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समकालीन कविता में माँ'

मां एक ऐसा शब्द है, जिसमें संपूर्ण सृष्टि की ममता, त्याग, प्रेम और उसका बलिदान समाहित है

समकालीन कविता में माँ
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- डॉ.नीरज कुमार मिश्र

मां एक ऐसा शब्द है, जिसमें संपूर्ण सृष्टि की ममता, त्याग, प्रेम और उसका बलिदान समाहित है। इसी मातृत्व की महानता को सम्मान देने और मां के प्रति अपने प्रेम और कृतज्ञता को प्रकट करने के लिए हर साल 'मदर्स डे' मनाया जाने लगा है। यह दिन माँ के प्रति हमारे प्रेम, सम्मान और समर्पण को व्यक्त करने का विशेष अवसर की तरह है। आज माँ को याद करने का दिन है। आधुनिक समय में माँ को प्यार और सम्मान देना किसी कल्पना से कम नहीं है।क्योंकि हम विकास की अंधी दौड़ में इस कदर भागे जा रहे हैं कि अपनी माँ और उसके त्याग को भूले जा रहे हैं। याद कीजिए भीष्म साहनी की कहानी 'चीफकीदावत' और प्रेमचंद की कहानी' बूढ़ी काकी'को।एक तरफ हम इस दिन माँ को याद करते हैं,दूसरी तरफ उनकी ममता,त्याग,प्रेम और बलिदान को भूलकर उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं।

इस दुनियाँ में यदि कुछ भी महान और नायाब तोहफा है,तो वह है-माँ। वैसे माँ को सम्मान और प्यार देने के लिए किसी दिन और तारीख की जरूरत नहीं होती है। फिर भी यदि कोई दिन अलग से माँ के नाम में मनाया जाये तो और भी अच्छा है। ऐसा कहते हैं कि मदर्स डे मनाने की परंपरा प्राचीन यूनान और रोम से जुड़ी हुई है। वहां देवियों की पूजा की जाती थी, जिन्हें मातृत्व का प्रतीक माना जाता था। लेकिन मदर्स डे नाम हमें अमेरिका से मिला है। कहा जाता है कि अमेरिका एक्टिविस्ट एना जार्विस ने मदर्स डे मनाने की प्रथा शुरू की।एना अपनी माँ से बहुत प्यार करती थीं। उन्होंने कभी शादी नहीं की। वो हमेशा अपनी माँ के साथ रहीं।8 मई, 1914 को अमेरिकी कांग्रेस ने एक कानून पारित किया, जिसमें मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे घोषित किया गया। 9 मई 1914 को अमेरिकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने नियम बनाया की मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जायेगा। इसे भारत में भी अब मनाया जाने लगा है।

हम और किसी दिन अपनी माँ को याद करें न करें,लेकिन इस दिन बाजारवाद के के असर से जरूर याद कर लेते हैं। यही वजह है की मई के इस विशेष दिवस पर सोशल मीडिया में माँ के प्रति अपार प्यार देखते ही बनता है। कल सुबह पेपर पढ़ते हुए, ये बात दिमाक में आई कि शायद ही ऐसा कोई कवि हो,जिसने माँ पर कविता न लिखी हो। सुबहमहाविद्यालय के बहुत जरूरी काम से निकलने की वजह से थोड़ा ही लिख पायाथा ।लेकिन दिन भर मन में बेचैनी रही। देर शाम घर पहुँचा। मेरे पास जितने भी समकालीन कवियों की कविताएँ थीं,सभी को निकाल कर देखा। उन्हीं कविताओं के आधार पर माँ को याद करने का ये प्रयासकिया है।

