राजनैतिक हथियार बनता केन्द्रीय बजट
बुधवार को लोकसभा में केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत वर्ष 2024-25 का बजट जहां एक ओर देश के मुठ्टी भर लोगों को खुशी और ज्यादातर वर्गों के लिये निराशा लेकर आया है

बुधवार को लोकसभा में केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत वर्ष 2024-25 का बजट जहां एक ओर देश के मुठ्टी भर लोगों को खुशी और ज्यादातर वर्गों के लिये निराशा लेकर आया है, वैसे ही गिनती के राज्यों को खुश करने वाला जबकि अधिकतर को नाखुश करने वाला साबित हुआ है। सरकार बनाने में मददगार रहे दो राज्यों- बिहार और आंध्रप्रदेश की झोलियों को जिस तरह से केन्द्र सरकार ने भरा है, उससे अनेक राज्यों का मायूस होना स्वाभाविक है। इस बजट में जिस प्रकार से सरकार ने भेदभाव बरता है उससे राज्यों में फूट पड़ने की आशंका है; और उसका सबसे बुरा पहलू यह है कि वह देश की संघीय व्यवस्था पर गहरी चोट है। पिछले 10 वर्षों से देश पर शासन कर रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके मुख्य सिपहसालार केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपने अनेक कृत्यों से जिस तरह भारत के संघीय ढांचे की नींव को हिलाकर रख दिया है, उसी श्रृंखला की एक कड़ी के रूप में इस बजट को देखा जाना चाहिये। इसका सबसे खतरनाक पहलू यह है कि यदि बजट का इस्तेमाल कर राज्यों का राजनैतिक समर्थन जुटाने की परम्परा चल पड़ी तो केन्द्रीय राजस्व का बंटवारा अलग-अलग राज्यों की ज़रूरतों के आधार पर नहीं बल्कि सियासी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये किया जाने लगेगा। यह व्यवस्था वंचित रह गये राज्यों में असंतोष को जन्म देगा।
उल्लेखनीय है कि आंध्रप्रदेश की तेलुगु देसम पार्टी (टीडीपी) के 16 और बिहार की जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के 12 सांसदों (लोकसभा सदस्य) के बल पर मोदी सरकार टिकी हुई है। पहले से ही अंदेशा था कि अपने समर्थन के एवज में इन दोनों ही पार्टियों के नेता, क्रमश: चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार (अपने-अपने राज्यों के मुख्यमंत्री) केंद्र की बांहें मरोड़कर कीमत वसूल करेंगे। इन दोनों नेताओं की अपने-अपने प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने की मांग रही है। मांग तो ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की भी थी लेकिन वहां अब भारतीय जनता पार्टी की ही सरकार बन गयी है इसलिये वह मसला कम से कम वहां तो खत्म हो गया है। इस बजट में टीडीपी और जेडीयू के प्रति केन्द्र का खास अनुराग झलका है। चंद्रबाबू नायडू ने जिस विशेष राज्य का दर्जा न मिलने के कारण 2018 में भाजपा का साथ छोड़कर नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस को टा-टा कर दिया था, इस वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में फिर से उसका दामन थामा था। तभी से नायडू की मांग थी कि आंध्रप्रदेश से अलग होकर तेलंगाना राज्य के बन जाने से उन्हें अपनी राजधानी बनाने की ज़रूरत है। इसके लिये 15000 करोड़ रुपये उन्हें दिये गये। उनका खुश होना स्वाभाविक है।
दूसरी खुशी नीतीश बाबू को मिली है। चुनाव के ऐन पहले विपक्षी गठबन्धन इंडिया को छोड़कर एनडीए में 17 महीने बाद वापसी करने वाले नीतीश कुमार को भी पुरस्कार मिला है- 59 हजार करोड़ रुपए का। इसका बड़ा हिस्सा बिहार में आने वाली बाढ़ पर नियंत्रण करने सम्बन्धी उपायों पर खर्च होंगे। हालांकि इसकी हवा समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (सांसद) ने यह कहकर निकाल दी है कि जब तक नेपाल और उप्र से बिहार को जाने वाली नदियों की बाढ़ को नियंत्रित नहीं किया जाता, तब तक बिहार की नदियों की बाढ़ को नियंत्रित कर पाना असम्भव है। जिस तरह से चंद्रबाबू अब विशेष राज्य का दर्जा या विशेष पैकेज की बात भूल गये हैं, वैसे ही नीतीश कुमार भी इससे इतने गदगद हैं कि वे पत्रकारों से कह रहे हैं कि, 'वे तो पहले से कह रहे थे कि उन्हें या तो विशेष राज्य का दर्जा मिले या विशेष पैकेज।
