एकजुट विपक्ष और मोदी का 370-400 सीटों का लक्ष्य
देश होली मना चुका है। लोगों के शरीरों पर लगा रंग तो उतर रहा है, पर अब सही मायनों में सियासी रंग चढ़ने लगा है

- डॉ. दीपक पाचपोर
इस चुनावी चरण से निकलकर अब कयासों का दौर शुरू हो चुका है कि अगली सरकार किसकी बनने जा रही है। भारत के मानचित्र को सामने रखकर जब इस पर विचार होता है तो लोगों के सामने यह आश्चर्य बनकर उभरता है कि मोदी ने जो लक्ष्य बनाया है, वह कैसे पाया जा सकता है। विभाजित प्रतिपक्ष के बावजूद 2019 के चुनाव में भाजपा की स्थिति ऐसी कतई नहीं थी कि वह पहले से भी बड़ा बहुमत लेकर सत्ता में लौट सके। वह तो ऐन वक्त पर घटा पुलवामा कांड था जिसकी आड़ में मोदी दूसरी बार पीएम बने। उन्होंने शहीदों के नाम पर सहानुभूति और वोट दोनों बटोरे।
देश होली मना चुका है। लोगों के शरीरों पर लगा रंग तो उतर रहा है, पर अब सही मायनों में सियासी रंग चढ़ने लगा है। वह इसलिये क्योंकि सवा-डेढ़ माह दूर रह गये लोकसभा के चुनावी मैदान में उतरे सभी दल या तो अपने प्रत्याशी तय कर चुके हैं या फिर उस प्रक्रिया को पूरा कर रहे हैं। जहां तक गठबन्धन की बात है, तो सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के साथ कथित रूप से तीन दर्जन से अधिक राजनीतिक दल एनडीए के हिस्से हैं। वहीं प्रमुख चुनौती बनकर उभरी कांग्रेस ने अपने इंडिया गठबन्धन में दो दर्जन पार्टियों को शामिल कराकर भाजपा एवं उसके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चिंताएं बढ़ा दी हैं जो अपने लिये तीसरा कार्यकाल तय मानकर चल रहे थे। सीटों का बंटवारा भी अपने-अपने लिहाज से हो रहा है।
कांग्रेस जहां पांच न्याय एवं 25 गारंटियों के ईर्द-गिर्द अपना घोषणापत्र लगभग बना चुकी है, वहीं भाजपा मोदी के अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिये एक बार और सत्ता चाहती है। हालांकि वे कौन से काम हैं जो पूरे किये जाने हैं, यह अस्पष्ट, अपराभाषित व अव्याख्यायित है। उल्टे, उनके 10 साल के कामों को देखते हुए तो वह बड़ी हद तक आशंका पैदा करने वाले हैं।
इस चुनावी चरण से निकलकर अब कयासों का दौर शुरू हो चुका है कि अगली सरकार किसकी बनने जा रही है। भारत के मानचित्र को सामने रखकर जब इस पर विचार होता है तो लोगों के सामने यह आश्चर्य बनकर उभरता है कि मोदी ने जो लक्ष्य बनाया है, वह कैसे पाया जा सकता है। विभाजित प्रतिपक्ष के बावजूद 2019 के चुनाव में भाजपा की स्थिति ऐसी कतई नहीं थी कि वह पहले से भी बड़ा बहुमत लेकर सत्ता में लौट सके। वह तो ऐन वक्त पर घटा पुलवामा कांड था जिसकी आड़ में मोदी दूसरी बार पीएम बने। उन्होंने शहीदों के नाम पर सहानुभूति और वोट दोनों बटोरे। पहले दौर की ही तरह मोदी का दूसरा कार्यकाल भी असफलताओं से भरा साबित हुआ।
2014 से 2019 के बीच नोटबन्दी लोगों के लिये जानलेवा साबित हुई तो 2019 से अब खत्म होने जा रहे कार्यकाल के दौरान कोरोना ने देश को तबाह कर दिया। देश चाहे आर्थिक रूप से बदहाल हो चुका हो परन्तु मोदी के चंद पूंजीपति मित्र अमीरों की सूची में शीर्ष पर पहुंच गये। साफ था (और है भी) कि मोदी का वरदहस्त उन पर था। इसके खिलाफ़ संसद के भीतर व बाहर जमकर आवाजें उठीं, भ्रष्टाचार के पर्दाफाश भी हुए लेकिन इस पर सरकार ने मौन साधे रखा। उल्टे, अपनी ताकत का इस्तेमाल कर विरोधी आवाजों को बन्द करने के संगठित, सुनियोजित एवं राज्य प्रायोजित उपक्रम हुए। कुछ में सरकार कामयाब हुई तो कुछ आवाजों को वह दबा न सकी।
