बांगा जी खेलो कीचड़ होली...
होली को लेकर बांगा जी के अनुभव हमेशा से ही कड़वे रहे हैं। बात उन दिनों की है जब वे चौथे दर्जे में पढ़ते थे

- मुकेश राठौर
होली को लेकर बांगा जी के अनुभव हमेशा से ही कड़वे रहे हैं। बात उन दिनों की है जब वे चौथे दर्जे में पढ़ते थे। दोस्तों के साथ गोबर की होली खेलकर गांव नाले पर नहाने गए तो कोई कपड़े चुरा ले गया। मजबूरन मित्रमंडली के सुरक्षा घेरे में नंग-धड़ंग छुपते-छुपाते घर लौटे। जैसे कोई बड़े नेता चले आ रहे हो। वैसे बचपन में नंगेपन पर इतना लजाने की कतई जरूरत नहीं थी लेकिन वो अलग दौर था जब बड़े क्या बच्चे भी नंगाई से डरते थे। सो ऐसे लजाये कि न महीने भर स्कूल गए और न ही अगले चार साल होली खेली।
किशोरावस्था में कदम रखा तो होली खेलने का मन होने लगा हिम्मत कर अपने से आठ बरस बड़ी एक दीदी को रंग लगा आए,जो पहले से होली के बहिष्कार का मन बनाकर बैठी थी । फिर क्या था दीदी,उनके पिताजी और इनके पिताजी ने पंचायती रूप से बांगा को होली की इतनी शुभकामनाएं दी कि बिन रंगाए गाल लाल हो गए । यह वह अवसर था जिसने बांगा के मन में होली को लेकर भयंकर कड़वे अनुभव भर दिए । इतने कि कभी भी करेले हो सकते थे ।
किशोर से युवा हो रहे बांगा इससे पहले कि वे प्यार की पिच पर जमकर चौके,छक्के उड़ाए,पिताजी ने रिश्ता पक्का कर बांगा के हाथ से कबूतर उड़ा दिए ।बीवी का नाम तो था प्रेमलता लेकिन प्रेम के ढाई अक्षर क्या सवा अक्षर तक नहीं पढ़ पाई थी बेचारी । बांगा ने बताया कि अपन भी तुम्हारे जैसे ही है । ब्याह बाद पहली होली पर बांगा जी ने दोस्तों को घर नाश्ते पर बुलाया ।
प्रेम भाभी ने बड़े प्रेम से पालक वाले भजिए का बेसन घोल कर 'चौखली' वाला चूल्हा जलाया ही था कि बांगा जी की मित्र मंडली आ धमकी। सीधे धावा बोला। नीला, पीला, लाल, गुलाबी। बांगा जी पर रंग डालने गए और छीना झपटी में बाल्टी का मुंह चूल्हे की तर$फ हो गया। माने रूसी मिसाइल यूक्रेन की जगह पोलैंड पर। बस क्या था चूल्हा तो बुझ गया मगर भाभी के सीने में आग लग गई। भाभी ने भजिए का बेसन जन्मदिन के केक की तरह देवरों के मुंह पर चुपड़ डाला। एक बार फिर बांगा जी ने होली और यारों से तौबा ही कर ली । जब भी होली आती भूमिगत हो जाते। समय बीता । वे दो बेटों के पिता बने। बेटों के ब्याह हुए। फिर वही होने लगा,जो घरों में होता है। एक दिन सास-बहू का गृहयुद्धअपने उच्चतम शिखर को छू गया। बांगा जी के द्वारा मध्यस्थता न करने से दुखी उनकी बीवी झोला भरकर मायके चल दी। झगड़ों में अब दर्शक होना भी आसान नहीं रहा या तो आप भी लड़ो या बीच बचाव करो। महीने साल बने मगर वह न आई। अपने ससुर को अंतिम विदाई देने भी नहीं। कुछ दिन बाद बेटे-बहू अलग हो गए। बीड़ी फूंकने के समय में चूल्हा फूंकने की नौबत आई। जब-जब चूल्हे पास जाते उन्हें बीवी की याद आती 'मेरा चूल्हा पड़ा रे सुनसान तुझे मेरे गीत बुलाते हैं' मगर अब क्या हो सकता था।
पिताजी के बाद की पहली होली आ गई। दुख का रंग डालने वाले रिश्तेदारों में पाया उसकी बीवी भी आ गई। वो भी हमेशा के लिए। बांगा जी के बेरंग जीवन में जैसे हजारों टेसू के फूल खिल गए और लाखों महुआ फूल खिलकर बिखर गए,जैसे प्रेमलता ने झाड़ पर चढ़कर झड़झड़ा दिए हो । होली आई तो यारों को भी आना ही था । वे बांगा जी के चेहरे की चमक देख एक बार फिर उनसे होली खेलने की जिद करने लगे । खुशी का मौका था,बांगा जी तैयार हो गए । लेकिन चेताया कि कीचड़ होली नहीं, हां।होलियारों ने कहा तो फिर हमारी भी एक शर्त है होली की गेर में आप गधे पर बैठ जाए। बांगा जी तैयार हो गए ।विचारा खुद पर कीचड़ उछलवाने से गधे पर बैठना अच्छा। उन्हें जूतों की माला पहनाकर गधे पर बैठाया गया। देखा तो प्रेम भाभी की भी हंसी निकल गई। अब तो बांगा जी जिंदगी भर गधे पर बैठे रहना चाहते थे। गांव की गलियों से होते गेर अमराई की तरफ बढ़ रही थी, जहां दाल-बाटी की आयोजना थी। तभी किसी ने पटाखे की लड़ी गधे के पैरों बीच फेंक दी। गधा ढेंचू,ढेंचू करते भागा और सीधे हौज के पास भरे डबरे में लोट लगाने लगा,बांगा जी भी...। होलियारे बुक्काफाड़ हंसते रहे । बांगा जी खेलो कीचड़ होली।


