कालाहांडी के स्याह पक्ष का जीवंत दस्तावेज़
एक लंबे समय से हमारे देश में 'कालाहांडी' भूख, कुपोषण, सूखे और पिछड़ेपन का पर्याय बना हुआ है

- श्री अमरेंद्र किशोर
एक लंबे समय से हमारे देश में 'कालाहांडी' भूख, कुपोषण, सूखे और पिछड़ेपन का पर्याय बना हुआ है। श्री अमरेंद्र किशोर की पुस्तक 'मजदूरों की मंडी कालाहांडी' इन्हीं स्याह पक्षों का सांगोपांग विवेचना करती है। हालाँकि, कालाहांडी कभी प्राकृतिक संसाधनों यथा, जल, जमीन और जंगल से समृद्ध था, लेकिन लूटमारी और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन ने इसकी तस्वीर को रंगीन से श्याम-श्वेत बना दिया और आदिवासियों के जीवन को भी बेरंग कर दिया।
आज कालाहांडी के आदिवासी पानी और दो वक्त के भोजन के लिए तरस रहे हैं। निश्चित जीवकोपार्जन के अभाव में वे मजदूर बन गये हैं। सौदागरों ने उन्हें देसी शराब और तंबाकू की लत लगा दी है। प्रशासन, राजनीतिज्ञों और नशे के कारोबारियों ने आदिवासियों को इंसान से कीड़ा-मकौड़ा बना दिया है। कुछ रुपयों के लिए बच्चे, बेटियाँ और ननदें बेची जा रही हैं। रसुखदारों के यौन पिपासाओं के कारण कालाहांडी में अनब्याही माँओं की संख्या में इजाफा हो रहा है।
समाज के पारिस्थितिक तंत्र में आस्था और धर्म की अहम भूमिका होती है। ये इंसान के जीवन को सरस व सहज बनाते हैं, लेकिन धर्म के ठेकेदारों ने कालाहांडी के आदिवासियों से उनके देवी-देवताओं को छीन लिया और उन्हें उनकी आस्था, धर्म, पूजा के अधिकार आदि से महरूम कर दिया. आज मन की अशांति और जठराग्नि ने उनके जीवन को विद्रूप बना दिया है।
कालाहांडी में विकास करने के सरकार के कई दावे हैं, जिनमें गाँव को निकतम शहर से जोड़ना, मुफ्त में चावल वितरण, आर्थिक सहायता देना, बिजली की उपलब्धता, स्कूल, प्राथमिक अस्तपताल की सुनिश्चितता आदि हैं, लेकिन लेखक पुस्तक में इन दावों की पोल खोलता नज़र आता है।
संक्षेप में यह पुस्तक आदिवासियों के शोषण, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, प्राशासनिक कुव्यवस्था, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक विसंगतियां और कागज़ पर विकास करने की कहानी है। साथ ही, यह देश के दूसरे प्रदेशों में रह रहे आदिवासियों की भी कहानी कहती नज़र आती है। पुस्तक की सामग्री व भाषा-शैली के सरस, सहज और रोचक होने के कारण यह पाठकों को एक बैठक में पढ़ने के लिए प्रेरित करेगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
पुस्तक मजदूरों की मंडी कालाहांडी