वैसे तो 2024 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिये मोदी-भाजपा ने तैयारियां काफी पहले से शुरू कर दी थीं, लेकिन सबसे बड़ा दांव अयोध्या स्थित राममंदिर का था जिसमें रामलला की मूर्ति की 22 जनवरी को आनन-फानन में प्राण-प्रतिष्ठा तो हुई लेकिन उसका खास फायदा होता नज़र नहीं आया क्योंकि श्रद्धा की जो लहर उठाई गयी थी, वह हफ्ते भर में ही विलीन हो गयी। फिर, नागरिकता संशोधन कानून का भी अपेक्षित फायदा मिलता नहीं दिख रहा है। चूंकि कामों के बारे में किसी भी तरह का उल्लेख करने की स्थिति में भाजपा और मोदी हैं ही नहीं, तो मोदी अपनी रैलियों व भाषणों में भावनात्मक मुद्दे उभारने की कोशिशें कर रहे हैं, जिनमें कभी वे संदेशखाली (पश्चिम बंगाल) की महिलाओं के साथ हुए उत्पीड़न पर आंसू बहाते हैं तो कभी बताते हैं कि राहुल गांधी युवाओं को 'नशेड़ी' बतला रहे हैं। ऐसे ही, राहुल गांधी द्वारा दिये गये इस बयान को भी उन्होंने हास्यास्पद ढंग से तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश की जिसमें राहुल ने कहा था कि वे (राहुल) एक 'शक्ति' के साथ लड़ रहे हैं। उन्होंने मोदी की दमनात्मक शक्तियों की ओर ईशारा किया था लेकिन मोदी ने उसे बड़े ही बचकाना तरीके से 'स्त्री शक्ति' से जोड़ने की नाकाम कोशिश की। वे साबित करना चाहते थे कि राहुल व कांग्रेस महिला तथा हिन्दू विरोधी हैं। उनकी ऐसी चालें बेअसर हो रही हैं क्योंकि लोग अब जान गये हैं कि जो मोदी संदेशखाली की महिलाओं की स्थिति को लेकर इतने द्रवित हैं वे मणिपुर और महिला पहलवानों के मामलों में चुप्पी साधे बैठे हैं। उनके दोनों ही आचरण उनकी राजनीति के हिस्से हैं।
2014 में वे कांग्रेस के कथित भ्रष्टाचार, परिवारवाद आदि के जिन मुद्दों को लेकर जीते थे, आज भी वे ही उनके मुख्य सियासी राग हैं। इसका कारण यही है कि पीएम के पास उनके कथित आर्थिक मॉडल और विकास सम्बन्धी कोई भी बात बतलाने के लिये है ही नहीं। ऐसे में कांग्रेस व इंडिया गठबन्धन अपने कुछ आंतरिक दिक्कतों के बावजूद लगातार मजबूत हो रहा है।
असली बात यह है कि वह एकजुट बना हुआ है जिसके बारे में भाजपा ने उम्मीद ही नहीं की थी। यह तो सही है कि कई राज्यों या सीटों पर इंडिया के भागीदार दलों के बीच मतभेद हैं लेकिन उन पर परस्पर चर्चाएं हो रही हैं। बड़ी बात नहीं कि कुछ पर विवाद बने रहें और उनके आखिर तक हल न ढूंढे जा सकें पर सवाल यह है कि मोदी ने अबकी बार जो भाजपा की 370 व एनडीए की 400 सीटों का लक्ष्य रखा है वह क्या प्राप्त किया जा सकता है। वर्तमान परिस्थितियों में यह लक्ष्य पाना कठिन दिखता है।
इसके कई कारण हैं। पहला तो यह है कि यह इसलिये व्यवहारिक नहीं हो सकता क्योंकि भाजपा का दावा है कि उनके एनडीए में 38 दल हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भाजपा अपनी सहयोगी 37 पार्टियों से सिर्फ 30 सीटों की उम्मीद रखती है। फिर, अपने चरमोत्कर्ष काल में भाजपा 303 सीटें ही जीत सकी थी तो इनमें लगभग 70 का इज़फ़ा वह कैसे करेगी? कुछ का कहना है कि यह केवल मनोवैज्ञानिक युद्ध है जो मोदी लड़ रहे हैं। वे ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे है जिससे लोगों को लगे कि भाजपा सरकार ज्यादा बड़े बहुमत से जीतकर आ रही है। दूसरे, वे विपक्ष का मनोबल गिराना चाहते हैं।
नया घटनाक्रम दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी का है जिसके कारण भाजपा और भी फंस गयी है। प्रवर्तन निदेशालय द्वारा आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक केजरीवाल को कथित शराब घोटाले में गिरफ्तार करने से इंडिया गठबन्धन और भी एकजुट हो गयी है। आप की मौजूदगी दिल्ली के अलावा सरकार के रूप में पंजाब में है। इसके साथ ही चंडीगढ़ में उसका मेयर है तथा गोवा, गुजरात, हरियाणा के अलावा कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में भी उसकी उपस्थिति है। इस गिरफ्तारी से भाजपा की 'बी' टीमें कहलाने वाली पार्टियां भी सतर्क हो गयी हैं। बड़ी बात नहीं कि वे चुनाव के पहले या बाद में इंडिया से जुड़ जायें क्योंकि उन्होंने देख लिया है कि जो केजरीवाल अक्सर भाजपा के लिये मददगार साबित हुए हैं, वे भी असुरक्षित हैं, फिर तो किसी पर भी गाज गिर सकती है। उधर भाजपा के कई लोग चुनाव लड़ने से इंकार कर चुके हैं। कई ने पार्टी टिकटें तक लौटा दीं। साफ है कि लोग भाजपा की टिकट पर लड़ना मुनासिब नहीं समझ रहे हैं। कुछ भाजपायी सांसदों ने तो राजनीतिक संन्यास का ऐलान तक कर दिया है। ये सारे ही स्पष्ट संकेत हैं कि 370-400 पार का भाजपायी नारा छलावा मात्र है।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


