उनका भावुक होने की कोशिश करना!!
सामान्यत: वे व्यवहारिक व्यक्तित्व के धनी है लेकिन मंच पर चढ़ते ही उन्हें भावुकता घेर लेती है

- भूपेन्द्र भारतीय
सामान्यत: वे व्यवहारिक व्यक्तित्व के धनी है लेकिन मंच पर चढ़ते ही उन्हें भावुकता घेर लेती है। श्रोता रूपी माया उन्हें भावुकता के भव सागर में धकेल देती हैं। ऐसे में वे चाहकर भी सहज नहीं हो पाते हैं। श्रोता दिखे नहीं कि वे भावुक होने की कोशिश में लग जाते है। उन्होंने बड़े बड़े मंच इस भावुकता के सहारे ही जीते हैं। एक बार फिर उन्हें ऐसे ही एक राष्ट्रीय पर्व के आयोजन में आमंत्रित किया गया। वे मंचासीन हुए। मंच उनका आभारी हुआ। उन्हें एक बार फिर भावुक होने का अवसर मिला। उन्होंने भी भावुक होने की पूरी कोशिश की लेकिन जनता उनकी भावुकता पर हँसने लगी। वे भावुक होकर फिर उदास हो गए। श्रोताओं के इस अजीब व्यवहार से उन्हें धक्का लगा। वे जमाने को दोष देने लगे। बुद्धिजीवीयों की तरह सबको मूर्ख समझकर मंच से उतर गए। आखिर में वे उस मंच से अपनी भावुकता की पुड़िया जेब में रखकर अपने क्षेत्र की ओर कूच कर गए।
वैसे यह सब उनके साथ पहली बार नहीं घटा था। यह तो उनकी फिल्ड में अक्सर होता रहता है। वे इस तरह की घटनाओं पर भी ज्यादा समय तक भावुक नहीं होते। वे आदतन व्यवहारिक व्यक्ति जो ठहरे। पर भावुक होने की कोशिश करना भी उनकी फिल्ड की जरूरत है। कुछ लोग व उनके वोट भावुकता के माध्यम से ही हासिल किये जा सकते हैं। पिछले दिनों की ही बात है वे अपने क्षेत्र में एक रैली को संबोधित कर रहे थे कि उन्हें अपनी ओजस्वी वाणी से अचानक भावुकता के सागर में उतरना पड़ा। उस मंच पर उनके दल के वरिष्ठ नेता जो बैठे थे। भावुक होने का यह क्रम आता जाता रहता है। बहुत बार तो वे अपने क्षेत्र की माताओं व बहनों को भावुकता की भाषा के माध्यम से ही संबोधित करते हैं। ओर वे माताएं व बहनें बहुत आसानी से उनकी बातें समझ जाती हैं व साथ ही खुद भी बड़ी भावुक हो जाती हैं।
वैसे वे भावुक होने की कोशिश ऐसे ही नहीं करते। यह व्यवहार आजकल व्यासपीठ से लेकर संसद तक के गलियारों में धड़ाके से चल रहा है और हर कोई अपनी बात इसके माध्यम से अच्छे से कह पा रहा है। पहले के समय में बच्चें ही बात बात में भावुक होते थे, लेकिन अब यह व्यवहार बच्चों से लेकर बुढ़ों तक में आसानी से देखा जा सकता है। इधर अब स्थिति यह हो गई है कि कोई मंच पर चढ़ा नहीं कि भावुक होने की कोशिश करने लगता है। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह स्थिति निर्मित होने लगी है, ऐसे में कोई पीछे क्यों रहे ?
कुछ दिन पहले की ही बात है उन्हें नगर की एक चर्चित संस्था ने सम्मानित किया। सम्मानित होना उन्हें बहुत प्रिय है। इसके लिए वे हार-फूल व श्रीफल साथ रखते हैं। वे सम्मानित होने पर अचानक से भावुक हो गए। संस्था के सदस्यों ने उन्हें भावुक होने पर संभाला। वे भावुक होने की कोशिश में अपना सुधबुध ही खो चुके थे। बहुत देर बाद उन्हें चेतना आई। फिर वे अपने आप को पृथ्वी पर ही पाते है। पर भावुक होने की इस कोशिश में उन्होंने अपने आप को कुछ पलों के लिए परालौकिक वातावरण में पाया। उनके लिए यह अद्भुत अनुभव था। जैसे किसी साहित्यकार या फिर किसी समाजसेवी को कोई पद्म पुरस्कार या ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला हो ! वे अक्सर ऐसे आयोजनों में भावुक होने की कोशिश में अपना सुधबुध खो बैठते है।
उनका भावुक होने की कोशिश करना इतना आसान व सरल कार्य भी नहीं है। यह कला लंबे अनुभव के बाद प्राप्त होती है। जनता का समर्थन चाहिए। श्रोता को भी भावुक होने की आदत हो। इसके लिए बुद्धिजीवी होना पड़ता है। अपने गले व आँखों को इसके लिए तैयार करना पड़ता है। भावुकता के लिए वाणी को साधना पड़ता है। सामने बैठे श्रोताओं का विश्वास जीतना पड़ता है। तब कहीं जाकर आप भावुक होने की कोशिश कर सकते हैं। वैसे वे भावुकता के माध्यम से ही अपनी रोटी सेंकते है और ना सिर्फ रोटी ही सेंकते है लेकिन उनकी गाड़ी ही भावुक होने की कोशिश में चलती रहती हैं..!


