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'चिंकी, चाईनीज, मोमो' नहीं, हम भारतीय हैं

देहरादून में त्रिपुरा के एक युवक को कथित तौर पर नस्लवादी अपशब्द कहे गए और इतना पीटा गया कि कई दिन अस्पताल में रहने के बाद भी उसकी जान चली गई. इस घटना के बाद भारत में नस्लभेद निषेध (एंटी‑रेसिज्म) कानून की मांग उठी है

चिंकी, चाईनीज, मोमो नहीं, हम भारतीय हैं
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देहरादून में त्रिपुरा के एक युवक को कथित तौर पर नस्लवादी अपशब्द कहे गए और इतना पीटा गया कि कई दिन अस्पताल में रहने के बाद भी उसकी जान चली गई. इस घटना के बाद भारत में नस्लभेद निषेध (एंटी‑रेसिज्म) कानून की मांग उठी है.

मैथ्यू (बदला हुआ नाम) दिल्ली के विजय नगर में अपने दोस्त के साथ नार्थ ईस्ट के लोकप्रिय खानपान को परोसने वाली दुकान चलाते हैं. साल 2022 में मैथ्यू ने अपनी पहली नौकरी के लिए चेन्नई का रुख किया. यह शहर उनके लिए पूरी तरह नया था. लेकिन केवल तीन दिन में ही उन्हें बेंगलुरु भागना पड़ा.

डीडब्ल्यू से बातचीत में मैथ्यू ने बताया, "चेन्नई में मुझे एक शोरूम में सेल्समेन की नौकरी मिली थी. तीसरे ही दिन मेरे मकान मालिक अचानक घर में घुस आए और मुझे तुरंत घर खाली करने को कहा. मैं उनकी भाषा नहीं समझ पा रहा था. वे चिल्ला रहे थे. मुझे अपने सामान को पैक करने का भी वक्त नहीं दिया. मैं तीन घंटे तक चेन्नई की सड़कों पर अकेला रोते हुए घूमता रहा. मेरी मां बार‑बार कॉल कर रही थीं, लेकिन मैं उन्हें कुछ नहीं बता सकता था. अगली सुबह मैं बैंगलोर चला गया, लेकिन वहां भी मुझे नौकरी नहीं मिली. लोग मुझे देखकर ही दूर कर देते थे."

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हाल ही में त्रिपुरा के छात्र एंजेल चकमा की हत्या ने भारत में नस्लवाद की गंभीरता को फिर से उजागर किया है. एंजेल त्रिपुरा से देहरादून एमबीए की पढ़ाई करने आए थे. परिवार का आरोप है कि कुछ लोगों ने नस्लवादी टिप्पणियां और अपशब्द कहने के बाद एंजेल पर चाकू से हमला किया. इस हमले में उन्हें गंभीर चोटें आईं और कई दिनों तक अस्पताल में इलाज के बावजूद उनकी मृत्यु हो गई. एंजेल के पिता तरुण कुमार चकमा बीएसएफ जवान हैं. उनका आरोप है कि एफआईआर दर्ज कराने में पुलिस ने शुरुआत में इनकार किया और कहा गया कि यह मामूली मामला है.

अब पुलिस ने इस मामले में नस्लवाद के आरोप को खारिज कर दिया है. वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी देहरादून) अजय सिंह ने बताया है कि प्रारंभिक जांच में नस्लीय टिप्पणियों का कोई प्रमाण सामने नहीं आया है. जांच अभी जारी है.

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भारत के अलग-अलग राज्यों में रहने वाले उत्तरपूर्वी नागरिकों को आज भी नस्लवाद की वजह से भेदभाव का सामना करना पड़ता है. उन्हें अक्सर अपमानजनक नामों से बुलाया जाता है. उनका मजाक उड़ाया जाता है.

मैथ्यू बताते हैं कि उन्हें अक्सर ‘चिंकी' और ‘चाईनीज' जैसे संबोधन सुनने पड़ते हैं. कई बार सड़क और सार्वजनिक स्थानों पर अपमान और उत्पीड़न सहना पड़ता है. मैथ्यू को महसूस होता है कि बाकी भारत अपने पूर्वोत्तर के लोगों को पूरी तरह अपना नहीं पाता.

