मेला
एक शहर से दूसरे, दूसरे से तीसरे और फिर पुस्तकों के महा मेले में पहुंचे प्रकाशक

- डॉ श्यामबाबू शर्मा
एक शहर से दूसरे, दूसरे से तीसरे और फिर पुस्तकों के महा मेले में पहुंचे प्रकाशक। उत्साह से लबरेज। प्रकाशन जगत के बड़े खिलाड़ियों के साथ ही नवोदित छुटभैये प्रकाशकों की शिरकत से लग रहा था कि पुस्तकें पढ़ना भले ही कम हो रहा हो कम से कम किताबी रौनक तो हो रही है। बिन खाये डकारना मना है क्या!
प्रांगण में मंच सजा था। दिन भर की कई- कई बुकिंग और बैनर बदलाई से प्राचीर लहू लुहान थी। माइक आलोचना को संप्रेषित करते-करते इन्फेक्टेड हो रहा था। नामी गिरामी प्रकाशन की दूकान में बड़े लेखक महोदय साहित्यिक वाणी विलास कर रहे थे। '... पुस्तकें खरीदी ही नहीं जानी चाहिए वरन पढ़ी भी जानी चाहिए।' कुछ नवधा घेरे खड़े थे कुछ उनके स्वहस्त लेने को आतुर। कई कमेटियों ही नहीं वरन् देश की लगभग सभी समितियों में उनके विचार, मंत्रणा के बाद ही साहित्य समृद्ध होता।
शताधिक पुस्तकें, हजारों शोध लेख उनके नाम से बाजार में बिक रहे थे। अनमोल ज्ञान की अकूत संपदा के पुरोधा, आचार्य स्वामी दयाल। ईमानदारी से रहित मगर ईमानदारी को तरजीह देने वाले। यह उनके व्यक्तित्व के विपरीत उनकी विशेषता थी। इसी के चलते डॉ अच्युत को उनके निवास पर रात्रि भोज में सहभागिता का निमंत्रण मिला था। भव्य अध्ययन कक्ष। करीने से सजी देशी-विदेशी बेहतरीन... पुस्तकें।
डॉ अच्युत ने अनुमति मांगी और किताबें देखने लगे। कवर पेज खोलते ही पता चल जाता था कि ज्यादातर किताबें उन्हें उपहार में प्राप्त हुई थीं। कई किताबों के पन्ने अंदर जुड़े हुए थे। पन्ने खोलने की जहमत कौन उठाए! डॉ अच्युत कभी आचार्य स्वामी दयाल को देखते तो कभी पुस्तकों की ओर। कुछ समय पहले के कहे उनके शब्द .. 'पुस्तकें पढ़ी भी जानी चाहिए।' डाइनिंग टेबल पर लजीज व्यंजन। अच्युत का कौर अटका, तुलसी याद आये..गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा।।


