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वितृष्णा

मांपापा लौट आये हैं' -खाना खाते हुए मैंने सूचना दी

वितृष्णा
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- मालती जोशी

'मांपापा लौट आये हैं' -खाना खाते हुए मैंने सूचना दी.
'अच्छा' इनकी ठंडी प्रतिक्रिया थी.
'चाचा को भी साथ लेते आये हैं.'
'किसलिए?'

'अकेले छोड़ते नहीं बना होगा. तभी तो तेरही के बाद भी महीना भर तक रुक गये थे.'
मैं अगले दिन दोपहर को चली गयी. चाची की तेरहवीं पर देखा था. उस तुलना में चाचा बहुत थके से लगे. दोपहर को सारा काम निपटाकर गयी थी. पर बच्चों से पहले घर लौटना भी था इसलिए उस दिन ज़्यादा देर बैठ नहीं पायी. सोचा रविवार को इनके साथ जाऊंगी तब आराम से बातें होंगी.

रविवार की दोपहर संजू सीमा ही अचानक आ गये. मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ. जब भी ये लोग आते हैं, सीमा शिकायतों का पिटारा खोलकर बैठ-जाती है. सास-ससुर की सेवा करते करते वह कितना पस्त हो चुकी है यह जताना वह कभी नहीं भूलती.

और अब तो घर में एक और व्यक्ति का इजाफा हो गया है. बेचारी कितनों की सेवा करेगी! मैं मानसिक रूप से सब कुछ सुनने के लिए तैयार ही थी. उसने भी ज़रा-सा भी समय नहीं गंवाया और शुरू हो गयी. उसकी नौकरी, बच्चों की पढ़ाई, छोटा-सा घर, घर में तीन तीन बुज़ुर्ग- समस्याओं का अंत नहीं था.
पापा एक बार हमसे पूछ तो लेते, 'संजू ने पहली बार मुंह खोला.' वैसे बात उसकी ठीक ही थी.
'मैं चाचा को अपने पास ले आती हूं.' मैंने अपनी तरफ से समस्या का समाधान किया.
'नहीं दीदी! अभी उन्हें आये हफ्ता भी नहीं हुआ है. वे क्या सोचेंगे?'

'इससे तो बल्कि तुम एक काम करो' संजू ने गला स़ाफ करते हुए कहा- 'तुम मां-पापा को थोड़े दिन अपने पास बुला लो. उन्हें चेंज भी हो जायेगा और हम लोग चाचा को ठीक से रख पायेंगे. अभी तो उनकी ढंग से सोने की व्यवस्था भी नहीं हो पायी है. बेचारे ड्रॉईंग रूम में दीवान पर सोते हैं.'
संजू सीमा को विदा कर मैं जैसे ही घर में दाखिल हुई, ये बोले- तुम्हारे भाई भाभी बड़े शातिर हैं.
'मतलब?'

'जैसे ही सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी हाथ आयी मां-बाप को देश निकाला दे दिया.'
'कैसी बातें कर रहे हैं?'
'ठीक ही तो कह रहा हूं. मां-बाप को तो पूरा निचोड़ लिया है. अब उनके पास कुछ नहीं है तो रवाना कर दो. चाचा के पास माल-टाल है. उनके आगे-पीछे भी कोई नहीं है. अब उन्हें निचोड़ेंगे.

उनका इशारा मैं समझ गयी पर चुप लगा गयी. बेकार बहस बढ़ाने से क्या फायदा होता.
पापा का एक सपना था. रिटायरमेंट के बाद वे गांव लौट जाना चाहते थे. इसीलिए गांव के पुराने पुश्तैनी घर को ठीक-ठाक करने का उन्होंने प्लान बनाया. संजू को पता लगते ही वह दौड़ा-दौड़ा गया. बोला- पापा! यहां पैसा फेंकना बेकार है. अच्छा है हम लोग शहर में ही बड़ा-सा मकान ले लें. सब लोग साथ में रह लेंगे.
पापा ने हथियार डाल दिये. इतने सालों तक सरकारी क्वार्टरों में रहने के बाद फ्लैट में रहना उन्हें रास नहीं आ रहा था. पर उतने से पैसों में स्वतंत्र घर की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.