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वह बताते हैं, "पिछले ही महीने मैं मेट्रो से सफर कर रहा था. एक छोटा बच्चा मुझे घूरकर देख रहा था. उसने अपनी मां से पूछा यह कौन है. तो मां जवाब देती हैं कि ये चाईनीज है भारत घूमने आया है. यह सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा. लेकिन मैं किसी से बहस नहीं करता. एंजेल चकमा के साथ जो हुआ, वो डर हम सबमें रहता है."

वह आगे कहते हैं कि स्कूल की किताबों में पूर्वोत्तर के राज्यों के इतिहास, संस्कृति और योगदान को पर्याप्त रूप से शामिल नहीं किया जाता. मैथ्यू बताते हैं, "हम स्कूल में भूगोल की किताबों में उत्तर भारत, कश्मीर, बंगाल, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत तक सभी राज्यों के बारे में पढ़ते हैं. लेकिन पूर्वोत्तर के राज्यों के बारे में सिर्फ उनके नाम ही बताए जाते हैं और इसके अलावा कुछ नहीं पढ़ाया जाता."

मोहन (बदला हुआ नाम) अरुणाचल प्रदेश से काम की तलाश में दिल्ली आए थे. पिछले दस साल से वह कमला नगर में मोमो की एक छोटी-सी दुकान चला रहे हैं. इससे पहले वह कतर में भी नौकरी कर चुके हैं. मोहन ने बताया कि भारत में उन्हें किसी अन्य देश की तुलना में अधिक नस्लवाद का सामना करना पड़ा.

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मोहन डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं, "लोग मुझे देखकर कभी मोमो, कभी चिंकी कह देते हैं. उन्हें लगता है कि मैं भारत का नहीं, बल्कि नेपाल से आया हूं. कई बार ग्राहक मोमो खा लेते हैं और पैसे नहीं देते. एक दिन कुछ लड़कों ने मुझे पीटा और सभी पैसे लेकर भाग गए. मैं बस ऐसे लोगों को नजरअंदाज ही कर सकता हूं."

लड़कियों के साथ छेड़छाड़ और उत्पीड़न

दूसरे राज्यों में नौकरी और पढ़ाई करने गई नॉर्थईस्ट की लड़कियों को कई तरह के पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है. डीडब्ल्यू ने ऐसी कई लड़कियों से बात की. उन्होंने बताया कि अक्सर उनके चहरे और रंग की वजह से उन्हें 'चिंकी' और 'स्पा वाली' बोलकर परेशान किया जाता है.

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विजय नगर की एक कॉफी शॉप में हमें करीना (बदला हुआ नाम) मिली. उनका घर मणिपुर की राजधानी इंफाल में है और वह दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रही हैं. करीना बताती हैं कि उनके अलग दिखने और पहनने ओढ़ने का अलग स्टाइल होने के कारण सड़क पर लड़के उन्हें छेड़ते हैं.

करीना ने डीडब्ल्यू से अपना अनुभव साझा करते हुए कहा, "कुछ महीने पहले मैं और मेरी दोस्त कॉलेज फेस्ट देखने रामजस कॉलेज गई थीं. हम स्टॉल से सामान खरीद रही थीं, तभी कुछ लड़के मेरा पीछा करने लगे. उनमें से एक लड़के ने मुझे देखकर कहा, आओ मोमो खाने चलते हैं. जब मैंने आपत्ति जताई, तो उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं किस देश से आई हूं. यह सुनकर मैं शॉक में थी. यहीं नहीं, जब मैं हिंदी में बात करती हूं, तो लोग ऐसे देखते हैं जैसे यह कोई अजूबा हो."

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स्पेशन पुलिस यूनिट की और जरूरत

दिल्ली में स्पूनर (स्पेशल पुलिस यूनिट फॉर नार्थ ईस्टर्न रीजन) उपस्थित है. यह दिल्ली पुलिस का एक विशेष सेल है, जो भारत के पूर्वोत्तर से आए लोगों की सुरक्षा, सहायता और समस्याओं के लिए बनाया गया है. करीना बताती हैं कि स्पूनर का कार्यालय मोती बाग (दक्षिण दिल्ली) में है. यह उनकी जगह से बहुत दूर है.

