एक आंख में विश्वगुरु, तो दूजे में डॉन बनने का स्वप्न
नई पीढ़ी को इन मूल्यों व आदर्शों को नहीं दिखाया जा रहा है

- डॉ. दीपक पाचपोर
नई पीढ़ी को इन मूल्यों व आदर्शों को नहीं दिखाया जा रहा है। उल्टे, वे यह भी देखते हैं कि डॉननुमा लोगों का समाज में न केवल खौफ है बल्कि उन्हें सम्मान भी मिलता है- इतना सम्मान कि उनके लिये विधानसभा और संसद तक पहुंचने के रास्ते आसान या खाली कर दिये जाते हैं। युवा यह भी देखते हैं कि वे (अपराधी) चाहे किसी सदन तक पहुंचे या न पहुंचे, समाज में उन्हें हर कोई झुक-झुककर सलाम करता है।
भयानक यह नहीं है कि करीब 40 साल से आतंक का पर्याय बने एक माफिया सरगना को तीन युवा ठोंक कर चले जायें; क्योंकि ऐसी सैकड़ों हत्याएं देश देख चुका है। राजनीति से लेकर कारोबारी जगत और अंडरवर्ल्ड में इससे भी खूंरेज़ी मनोहर कहानियां सभी लोग देख चुके हैं;
खौफनाक यह भी नहीं है कि एक लोमहर्षक हत्या पुलिस के बड़े बंदोबस्त में अभिरक्षित मुजरिमों के साथ हो जाती है। उसके भी कई-कई उदाहरण हमारे सामने पहले से मौजूद हैं;
यह घटना केवल इसलिये डरावनी नहीं है कि वारदात को अंजाम देने वाले नौजवान लगातार गिरते हुए स्तर के बावजूद अब भी एक सम्मानित पेशे (मीडिया) के प्रतिनिधि बनकर आये थे। इस हद तक तो नहीं पर पत्रकार बनकर आये व्यक्तियों द्वारा अक्सर गाली-गलौज या मारपीट करने और किसी नेता या व्यक्ति पर जूते उछालने की घटनाएं भी इसी देश में हो चुकी हैं;
इसमें भयंकर यह भी नहीं है कि इस शुद्ध आपराधिक हरकत का साम्प्रदायिक और धार्मिक एंगल ढूंढ़ा जा रहा है- वह तो अब आम चलन में है;
भयावह यह इसलिये भी नहीं है कि इस कारनामे का महिमामंडन हो रहा है। अब तो भारत की सार्वजनिक जीवन प्रणाली का यह नवाचार है।
असल भयानक तो वह मकसद है जो हत्या करने के बाद उस तीन सदस्यीय समूह के प्रमुख ने बतलाया है- 'छोटा-मोटा अपराध कब तक करते रहेंगे। हमें माफिया डॉन बनना है तो कोई बड़ा कारनामा करना ज़रूरी था जिससे हमारा आतंक कायम हो।' अगर यह सही है तो समाज के शरीर में झुरझुरी भरने के लिये यह काफी होना चाहिये। समाज यदि इस बयान की गंभीरता को नहीं समझ सकता तो जान लीजिये कि सब कुछ बदल डालने के इस नये परन्तु विकृत युगबोध ने देश को अंदर से पूरी तरह से सड़ा दिया है। जिन्हें दीमक द्वारा खाई जा चुकी लकड़ी पर किया गया यह रंग-रोगन आकर्षित कर रहा है, तो तय है कि एक बहुत ही डरावना भविष्य भारत का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है- वह भी वक्त के बहुत थोड़े से फासले पर।
शनिवार की रात इलाहाबाद के एक अस्पताल के सामने जब तीन युवाओं द्वारा माफिया डॉन अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की हत्या 'प्वाईंट ब्लैंक रेंज' कही जाने वाली नजदीकी से कर दी गई, तो उसे लेकर अनेक तरह के सवाल खड़े हो जाते हैं। मसलन, कि इनके पीछे कौन हैं, क्या यह करतूत खुद इन युवाओं की है या उनके पीछे कोई और राजनैतिक ताकत हैं? फिर, बेहद कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि वाले युवाओं के हाथों में 6 से 8 लाख रुपये कीमत की पिस्तौलें आई कहां से? इस विषय को 'क्राइम पेट्रोल' या 'सीआईडी' जैसे टीवी धारावाहिकों के पटकथा लेखकों के हवाले न कर हर उस व्यक्ति को इस घटना पर सोचना होगा जिसकी लोकतंत्र में थोड़ी सी भी गंभीर भागीदारी है; और जो देश का भला चाहता है- आने वाली पीढ़ियों समेत।
हत्या करने के अंजाम से वे युवक वाकिफ थे ही । चूंकि वे मारे गये माफियाओं द्वारा प्रताड़ित किसी परिवार के सदस्य भी नहीं थे, तो कयास लगाये जा रहे हैं कि किसी ने उनके हाथों में मौत उगलने वाले हथियार थमा दिये। उन्होंने तो केवल ट्रिगर दबाया है। हां, पहले उनमें वह हुनर ज़रूर पैदा किया गया होगा ताकि वार खाली न जाये। इसके बाद भी यदि वे डॉन बनने के लिये ऐसा कर बैठे हैं तो सोचना होगा कि यह मानसिकता कैसे और कहां से आई है। फिर, हर संजीदा व्यक्ति को यह भी सोचना होगा कि किसी के अपराधिक और राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिये युवाओं का इस्तेमाल कौन कर रहा है?