श्रीमान जी तब बहुत भुनभुनाए थे. उस छोटी-सी रकम में हिस्सा बंटाने का मन नहीं हुआ. आखिर संजू मेरे माता-पिता के लिए ही तो बड़ा घर ले रहा था.
पर मेरे इस अपराध को ये कभी क्षमा नहीं कर पाये हैं.

पापा को अपने घर आने के लिए राजी करना एक टेढ़ी खीर थी. वे तो प्रस्ताव सुनते ही भड़क गये थे- 'ये मेरा घर है. इसमें मेरा पैसा लगा है. मुझे यहां से कोई नहीं निकाल सकता. और मोनू को यहां मैं अपनी ाद्घ़जम्मेदारी पर लाया हूं.'

'तो उनकी सुख-सुविधा का ख्याल रखना भी तो आपकी जि़म्मेदारी है. उनके पास ढंग से सोने की जगह नहीं है. दीवान पर पड़े रहते हैं. अच्छा लगता है?ज् और आपको घर से कोई नहीं निकाल रहा. मैंने तो एक सजेशन दिया था. ज़रा सीमा का ख्याल कीजिए. बच्चों को देखना, तीन-तीन बुज़ुर्गों की सेवा करना और ऊपर से नौकरीज्'
'तो नौकरी ही तो करती है, और क्या करती है.' मां बोली- 'दोनों वक्त की रसोई मैं देखती हूं. सुबह नौकरी का बहाना है, शाम को बच्चों का होमवर्क है. बच्चों के टिफिन भरने से लेकर धोने तक का काम मैं करती हूं, समझीं.'
'तो चलो न, इसी बहाने तुम भी थोड़े दिन आराम कर लेना.'

पता नहीं कैसे क्या हुआ, पर एक दिन मां-पापा मेरे पास रहने आ गये. मैंने गेस्ट रूम उनके लिए सुसज्जित कर दिया. अपने बेडरूम वाला टीवी लाकर वहां लगा दिया. पापा की पसंद का अखबार चालू कर दिया. कुछ पत्रिकाएं कमरे में रखवा दीं.

अपनी शक्तिभर मैंने सब किया पर देखा कि दोनों एकदम बुझ से गये हैं. मां तो फिर भी थोड़ा हंस-बोल लेती थीं पर पापा एकदम चुप हो गये थे. कमरे से बाहर ही नहीं निकलते थे. संजू के यहां थे तो सुबह-शाम घूमने जाते थे. हम उम्र लोगों का वहां अच्छा ग्रुप बन गया था.
दिन का खाना मैं पापा और मां, साथ खाते थे. पर रात में ये भी टेबल पर होते थे. इनकी उपस्थिति में पापा बहुत असहज महसूस करते थे. उन्हें कम्फर्टेबल करने का उनके दामाद ने कभी प्रयास भी नहीं किया.

फिर मैंने इसका तोड़ निकाला. मैंने उन दोनों को बच्चों के साथ खिलाना शुरू किया. कहा कि रात में जल्दी खा लेना ठीक होता है. खाने और सोने में कम से कम दो घंटे का गैप होना चाहिए.

आठवें चौथे दिन चाचा आ जाते तो पापा के चेहरे पर थोड़ी मुस्कान आ जाती. दोनों भाई देर तक बतियाते रहते. फिर मां मुझसे फुसफुसाकर कहतीं- लाला को खाने के लिए रोक लेना. वहां पता नहीं क्या कैसा बनता होगा.'

चाचा नानुकर नहीं करते. हां, संजू के यहां फोन ज़रूर कर देते. अगर दिन में आते तो खाकर ही आते क्योंकि सीमा खाना सुबह ही बना कर जाती. फिर भी मेरे आग्रह पर एकाध रोटी खा लेते थे.

खाना खाते हुए उनका शिकायतों का पिटारा भी खुल जाता.
शिकायतें दूसरे पक्ष से भी कम नहीं होती थीं. 'दीदी!' चाचाजी दोपहर को आपके यहां गये थे क्या. कामवाली ताला देखकर लौट गयी. अब कपड़ों का और बर्तनों का ढेर पड़ा है मेरे लिए.'