समकालीन हिंदी कविता में अशोक वाजपेयी के 1966 में प्रकाशित पहले कविता संग्रह 'शहर अब भी संभावना है' और 1995 में में प्रकाशित कविता संग्रह 'आविन्यो' पर माँ पर लिखी अनेक कविताएँ हैं।अशोक वाजपेयी अपनी माँ को दीदीआ कहते हैं- 'अनंत में जहाँ तुम हो / पितरों के जनाकीर्ण पड़ोस में / वही अपने ढीले पेण्ट को सम्हालता /मैं भी हूँ गुड्डुन / जैसे यहाँ इस असंभव सुनसान में / तुम हो इस कविता,इन शब्दों,इस याद की तरह दीदीआ।' अशोक वाजपेयी अपनी कविताओं में आने वाली माँ को भावात्मक ऊँचाई से नीचे लाकर, उसे वस्तुस्थिति से जोड़कर, सामान्य धरातल में लाकर खड़ा कर देते हैं।इनके यहाँ भी माँ चुप रहती है।दु:ख झेलती है।चुप्पी ही उसका निर्वेद है।चंद्रकांत देवताले जब माँ पर कविता लिखते हैं,तो ऐसा लगता है कि जैसे उनका पूरा कवित्व माँ को समर्पित हो गया हो।उनकी कविता 'माँ जब खाना परोसती थी' उन दिनों की याद दिलाती है,जो अभी भी दबे हैं शायद कहीं गहरे हमारे दिलों में- 'वे दिन बहुत दूर हो गए / जब माँ के बिना परसे पेट भरता ही नहीं था / वह मेरी भूख और प्यास को रत्ती-रत्ती पहचानती थी / और मेरे अकसर अधपेट / खाये उठने पर/ बाद में जूठे बरतन अबेरते / चौके में अकेले बड़बड़ाती रहती थी / बरामदे में छिपे मेरे कान उसके हर शब्द को लपक लेते थे / और आखिर में उसका भगवान के लिए बड़बड़ाना/ सबसे ख़ौफनाक सिद्ध होता / और तब मैं दरबाजा खोल / देररात के लिए सड़क के एकांत और /अंधेरे को समर्पित हो जाता है।' कवि नरेंद्र पुण्डरीक ने भी अनेक कविताएं माँ पर लिखीं हैं। इन्होंने 'माँ' कविता में उस माँ की बेबसी को मार्मिक ढंग से रखा है। जिसके बेटे अपनी माँ कोपिता के न होने पर बोझ समझते हैं-' पिता के बाद/हम भाइयों के बीच पुल बनी माँ / अचानक नहीं टूटी/धीरे-धीरे टूटती रही / हम देखते रहे और मानते रहे / कि बूढ़ा रही है माँ / हाथों-हाथ रहती माँ / एक दिन कंधों में आ गई / धीरे-धीरे महसूस करने लगे हम /अपने वृषभ कंधों में/माँ का भारी होना/जब तक जीवित रही माँ /हम बदलते रहे अपने कंधे / माँ आखिर माँ ही तो है/ बार- बार हमें कंधे बदलते देख / हमारे कंधों से उतर गई माँ / और माँ के कंधों से उतरते ही उतर गये हमारे कंधे।' आज लगभग हर माँ की स्थिति ऐसी ही है।माँ कितनी बार टूटती है।इसका भान हम बेटों को नहीं होता।बेरोजगारी की वजह से अपने घरों से महानगर में पलायन आज के समय की सबसे बड़ी त्रासदी है। कैसे माँ और गाँव से दूरी कवि मिथिलेश श्रीवास्तव को कचोटती है।इसकी बानगी उनकी कविता 'सूरज का घर' में देखी जा सकती है-'दो रोटी की व्यवस्था / मेरी माँ / अपने पास ही कर सकने में समर्थ होती / मैं वहीं होता माँ के पास / जहाँ सूरज का घर/दस कदम पर जान पड़ता है/नदी की बेचैनी अपनत्व से भर देती है'। ये महानगरीय टीस केवल कवि की अकेले की नहीं है। ये टीस हम जैसे न जाने कितने लोगों की है,जो अपनी माँ से दूर,इस महानगर की चकाचौंध में अपने गमों को दबाए हुए मशीन हो गए हैं।

