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नूतन प्रभात

शीत ऋतु की ठिठुरन भरी सुबह में सूर्य की पहली किरणें झरोखे से छनकर कमरे में आईं

नूतन प्रभात
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- नृपेन्द्र अभिषेक नृप

शीत ऋतु की ठिठुरन भरी सुबह में सूर्य की पहली किरणें झरोखे से छनकर कमरे में आईं। वसुंधरा, जो अपने छोटे से घर में जीवन के कठोर थपेड़ों को झेलते हुए किसी तरह अपने बच्चों का पालन कर रही थी, ठंड से कांपते हाथों में पुरानी शॉल लपेटे, चूल्हे के पास बैठी थी। बीते वर्ष का हर दिन उसके लिए संघर्ष का परिचायक था—'आकाश के तारे तोड़ना' उसके लिए हर छोटी खुशी जुटाना था।

उसके दस वर्षीय पुत्र, अंशु, ने खिड़की के पास खड़े होकर कहा, 'माँ, नूतन वर्ष का सूरज तो कितना सुंदर है!' वसुंधरा ने उसके चेहरे की मासूम चमक देखी और सोचा, 'यह जीवन चाहे कितना भी कठिन क्यों न हो, इस हँसी में ही तो मेरी जीत है।'

अंशु ने माँ से आग्रह किया, 'आज पतंग उड़ाने चलेंगे?' वसुंधरा के मन में कुछ पल के लिए विचार आया कि अभावों के इस घर में पतंग कहाँ से आएगी। लेकिन उसने मन को मजबूत किया।

दो पैसे बचाने के लिए उसने महीनों से अपनी इच्छाओं का गला घोंटा था। उसने अंशु की खुशी के लिए अपनी गुल्लक तोड़ दी। थोड़ी देर बाद, माँ-बेटा मैदान में थे। अंशु पतंग उड़ा रहा था और वसुंधरा की आँखों में सपने थे—'हर अंधेरी रात के बाद उजली सुबह आती है।'

पतंग हवा में ऊँचाइयाँ छू रही थी, मानो कह रही हो, 'जो हिम्मत हारते नहीं, सफलता उन्हीं के कदम चूमती है।' वसुंधरा ने महसूस किया कि यह नूतन वर्ष उसकी आशाओं का पुनर्जन्म है।


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