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पांच राज्यों के चुनावों की समीक्षा

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव की कथा तो समाप्त हो गई है अब बारी है उसकी समीक्षा की, जिसे पांच भाग या अध्याय में बांटा जा सकता है

पांच राज्यों के चुनावों की समीक्षा
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पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव की कथा तो समाप्त हो गई है अब बारी है उसकी समीक्षा की, जिसे पांच भाग या अध्याय में बांटा जा सकता है-
पहला...उत्तरप्रदेश में पहली बार इतना लंबा यानी 7 चरणों में मतदान.दूसरा- देश के प्रधानमंत्री का किसी विधानसभा चुनाव के लिए इतना ज्यादा समय प्रचार में देना...तीसरा- नतीजों के बाद ईवीएम को लेकर उठे सवाल.चौथा-गोवा और मणिपुर में दूसरे नंबर की पार्टी द्वारा सरकार गठनऔर पांचवा- उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री पद पर एक ऐसे व्यक्ति को बिठाना, जो किसी धार्मिक मठ का भी प्रमुख हो।----
पांच में से तीन अध्याय उत्तरप्रदेश को समर्पित हैं। ज़ाहिर है बड़ा प्रदेश है, यहां की राजनीति बड़ी है, तो चर्चा भी बड़ी ही होगी। बात शुरु करते हैं, पहले अध्याय से, यानी उत्तरप्रदेश में सात चरणों में हुए चुनाव से।
आबादी के मामले में यूपी देश का सबसे बड़ा राज्य है और यहां विधानसभा की कुल 403 सीटें हैं, यही नहीं अकेले यूपी से राज्यसभा के कुल 30 सदस्य चुनकर आते हैं, इस लिहाज़ से भी यूपी का चुनाव देश की राजनीति में काफी अहमियत रखता है। यही कारण है कि इस बार सभी दलों ने अपनी सारी ताकत चुनाव जीतने में लगा दी, हालांकि बाज़ी हाथ लगी भाजपा के। निर्वाचन आयोग ने इस बार उत्तरप्रदेश में सात चरणों में मतदान करवाया, जिस वजह से चुनाव काफी लंबे खिंचे और उतने ही ज्यादा विवाद भी हुए।....

क्या ईवीएम के जरिए भी धांधली की जा सकती है? जो सवाल मायावती और अरविंद केजरीवाल ने उठाए हैं, क्या वे महज़ हार की खीझ है, या उनमें दम भी है?

बहुमत हासिल हुआ, यह मोदी लहर का कमाल बताया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आक्रामक प्रचार से विरोधियों को चारों खाने चित्त कर दिया। इसे अगर भाजपा की जीत की जगह प्रधानमंत्री की जीत कहा जाए, तो शायद गलत नहीं होगा, क्योंकि इससे पहले किसी चुनाव में देश के प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के लिए इस तरह का प्रचार नहीं किया था। प्रधानमंत्री अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में लगातार तीन दिनों तक जमे रहे और एक के बाद एक रोड शो किए, यह भी अभूतपूर्व था। दरअसल, उत्तरप्रदेश में जीत को नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था। वे दिल्ली और बिहार की कथा दोहराना नहीं चाहते थे, इसलिए समूची चुनावी इबारत ही बदल दी।---

न केवल चुनावी इबारत बदली गई, बल्कि जीतने के हर संभव नुस्खे भी अपनाए गए। फिर चाहे वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से भरे बयान हों या जीतने वाले प्रत्याशियों पर ही दांव लगाना हो। भाजपा ने दागी और बागी को अपनाने की नई मिसाल इन चुनावों में कायम की है। विभिन्न दलों से बगावत कर आए 20 लोगों को भाजपा ने अपना उम्मीदवार बनाया, जिनमें से 17 ने जीत हासिल की। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी ने इसी फार्मूले को आज़माया था और कामयाबी हासिल करने में सफल रही थी। बागियों के अलावा दागियों को टिकट देने में भी भाजपा दूसरे दलों से आगे रही। उसने सबसे ज़्यादा 143 दागियों पर भरोसा किया और उनमें से 116 ने जीत का परचम लहराया है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा ने दागियों को सबसे ज़्यादा टिकट बांटे थे और सफलता पाई थी।
अब आते हैं तीसरे अध्याय अर्थात ईवीएम पर उठे सवाल पर ..
चुनाव में अपनी जीत की उम्मीद लगाए बैठे राजनेताओं को जब पराजय का अहसास हुआ, तो उस पीड़ा में एक भावना यह भी उभरी कि कहीं हमारे साथ छल तो नहीं हुआ है? मायावती ने कहा कि हमें मोदी ने नहीं मशीन ने हराया है और उधर अरविंद केजरीवाल ने भी पंजाब में अपनी हार पर कुछ ऐसी ही पीड़ा व्यक्त की।
लोकतंत्र में जनता के विश्वास से बड़ी कोई चीज़ नहीं होती और अभी जो घटनाक्रम चल रहा है, उससे मतदाता यह शंका कर सकता है कि उसके वोट का गलत इस्तेमाल तो नहीं हुआ। लिहाज़ा यह ज़रूरी है कि हर कीमत पर मतदाता के भरोसे को बनाए रखा जाए।
और भरोसे की बात निकली है तो गोवा और मणिपुर में भाजपा द्वारा सरकार गठन करने का ज़िक्र होना स्वाभाविक है, जहां दूसरे नंबर पर रहते हुए उसने राजनीतिक तिकड़मों से सत्ता हासिल की।


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