सुनकर मुझे बहुत मज़ा आता. देवीजी को मां-पापा की अहमियत का अब पता चलेगा. मैं सोच रही थी, ब्रेकिंग पॉईंट बस आने ही वाला है. उससे पहले ही एक दिन चाचा सूटकेस सहित घर में दाखिल हुए. कहीं ये रहने तो नहीं आ गये.

पर चाचा ने मुझे ज़्यादा देर तक पसोपेश में नहीं रक्खा. मां-पापा के चरण छूकर बोले- 'कुछ दिनों के लिए घर जा रहा हूं.'
'एकदम कैसे?'

'लौटकर बताता हूं.' उन्होंने कहा
उनके इस आकस्मिक प्रस्थान से संजू-सीमा भी परेशान हो गये थे. सीमा तो बार-बार मुझसे उनका प्रोग्राम पूछती. जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे उसका धैर्य समाप्त होता जा रहा था. एक दिन बोली- 'दीदी, मैं सोचती हूं मम्मी-पापा को घर पे ले आऊं, कबतक चाचाजी की राह देखेंगे.'
'और इस बीच अगर चाचा आ गये तो.'
'तो उन्हें आप रख लेना.'

मैंने एक वाक्य महीनों से रट रक्खा था. वह फौरन उसे सुना दिया- 'सीमा! मेरे मां-बाप को तुमने क्या फुटबॉल समझ रक्खा है जो उन्हें जब चाहोगी, जिधर चाहोगी लुढ़का दोगी?'

यह बात उसके मुंह पर फेंककर मुझे इतना हलका महसूस हुआ. उसका मुंह ज़रूर सूज गया होगा- मेरी बला से.

एक दिन हमारी प्रतीक्षा का अंत हुआ. चाचा मिठाई का पैकेट लेकर पधारे. नाटकीय ढंग से उन्होंने हम दोनों के हाथ में मिठाई का डिब्बा पकड़ाया और हाथ जोड़कर कहा- 'आपके शहर में एक छोटा-सा आशियाना ले लिया है. रविवार को छोटी-सी पूजा रख ली है ताकि गृह-प्रवेश की रस्म भी हो जाये.

हम लोगों को आश्चर्य तो हुआ पर हमने बधाई देने में कोई कंजूसी नहीं की. चाय पीते हुए चाचा ने कहा- 'भाभी और भाईसाहब को साथ लेकर जाता हूं. सब कुछ इन्हीं को करना है. मुझे तो कुछ आता-जाता नहीं है.'

और मैंने देखा- भाईसाहब और भाभी अपनी अपनी सूटकेस लेकर एकदम तैयार खड़े थे. शायद उन्हें पहले से सूचना मिल गयी होगी.
मां-पापा के जाते ही घर एकदम सूना हो गया.

शहर के बाहर सिमेंट का जंगल उग आया था. उन्हीं कॉलोनियों में से एक में चाचा का नया फ्लैट था.
चाचा अपने साथ पुराने सेवक को ले आये थे और गृहस्थी का सामान भी. मां ने लखन के साथ मिलकर दो दिन में घर ठीक से जमा दिया था. मां ने अपना वाला कमरा तो ऐसे जमा लिया था जैसे हमेशा यहीं रहना है.

पूजा अच्छे से सम्पन्न हो गयी. खाने के बाद हम सब हॉल में बैठकर गपशप कर रहे थे कि एकाएक सीमा ने पूछा- 'मम्मीजी, ये सब समेटने में आपको एकाध दिन तो लग ही जायेगा न. मैं आप लोगों को लेने परसों आ जाऊं! या चाचाजी छोड़ देंगे?'

'ये लोग अब कहीं नहीं जायेंगे' चाचा ने निर्णायक स्वर में कहा- 'हम तीनों बूढ़े प्राणी यही रहेंगे. और ये चौथा बूढ़ा लखन लाल हमारी सेवा करेगा.'
क्षणभर को हॉल में चुप्पी छा गयी. यह प्रस्ताव हम सबके लिए एकदम अप्रत्याशित था. बड़ी देर बाद संजू की आवाज़ निकली- चाचा. ये अचानक.
'अचानक नहीं बेटे. बहुत दिनों से प्लानिंग कर रहा था. भाईसाहब की इच्छा थी कि मैं अब उन लोगों के साथ रहूं. मुझे भी यह प्रस्ताव अच्छा लगा था. इसीलिए मैं उनके साथ चला आया. पर यहां आकर देखा कि किसी भी घर में हम तीनों एक साथ नहीं रह सकते. इसलिए ये अलग आशियाना बना लिया.'

