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बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने वाला यूपी का पहला गांव

भारत में एक बेहद जरूरी काम की कई दशकों तक अनदेखी की गई. लेकिन अब अहम जानकारियां दर्ज की जा रही हैं.

बायोडायवर्सिटी रजिस्टर बनाने वाला यूपी का पहला गांव
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राजधानी दिल्ली से लगे उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले का एक गांव है अटौर. करीब दस साल पहले तक गांव हरा-भरा था, खेती होती थी और लोग खुशहाल थे. लेकिन धीरे-धीरे पेड़ कटते गए और खेती की जमीनों पर घर और दूसरी इमारतें बनती गईं. देखते-देखते गांव में पेड़ नदारद हो गए.

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लेकिन कुछ समय पहले गांव के लोगों ने पेड़ लगाने शुरू किए और देखते-देखते फिर से हरियाली आ गई. पर्यावरण को लेकर गांव वालों में जागरूकता इस कदर बढ़ गई कि यह गांव अब न सिर्फ जिले का बल्कि प्रदेश का पहला ऐसा गांव बन गया जिसने अपना जैव विविधता रजिस्टर तैयार कर लिया है और उसे मेंटेन कर रहा है.

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वैसे तो जिले के सभी गांवों में जैव विविधता रजिस्टर तैयार कराया जा रहा है लेकिन अटौर प्रदेश का पहला गांव बना है, जिसने इस काम को कर लिया है. इस रजिस्टर को उत्तर प्रदेश जैव विविधता बोर्ड में भी पंजीकृत कर लिया गया और इसका डेटा ऑनलाइन हो गया है.

बायोडायवर्सिटी रजिस्टर का प्रावधान

राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण के निर्देश पर राज्य जैव विविधता बोर्ड की ओर से यह काम पिछले साल अक्टूबर में शुरू किया गया था. गाजियाबाद के जिलाधिकारी आरके सिंह बताते हैं, "अटौर राज्य का पहला गांव है जिसने पीबीआर यानी पीपल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर को पूरा कर जमा किया है. गाजियाबाद के 142 अन्य गांवों में भी यह काम तेजी से चल रहा है. करीब 50 प्रतिशत अन्य गांवों ने भी अपना पीबीआर या तो तैयार कर लिया है या फिर पूरा करने वाले हैं.”

पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर यानी पीबीआर जैव विविधता के विभिन्न पहलुओं के व्यापक रिकॉर्ड के तौर पर काम करता है. इसमें आवासों का संरक्षण, जीव-जंतुओं की विभिन्न प्रजातियों का संरक्षण, स्थानीय पौधों और खेती, जानवरों की अलग-अलग नस्लें, क्षेत्र की जैव विविधता से संबंधित अऩ्य तरह की जानकारी इकट्ठा की जाती है और उनका रिकॉर्ड रखा जाता है.

जैव विविधता अधिनियम, 2002 के मुताबिक, देश भर में स्थानीय निकायों द्वारा जैव विविधता के संरक्षण, सतत उपयोग और उनके दस्तावेजीकरण को बढ़ावा देने के लिए जैव विविधता प्रबंधन समितियां यानी बीएमसी बनाई गई हैं. बीएमसी का गठन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में स्थानीय निकायों द्वारा किया गया है और उन्हें स्थानीय लोगों की सलाह से पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर (पीबीआर) तैयार करने का काम सौंपा गया है.

क्या कहता है अटौर का बायोडायवर्सिटी रजिस्टर

करीब पांच हजार की आबादी वाले अटौर गांव में पंचायती राज विभाग के साथ समन्वय स्थापित करते हुए वन विभाग और कृषि विभाग की टीम ने सर्वे करने के बाद इस जैव विविधता रजिस्टर को तैयार किया था. जिसमें जिले के वन विभाग के अधिकारी यानी डीएफओ मनीष सिंह, ग्राम प्रधान मुनेश देवी समेत कई लोग शामिल थे. सर्वेक्षण में पता चला था कि गांव की जिस जमीन पर एक समय आम और कई अन्य फलदार पेड़ हुआ करते थे, वहां आम का सिर्फ एक पेड़ बचा हुआ था.