उनकी आंखों में ऐसे रक्तरंजित अंजाम वाले सपने क्योंकर और इस कदर समा गये हैं कि युवाओं को अब शिक्षा का गिरता स्तर नहीं दिखता, बंद होते स्कूल नहीं दिखते, खत्म होता रोजगार नहीं दिखता, अधेड़ अवस्था को प्राप्त हो जाने के बाद का उनका अपना बचा हुआ जीवन नहीं दिखता। स्कूलों और कॉलेजों की कक्षाओं व लाइब्रेरियों को सूना छोड़कर धर्म, अपराध या राजनीति से प्रेरित होकर कट्टे और तलवारें लहराते युवाओं को नये तरह के सपने देने के लिये पूर्वस्थापित मूल्यों और आदर्शों को एक सुनियोजित तरीके से विनष्ट किया गया है। एक विवेकहीन और लम्पट समाज बनाने के पहले उदार और आधुनिक बोध से निर्मित मूल्यों व आदर्शों को देखने का नज़रिया बदलना ज़रूरी था, सो वैसा किया गया।
भारत में कुछ यूं हुआ कि जिन लोगों ने देश को आधुनिक, समृद्ध और वैज्ञानिक चेतना से युक्त समाज बनाया, उन्हें पहले बदनाम किया गया, तत्पश्चात उनकी निरर्थकता साबित की गई। जीवन के श्रेष्ठ तत्वों को हमारी कमजोरी बतला दिया गया। मसलन, अहिंसा को कायरता, उदारता को किसी के आगे आत्मसमर्पण, धर्मनिरपेक्षता को तुष्टिकरण, समानता को अव्यवहारिक, बन्धुत्व को असम्भाव्य और सत्य को कबाड़। ऐसा करने वाले जानते हैं कि यह सब किये बिना लोग, विशेषत: युवा उनकी मर्जी के मार्ग पर हांके नहीं जा सकेंगे।
नई पीढ़ी को इन मूल्यों व आदर्शों को नहीं दिखाया जा रहा है। उल्टे, वे यह भी देखते हैं कि डॉननुमा लोगों का समाज में न केवल खौफ है बल्कि उन्हें सम्मान भी मिलता है- इतना सम्मान कि उनके लिये विधानसभा और संसद तक पहुंचने के रास्ते आसान या खाली कर दिये जाते हैं। युवा यह भी देखते हैं कि वे (अपराधी) चाहे किसी सदन तक पहुंचे या न पहुंचे, समाज में उन्हें हर कोई झुक-झुककर सलाम करता है। एक सुनियोजित तरीके से उनकी आंखों से डॉक्टर, इंजीनियर. सीए, अफसर, वैज्ञानिक, समाज सेवक, बुद्धिजीवी बनने के सपनों को डिलीट कर दिया गया है। पढ़ना-लिखना ही बेकार है- यही बतला दिया गया है। दरअसल देश के अनेक सपने हटे हैं, तभी तो माफिया बनने के सपनों की आंखों में जगह बन पाई है।
माफिया बनने का सपना देश के युवाओं की आंखों में आखिर आया कहां से? यह इसी मामले को देखने से समझा जा सकता है। नफरत, संकीर्णता, कट्टरता और हिंसा के कारण दीमक घर के हर कोने तक किस प्रकार से फैल गई है, उसका पता तो इस बात से चल जाता है कि बड़ी संख्या में लोग इस हत्या को सही ठहराने के लिये कई तरह के तर्क दे रहे हैं। इनमें से प्रमुख हैं- कोर्ट-कचहरी की कछुआ चाल, पुलिस की मिली-भगत, जैसे को तैसा, इनके साथ यही होना चाहिये, वगैरह... वगैरह। क्या एक सभ्य समाज में अदालतों की जिम्मेदारियां तमंचेबाज उठाएंगे या फिर खुद को स्थापित होने का अवसर कोई सड़क पर तलाशेगा अथवा पढ़ने-लिखने की बजाय बम, पिस्तौल के धमाके कर कोई युवा अपने विकास की राह बनाएगा?
क्या ऐसे तत्वों और ऐसी मानसिकता का उन्मूलन न कर खुद सरकारें ही अपनी अदालतों को गैर ज़रूरी साबित करने पर नहीं तुली हुई हैं? क्या भारत उसी मध्ययुग की ओर लौटना चाहता है जब बाहुबलियों का वर्चस्व होता था और कानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज़ ही नहीं हुआ करती थी? एक माफिया डॉन को खत्म करने के बाद क्या युवाओं के दिमाग में यह ख्याल बिलकुल नहीं आता कि आने वाले समय में उसे भी खत्म कर कोई तीसरा डॉन पैदा होगा। फिर चौथा और फिर पांचवा...।
आखिर इस श्रृंखला को तोड़ने का दायित्व कौन लेगा? इस भयानक सिलसिले को अगर विराम देना है तो युवाओं की आंखों में सभ्य, मानवीय, विवेकपूर्ण, आधुनिक और वैज्ञानिक रूप से तरक्की करने के सपने भरने होंगे; और दिलों में वे आदर्श और मूल्य वापिस बिठाने होंगे जिनके लिये भारत जाना जाता है। सत्ता और पूंजी पर कब्जा बनाये रखने की इच्छुक ताकतें तो ऐसा होने नहीं देंगी। यह शेष समाज की जिम्मेदारी है, वरना युवा पीढ़ी की एक आंख में विश्वगुरु बनने का काल्पनिक सपना होगा, तो दूसरी आंख में माफिया बनने का खूंखार स्वप्न। दोनों का कोई मेल ही नहीं है।
(लेखक 'देशबन्धु' के राजनीतिक सम्पादक हैं)


