी जल-संरक्षण व जल-संकट दूर करने की सार्थक योजना में बांटा जाए तो 50 लाख रुपए के औसत से लगभग 36000 छोटी परियोजनाएं तैयार हो सकती हैं।
अत: जल संकट दूर करना है तो सही प्राथमिकताएं तय करना भी बहुत जरूरी है।
-भारत डोगरा