सीमा एकदम बोल उठी- 'इससे तो अच्छा था चाचाजी आप हमें एक बड़ा-सा घर दिलवा देते. फिर सब लोग आराम से साथ रह लेते.'

'नहीं बेटा. इतने दिनों में मैं एक बात अच्छी तरह जान गया हूं कि मैं हर कहीं एडजस्ट नहीं हो सकता. अब इस उम्र में अपने आपको बदलना नामुमकिन है. इसलिए मैं यहीं ठीक हूं. और तुम इसे भी अपना ही घर समझो. समझ लो कि उस घर का एक्सटेन्शन है ये.

हम लोग तो खाली हाथ ही पहुंच गये थे. पर चाचा ने सबको नेग दिया, मिठाई दी. बच्चे तो एकदम खुश हो गये थे पर संजू सीमा एकदम गुमसुम हो गये. इसी मनस्थिति में हम लोगों ने एक दूसरे से बिदा ली और अपने अपने घरों की ओर मुड़ गये.

मां-पापा के लिए खुशी भी हो रही थी पर एक अपराध बोध भी मन में जाग रहा था. हम उन लोगों को अपने साथ क्यों नहीं रख सके?
एकाएक इन्होंने कहा- 'तुम्हारी भाभी रानी तो आज एकदम क्लीन बोल्ड हो गयी.'
'मतलब?'

'अपने व्यवहार पर पछता रही होंगी. अच्छा खासा घर हाथ से निकल गया.'
'उस घर से सीमा का क्या ताल्लुक है.'

'ताल्लुक है मॅडम. अब सोचो, चाचाजी ये घर अपने साथ तो नहीं लेकर जायेंगे न. किसी न किसी को नामज़द करेंगे ही. और पहला हक संजू लोगों का ही बनता है. पर सीमारानी ने चान्स गंवा दिया. काश! चाचाजी से थोड़ा ढंग से पेश आयी होती.'

'बस भी कीजिए' मैंने खीझकर कहा- 'आज ही बेचारों ने गृह प्रवेश की पूजा करवायी है और आप उनके जाने की तारीख निकाल रहे हैं.'
'मैं तारीख निकालने वाला कौन होता हूं. वह तो हरेक व्यक्ति के जन्म के साथ ही तय हो जाती है. मैं तो बस यह कह रहा हूं कि भाभी रानी आऊट हो गयी हैं तो आप बल्ला संभाल लो. ठीक से बेटिंग करेंगी तो मैच जीत ही जायेंगी.'

-देखिए. मैंने सख्त लहजे में कहा- 'मुझे इस तरह के गेम्स में कोई दिलचस्पी नहीं है. भगवान का दिया मेरे पास सब कुछ है. एक अच्छा खासा घर भी है.'
-घर तो है डार्लिंग पर एक ही है. जबकि बच्चे दो हैं. 'बी प्रेक्टीकल मैडम.'

मैं हैरत से उन्हें देखती रह गयी. अभी कुछ देर पहले जब सीमा ने कहा था कि चाचाजी ने एक बड़ा-सा घर हमें ही दिलवा दिया होता तो सब लोग साथ ही रह लेते. 'सुनकर मैं तो शर्म से गड़ गयी थी. ऐसा मंगतापन! छीज्'और ये महारानी साथ में रहेंगी? उसकी शिकायतों का पिटारा कभी खत्म ही नहीं होता। जिसके खिल़ाफ इतनी शिकायतें हैं उन्हीं से बड़े से मकान की फरमाइश हो रही है.
बेशर्मी की भी कोई हद होती है.

और मेरी बगल में बैठा यह आदमी! इसने तो सीमा को भी मात कर दिया है. पहली फुरसत में इसने चाचा की वसीयत लिख डाली है.
चाचा! गिद्धों की यह कैसी जमात तुम्हारे आसपास इकठ्ठा हो गयी है?.


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