कवि दिविक रमेश की कविताओं में माँ अनेक रूपों में आती है। माँ की विड़म्बना को उनकी कविता 'माँ के पंख नहीं होते' में देख सकते हैं- 'माँ के पंख नहीं होते / कुतर देते हैं / उन्हें होते ही पैदा / खुद ही उसके बच्चे।' हर माँ की अपनी चाहतें होती हैं। पूरी होने पर सबके सामने हँस लेती है और न पूरी होने पर अकेले में रो लेती है। इनकी कविता' तू तो है न मेरे पास' में इसी चाहत का बयान है- 'चाह जरूर थी माँ के पास /जैसे होती है जीने के लिए जीती हुई / किसी भी औरत के पास।' कवि सुभाष राय को उनकी माँ के स्पर्श ने तत्क्षण बदल दिया है। माँ के स्पर्श से वह स्त्री हो जाते हैं और उनके अंदर बहने लगती है माँ। 'मेरा परिवार' कविता के माध्यम से वह अपनी माँ को याद करते हैं- 'माँ के नाम पर/मैंने लगाये हैं ढेरों गुलाब/उनकी पंखुड़ियों पर ठहरी बूंदें देखकर बहुत याद आती है माँ।' एक संजीदा कविमन ही सभी स्त्रियों में माँ को देख सकता है।इनकी कविता 'पितरपक्ष और माँ' में ये कविमन प्रखरता से आता है-'सब मांएं एक जैसी लगती हैं मुझे / प्रेम और करुणा से भरी हुई/जीवन के युद्ध के लिए / बच्चों को पल-पल रचती हुई।' कवि राकेशरेणु की कविताओं में स्त्रियों के विविध रूपों को देखा जा सकता है।उनमें से एक रूप माँ का भी है।इनकी कविताओं में एक तरफ माँ का अकेलापन है,तो दूसरी तरफ माँ के चले जाने का दु:ख भी भी। 'अब जबकि तुम चली गई हो माँ 'कविता माँ के चले जाने के बाद के दर्द को बयां करती है।

जिनके सर से माँ का साया उठ गया है,वे ही इस दर्द को समझ सकते हैं-' जाड़े के उन्हीं दिनों में/ कौन रखेगा छुपा कर / खेसारी की साग मेरे लिए/ कौन बांधे रख पाएगा परिवार को / कौन बताएगा कि नहीं खाना चाहिए / अमौरियाँ / सतुआनी से पहले किसी भी हाल में? / कौन बताएगा यह सब / जब जबकि तुम चली गई हो माँ?' भरे पूरे परिवार में माँ अकेलपन का किस तरह शिकार हो जाती है। इसकी समूची व्यथा इस कविता में देखी जा सकती है। कवि स्वप्निल श्रीवास्तव के यहाँ माँ करघा के रूम में आती है।जो हम बच्चों को बुनती है।माँ के चले जाने का दु:ख सभी को होता,क्योंकि माँ ही हमें हर मुश्किल घड़ी में बचाती है।इसी दु:ख को स्वप्निल श्रीवास्तव अपनी कविता 'माँ' के माध्यम से व्यक्त करते हैं-'तूफान में हिलते थे घोसले / माँ उसे दिल से थामे रहती थी / अब घोसले की जगह/ तिनके बचे हुए हैं/माँ उड़कर अनन्त में चली गयी है।'