वह कहती हैं, "पहली बात तो स्पूनर के बारे में बहुत ही कम लोगों को जानकारी है. फिर पुलिस हमारी शिकायत लिखने में रूचि नहीं लेती. अधिकतर छात्र विजय नगर, लाजपत नगर, मुनीरका और विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन के आसपास रहते हैं. जब हम छुट्टी के लिए घर जाते हैं, पीछे से हमारा सामान चोरी हो जाता है. जहां भी उत्तरपूर्वी लोगों की संख्या ज्यादा है, वहां स्पूनर की शाखा होनी चाहिए."

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हर्षिता बैरागी असम के गुवाहाटी की निवासी हैं. वह बताती हैं कि दिल्ली में मकान ढूंढने में भी कठिनाइयां आती हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में पूर्वोत्तर के छात्रों के लिए कुछ पीजी और हॉस्टल हैं, लेकिन इनमें केवल छात्र ही रह सकते हैं. हर्षिता बताती हैं, "हम खाने में नगरी और एरोंबा पकाते हैं, जिससे घर में महक फैलती है. मकान मालिकों को इससे आपत्ति होती है. इसलिए हमें ऐसा घर ढूंढना पड़ता है जहां हम अपनी मर्जी और संस्कृति के अनुसार खाना बना सकें. इस वजह से हमारे लिए घर के ऑप्शन कम हो जाते हैं."

पूर्वोत्तर भारत के लोग नागरी और एरोंबा जैसे पारंपरिक व्यंजन बनाते हैं. ये व्यंजन फर्मेंटेड मछली से तैयार किए जाते हैं, इसलिए पकाते समय इनमें तेज गंध आती है. इसी कारण मकान मालिकों के साथ अक्सर समस्याएं पैदा हो जाती है.

क्या एंटी‑रेसिज्म कानून समाधान है?

त्रिपुरा में एंजेल चाकमा की हत्या के बाद कई उत्तरपूर्वी संगठन एंटी‑रेसिज्म कानून की मांग कर रहे हैं. साल 2014 में दिल्ली के लाजपत नगर में अरुणाचल प्रदेश के छात्र निदो तानिया पर नस्लभेदी टिप्पणी करने के बाद उसे बेरहमी से पीटा गया. जिसके बाद निदो की मौत हो गई. पिछले साल मेघालय की छात्रा डाना संगमा ने गुरुग्राम की एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में कथित भेदभाव और अपमान का सामना करने के बाद आत्महत्या कर ली. इस समुदाय के लोगों का कहना है कि इतने सालों में कुछ नहीं बदला है. तथ्यों की बात करें तो ऐसी नस्लभेद‑आधारित हिंसा और हत्याओं का कोई आधिकारिक डाटा भी अलग से उपलब्ध नहीं है.

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नॉर्थ ईस्ट सपोर्ट सेंटर एंड हेल्पलाइन (एनइएससीएच) की संस्थापक और कार्यकारी निदेशक डॉ. अलाना गोलमे भारत में पूर्वोत्तर के लोगों के खिलाफ नस्लवादी भेदभाव, उत्पीड़न और दुर्व्यवहार को रोकने के लिए काम कर रही हैं. डॉ. गोलमे का कहना है, "कोविड लॉकडाउन में उत्तरपूर्वी लोगों के साथ हिंसा हुई. लेकिन शिकायत करने के लिए कोई स्पष्ट कानून नहीं है. लोग कहते हैं हम ‘पूरे भारतीय' नहीं है. हमारा चेहरा अलग है. लेकिन क्या सिर्फ साड़ी या कुर्ता पहनने से ही हम भारतीय बन जाते हैं? जब हमारी समस्याओं की बात होती है, तो कोई व्यापक आंदोलन नहीं होता. हमारे पास पर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं है, जो हमारे मुद्दों को राष्ट्रीय मंच पर उठाए. अगर नस्लभेद निषेध (एंटी‑रेसिज्म) कानून बन जाता है, तो कम से कम हमारे मामले दर्ज होंगे और उनकी गिनती होगी."

डीडब्ल्यू से बातचीत में डॉ. गोलमे ने कहा कि देश यह स्वीकार नहीं करना चाहता कि भारत में नस्लवाद मौजूद है. अक्सर पुलिस ऐसे मामलों को इकलौता मामला बताकर नस्लीय भेदभाव के एंगल को ही नकार देती है, जैसा एंजेल चकमा के मामले में देखने को मिल रहा है.


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