केन्द्र ने यह राशि तो दे ही दी है।' हालांकि वे भूल रहे हैं कि इससे बड़ी राशि का ऐलान तो मोदी राज्य की अपनी प्रचार सभाओं में करते रहे थे। बहरहाल, यह भी सच है कि यह राशि राज्य द्वारा केन्द्र की देखरेख और निर्देश पर ही खर्च करनी होगी। जो भी हो, यह आवंटन नीतीश को अपना चेहरा छिपाने और इंडिया छोड़कर एनडीए में शामिल होने के फैसले को सही ठहराने के लिये काफी है।
केन्द्रीय बजट एक साझा सम्पत्ति होती है जिसके जरिये पूंजी का वितरण भेदभाव से रहित होना चाहिये। उसका पैमाना इस आधार पर नहीं होना चाहिये कि कौन से राज्यों में अपनी पार्टी की सरकार है या सहयोगी दलों की है या फिर विरोधी दलों की है अथवा किससे समर्थन मिलेगा या किससे नहीं मिलेगा। सेन्ट्रल पूल का पैसा अलग-अलग राज्यों से आता है और वह पूरे देश के सम्मिलित पुरुषार्थ का परिणाम होता है। राज्यों की ज़रूरतों के आधार पर वह राज्यों को दिया जाता है। इस पक्षपात से न केवल विरोधी पार्टी की सरकारों वाले प्रदेशों में असंतोष फैलेगा बल्कि केन्द्र के साथ उनकी एकजुटता में भी कमी आयेगी। यह देश की एकता के लिये घातक होगा। इस भेदभावपूर्ण बजट की पहली प्रतिक्रियास्वरूप यह सामने आया है कि 27 जुलाई को आयोजित नीति आयोग की बैठक का चार राज्यों ने बहिष्कार करने का ऐलान कर दिया है।
तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन, तेलंगाना के. रेवंत रेड्डी, कर्नाटक के सिद्धारमैया और हिमाचल प्रदेश के सुखविंदर सिंह सुक्खू बैठक में नहीं जायेंगे। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी जायेंगी लेकिन वे सवाल पूछने की तैयारी से जा रही हैं। बजट से राजनैतिक हितों को साधने का खेल संघवाद और निष्पक्षता के सिद्धांतों के खिलाफ है। यह इसलिये बहुत घातक है कि यदि इसे परम्परा बना दिया गया तो बजट एक राजनैतिक हथियार बन जायेगा।
राजनैतिक हथियार बनता केन्द्रीय बजट
बुधवार को लोकसभा में केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत वर्ष 2024-25 का बजट जहां एक ओर देश के मु_ी भर लोगों को खुशी और ज्यादातर वर्गों के लिये निराशा लेकर आया है, वैसे ही गिनती के राज्यों को खुश करने वाला जबकि अधिकतर को नाखुश करने वाला साबित हुआ है। सरकार बनाने में मददगार रहे दो राज्यों- बिहार और आंध्रप्रदेश की झोलियों को जिस तरह से केन्द्र सरकार ने भरा है, उससे अनेक राज्यों का मायूस होना स्वाभाविक है। इस बजट में जिस प्रकार से सरकार ने भेदभाव बरता है उससे राज्यों में फूट पड़ने की आशंका है; और उसका सबसे बुरा पहलू यह है कि वह देश की संघीय व्यवस्था पर गहरी चोट है। पिछले 10 वर्षों से देश पर शासन कर रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके मुख्य सिपहसालार केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपने अनेक कृत्यों से जिस तरह भारत के संघीय ढांचे की नींव को हिलाकर रख दिया है, उसी श्रृंखला की एक कड़ी के रूप में इस बजट को देखा जाना चाहिये। इसका सबसे खतरनाक पहलू यह है कि यदि बजट का इस्तेमाल कर राज्यों का राजनैतिक समर्थन जुटाने की परम्परा चल पड़ी तो केन्द्रीय राजस्व का बंटवारा अलग-अलग राज्यों की ज़रूरतों के आधार पर नहीं बल्कि सियासी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये किया जाने लगेगा। यह व्यवस्था वंचित रह गये राज्यों में असंतोष को जन्म देगा।