कवि विनय विश्वास ने अपनी कविता 'एक माँ का पुत्र प्रेम' के माध्यम से माँ की उस दबी चीख़ को उभारने की कोशिश की है।जिसमें उसका लड़का उसे छोड़कर चला जाता है। अमेरिका से माँ को लेने उसका लड़का आता है। जाते समय माँ को एयरपोर्ट में छोड़कर चला जाता है- 'जा चुका अमेरिका जाने वाला/ कोई कह गया / माँ का कलेजा धक से रह गया / बेटे का मखमली रास्ता देखते-देखते माँ की नज़र पथरा गई / बेटा नहीं आया रात आ गई।' ये दर्द हर उस माँ का है,जिसके बेटे माँ को महारानी बनाकर विदेश ले चलने का लालच इसलिए देते हैं;ताकि वह उसके नाम के मकान को बेंचकर पैसा हड़प लें।अंत में जब वे अपने मंसूबों में सफल होते हैं तो उसे अकेले यहीं बेसहारा छोड़ जाते हैं।इनकी कविताओं में माँ बचपन के उस होश की तरह है,जिसे हम बड़े होकर भूल जाते हैं । इनकी कविता में ' माँ आज तू उदास है / पर तेरी उदासी देखने का समय किसके पास है / बूढ़ी हड्डियां लिए भले तू पिसती रहे चूल्हे चक्की में।मैं मस्त हूँ अपनी तरक्की में।' यहाँ ऐसी माँ हमारे सामने नज़र आती है,जो अपने बच्चों के लिए अपना समूचा जीवन रात बना लेती है।और बच्चे हैं कि अपनी तरक्की के पीछे इतने पागल हैं कि माँ की कोई फिकर उन्हें नहीं है।कवि मणिमोहन मेहता अपनी कविता 'कविता भी समझ आनी चाहिए' में कहते हैं- 'समझ में आना चाहिए कविता / जैसे माँ के चेहरे पर लिखी चिंता ,समझ में आती है।' कवि कुमार अनुपम को अपनी कविता' पराये शहर में माँ की याद' में माँ बहुत याद आ रही है।पराये शहर में जब कोई अपनापन न मिले तो सबसे ज्यादा माँ ही याद आती है-'नींद नहीं आ रही और याद आ रही है माँ /लौटता था /पानी से सींचकर भूख का खेत /तो पड़ते ही खाट पर आ जाती थी नींद/ पर जाने क्या बात कि नींद नहीं आ रही / और याद आ रही है माँ।' कवि को लगता है कि उसकी नींद माँ के उपवास की ऊष्म बेचैनी से लथपथ, माँ के पास ही चली गई है।जब हमारे पास माँ का साया होता है तो हम बेखटके आराम से सो पाते हैं। माँ चाहे जैसी और जिस रूप में हो,हमें अच्छी लगती है।उसे समाज यदि बुरा कहता भी है तो भी एक बेटे के लिए माँ सबसे अच्छी होती है।कवि टेकचंद अपनी कविता 'बीड़ी पीती माँ' में इसी बात को बेझिझक कहते हैं- 'मिस्सी मजदूरों के साथ बैठ/बीड़ी पीती/दम लेती/सबको बुरी लगती/पर मुझे सुहाती सुस्ताती मुस्काती,बीड़ी पीती माँ।'

दुनियाँ में माँ का रिश्ता ही सबसे अनोखा है। जो स्वार्थ के नींव पर नहीं टिका।माँ हमेशा दु:ख को सहती हुई अपने परिवार को मजबूत रखती है।परिवार के सामने एक ढाल बनकर खड़ी रहती है। मुन्नवर राणा की इन पंक्तियों से अपनी बात खत्म करूंगा कि-'घेर लेने को मुझे जब भी बलाएँ आ गईं/ढाल बन कर सामने माँ की दुवाएँ आ गईं।' पहलगाव में जिस तरह निर्दोष नागरिकों को उनके परिवार के सामने मारा गया,उससे आज देश में युद्ध का माहौल है। ऐसे युद्ध के दौर में शहीद हुए बेटों के माँ का कलेजा रोता नहीं है। क्योंकि 'लिपट के रोती नहीं है कभी शहीदों से / ये हौंसला भी हमारे वतन की माँओं में है'। यह लेख देश की सभी माँओं कोसमर्पित,उनके लिए मेरी तरफ से एक छोटी सी भेंट है।


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