रणबीर सिंह अटौर गांव के प्रधान रह चुके हैं और इस समय उनकी पत्नी मुनेश देवी प्रधान हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में रणबीर सिंह बताते हैं कि सर्वे रिपोर्ट के बाद यह समझ में आया कि हम क्या खो रहे हैं क्या संरक्षित करने की जरूरत है. इस रजिस्टर में गांव में पशु, पक्षी, सब्जियों के प्रकार, औषधीय पौधे, गांव की विशेष पहचान, प्रमुख फसलें, जलीय जीव सहित जनसंख्या, क्षेत्रफल जैसी अन्य जानकारी दर्ज की जाती हैं. यानी इस रजिस्टर से गांव की पूरी तस्वीर उभरकर सामने आएगी जिसका इस्तेमाल प्रदेश और देश स्तर पर गांवों के लिए बनने वाली योजनाओं के लिए भी होगा.

ऐसी जानकारियों की अहमियत

राज्य जैव विविधता बोर्ड के सचिव बी प्रभाकर मीडिया से बातचीत में कहते हैं, "यदि प्रदेश के सभी राजस्व गांवों और निकायों का जैव विविधता रजिस्टर तैयार हो जाता है तो यह डाटा बेहद महत्वपूर्ण होगा. इससे न केवल क्षेत्रवार जल स्रोतों, जमीनी मिट्टी, फसलों की स्थिति का पता लगेगा बल्कि जलवायु परिवर्तन के पर्यावरणीय प्रभावों का भी पता लगाया जा सकेगा. इस डाटा से सरकार को ग्रामीण विकास की विभिन्न योजनाएं बनाने के साथ ही जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को रोकने के प्रयासों में भी मदद मिलेगी.”

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अटौर गांव के पूर्व प्रधान रणबीर सिंह बताते हैं कि इस गांव में चार साल पहले 40 एकड़ जमीन में करीब 10 हजार से ज्यादा पौधे लगाए गए थे और इन पौधों को गांव के लोग ही संरक्षित कर रहे हैं. इसमें अधिकतर छायादार पौधे लगे हैं. इसके अलावा बांस, सीसम, कनेर, खजूर, जामुन, अमरूद, सागौन जैसे कई पेड़ हैं लेकिन आम के पेड़ और दूसरे फलदार पेड़ों की संख्या अभी कम है. पेड़ों की वजह से अब यहां मोर, कोयल, नील गाय, कीट, पतंगे, तितलियां हैं जैसे जीव-जंतुओं की संख्या भी बढ़ गई है.

रजिस्टर बताता है कैसे बदला गांव

गन्ना इस गांव की प्रमुख फसल हुआ करता था लेकिन अब किसान ज्यादातर गेहूं, धान और सब्जियों की खेती कर रहे हैं. गांव के लोग बताते हैं कि खेती की जमीनें लगातार कम होती जा रही हैं क्योंकि नेशनल हाईवे के पास गांव होने के कारण खेती वाली जमीनों पर घर या दुकानें बन रही हैं और खेती की जमीनें धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं. लेकिन प्रधान रणबीर सिंह कहते हैं कि अब पेड़-पौधों को लगाकर हरियाली बढ़ाने की कोशिशें हो रही हैं और गांव के लोग इसमें काफी उत्साह से साथ दे रहे हैं.

हालांकि रणबीर सिंह यह भी बताते हैं कि गांव के युवा अब खेती में दिलचस्पी नहीं लेते. उन्हें डर है कि खेती की जो जमीन बची हुई है कहीं वो भी न खत्म हो जाए. इसीलिए करीब सात एकड़ जमीन पर गांव वालों की मदद से करीब दस हजार पेड़ तैयार किए गए हैं और अभी और पेड़ लगाने की भी योजना है.

बायोडायवर्सिटी रजिस्टर के लिए सभी गांवों को जैव विविधता प्रबंधन समिति यानी बीएमसी का गठन करना होता है, जिसमें ग्राम प्रधान अध्यक्ष, एक सचिव और चार सदस्य होते हैं. समिति की यह जिम्मेदारी होती है कि वह किसी स्थान के सभी वनस्पतियों और जीवों, जाति और समुदाय के विवरण के दस्तावेजीकरण के लिए स्थानीय लोगों से परामर्श करे, विवरणों को सत्यापित करे और रजिस्टर तैयार करे.


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