उल्लेखनीय है कि आंध्रप्रदेश की तेलुगु देसम पार्टी (टीडीपी) के 16 और बिहार की जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के 12 सांसदों (लोकसभा सदस्य) के बल पर मोदी सरकार टिकी हुई है। पहले से ही अंदेशा था कि अपने समर्थन के एवज में इन दोनों ही पार्टियों के नेता, क्रमश: चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार (अपने-अपने राज्यों के मुख्यमंत्री) केंद्र की बांहें मरोड़कर कीमत वसूल करेंगे। इन दोनों नेताओं की अपने-अपने प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने की मांग रही है। मांग तो ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की भी थी लेकिन वहां अब भारतीय जनता पार्टी की ही सरकार बन गयी है इसलिये वह मसला कम से कम वहां तो खत्म हो गया है। इस बजट में टीडीपी और जेडीयू के प्रति केन्द्र का खास अनुराग झलका है। चंद्रबाबू नायडू ने जिस विशेष राज्य का दर्जा न मिलने के कारण 2018 में भाजपा का साथ छोड़कर नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस को टा-टा कर दिया था, इस वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में फिर से उसका दामन थामा था। तभी से नायडू की मांग थी कि आंध्रप्रदेश से अलग होकर तेलंगाना राज्य के बन जाने से उन्हें अपनी राजधानी बनाने की ज़रूरत है। इसके लिये 15000 करोड़ रुपये उन्हें दिये गये। उनका खुश होना स्वाभाविक है।
दूसरी खुशी नीतीश बाबू को मिली है। चुनाव के ऐन पहले विपक्षी गठबन्धन इंडिया को छोड़कर एनडीए में 17 महीने बाद वापसी करने वाले नीतीश कुमार को भी पुरस्कार मिला है- 59 हजार करोड़ रुपए का। इसका बड़ा हिस्सा बिहार में आने वाली बाढ़ पर नियंत्रण करने सम्बन्धी उपायों पर खर्च होंगे। हालांकि इसकी हवा समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (सांसद) ने यह कहकर निकाल दी है कि जब तक नेपाल और उप्र से बिहार को जाने वाली नदियों की बाढ़ को नियंत्रित नहीं किया जाता, तब तक बिहार की नदियों की बाढ़ को नियंत्रित कर पाना असम्भव है। जिस तरह से चंद्रबाबू अब विशेष राज्य का दर्जा या विशेष पैकेज की बात भूल गये हैं, वैसे ही नीतीश कुमार भी इससे इतने गदगद हैं कि वे पत्रकारों से कह रहे हैं कि, 'वे तो पहले से कह रहे थे कि उन्हें या तो विशेष राज्य का दर्जा मिले या विशेष पैकेज। केन्द्र ने यह राशि तो दे ही दी है।' हालांकि वे भूल रहे हैं कि इससे बड़ी राशि का ऐलान तो मोदी राज्य की अपनी प्रचार सभाओं में करते रहे थे। बहरहाल, यह भी सच है कि यह राशि राज्य द्वारा केन्द्र की देखरेख और निर्देश पर ही खर्च करनी होगी। जो भी हो, यह आवंटन नीतीश को अपना चेहरा छिपाने और इंडिया छोड़कर एनडीए में शामिल होने के फैसले को सही ठहराने के लिये काफी है।
केन्द्रीय बजट एक साझा सम्पत्ति होती है जिसके जरिये पूंजी का वितरण भेदभाव से रहित होना चाहिये। उसका पैमाना इस आधार पर नहीं होना चाहिये कि कौन से राज्यों में अपनी पार्टी की सरकार है या सहयोगी दलों की है या फिर विरोधी दलों की है अथवा किससे समर्थन मिलेगा या किससे नहीं मिलेगा। सेन्ट्रल पूल का पैसा अलग-अलग राज्यों से आता है और वह पूरे देश के सम्मिलित पुरुषार्थ का परिणाम होता है। राज्यों की ज़रूरतों के आधार पर वह राज्यों को दिया जाता है। इस पक्षपात से न केवल विरोधी पार्टी की सरकारों वाले प्रदेशों में असंतोष फैलेगा बल्कि केन्द्र के साथ उनकी एकजुटता में भी कमी आयेगी। यह देश की एकता के लिये घातक होगा। इस भेदभावपूर्ण बजट की पहली प्रतिक्रियास्वरूप यह सामने आया है कि 27 जुलाई को आयोजित नीति आयोग की बैठक का चार राज्यों ने बहिष्कार करने का ऐलान कर दिया है। तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन, तेलंगाना के. रेवंत रेड्डी, कर्नाटक के सिद्धारमैया और हिमाचल प्रदेश के सुखविंदर सिंह सुक्खू बैठक में नहीं जायेंगे। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी जायेंगी लेकिन वे सवाल पूछने की तैयारी से जा रही हैं। बजट से राजनैतिक हितों को साधने का खेल संघवाद और निष्पक्षता के सिद्धांतों के खिलाफ है। यह इसलिये बहुत घातक है कि यदि इसे परम्परा बना दिया गया तो बजट एक राजनैतिक हथियार बन जायेगा।


