ख़ामोश शहीद
'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले

- उपेन्द्रनाथ अश्क
'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।'
ठीक! लेकिन कितने ऐसे शहीद हैं, जिनकी चिताओं पर मेले तो क्या, कोई भूला भटका पंछी भी पर नहीं मारता।
शंभू ने दिल में पुख़्ता अह्द कर लिया। मैं लगान न दूंगा।
बारिश न होने की वजह से उसकी फसलें तबाह हो गई थीं। उसका घर मुफलिसी का अड्डा बन गया था। उसके बीवी-बच्चे भूक की शिद्दत से मौत की तरफ सरक रहे थे। उस पर लगान की अदम अदाइगी ने ज़मींदार की सख़्तियों को भी दावत दे दी थी।
लोगों ने उसे बहतेरा समझाया। पड़ोसियों ने कज़र् लेने में उसकी इमदाद करने का वादा किया। यहां तक कि गांव के साहूकार ने लगान की रकम दो आना रुपया के मामूली सूद पर देनी मंज़ूर भी कर ली। लेकिन शंभू न माना। उसने कहा, 'जिस दरख़्त की जड़ ही कट गई हो वो फल कहाँ से लाएगा?' और इसी लिए न उसने साहूकार से कज़र् लिया और न लगान दिया।
ज़मींदार के कारिंदों ने उसकी ज़मीन छीन ली। झोंपड़ी नीलाम कर दी । बर्तन भाँडे बेच डाले और उसे बिल्कुल बे-ख़ानुमाँ बर्बाद बना डाला। वो ख़ामोश रहा। सब्र का घूँट पी कर बर्दाश्त करता रहा। उसने एक लफ़्ज़ तक मुँह से नहीं निकाला। इस ज़ुल्म के ख़िलाफ एहतिजाज के तौर पर उसने भूक हड़ताल कर दी और हम-साए भी उसे इस इकदाम से न रोक सके।
शाम का वक्त था। सर्दी ज़ोरों पर थी और तुंद हुआ के झोंके जिस्म में पैवस्त हुए जा रहे थे।
उसकी भूक हड़ताल को पंद्रहवां रोज़ था और वो सूख कर कांटा रह गया था। लेकिन इस पर भी ज़मींदार का मन न पसीजा था। उस तक शायद इस बात की ख़बर भी न पहुंची थी।
और इस वक्त जब मगरिब में सूरज गुरूब हो रहा था और रात आहिस्ता-आहिस्ता कायनात पर छाने लगी थी, आसमान के साएबान तले, फर्श-ए-ख़ाक पर ठिठुरते हुए भूके बच्चों के दरमियान, उस की रूह जिस्म की कैद से आज़ाद हो गई।
हमसायों ने उसके जिस्म को दरिया की नज़र कर दिया। उसकी अर्थी का कोई जलूस नहीं निकला। अख़बारों में उसकी इस कुर्बानी की ख़बर तक न छपी और मुल्क तो क्या गांव तक में उसका मातम न किया गया।
क्या वो शहीद न था?


