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धरोहर, सामाजिक संस्कृति और विरासत की समझ

बुजुर्ग व्यक्ति ने गीला कंबल ओढ़ रखा है। उससे पानी झर रहा है। उसके कंधे पर लाल कपड़े में कावड़ हैं और दूसरे हाथ से झिंझा बजा रहा है

धरोहर, सामाजिक संस्कृति और विरासत की समझ
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- अश्वनी शर्मा

रतलाम के नजदीक जावरा तहसील में अभी रात्रि का अंतिम पहर चल रहा था। सुबह के करीब चार बजे होंगे। घर के बाहर कोलाहल सुनाई दिया। घर की महिलाएं दौड़ दौड़ कर किसी के पैर छू रही थी। सर्दी के मौसम में कोन आया है। बाहर निकल कर देखा तो एक बुजुर्ग व्यक्ति ऊंची आवाज में टेर लगा रहा था। उसके पीछे पीछे एक महिला भी गा रही थी।

बुजुर्ग व्यक्ति ने गीला कंबल ओढ़ रखा है। उससे पानी झर रहा है। उसके कंधे पर लाल कपड़े में कावड़ हैं और दूसरे हाथ से झिंझा बजा रहा है। उस महिला के एक हाथ में खाली लौटा, कलाई पर एक लुगड़ी और कंधे पर झोला टंगा है। वो बीच बीच में झिंझा भी बजाती है।

घर में बड़े बूढ़ों से सुना था कि पहले कावड़िया भाट आते थे। कंबल को पानी से भिगोकर सर्दी के मौसम में फेरी लगाते थे। गर्मी के समय में कांवड़ लेकर फिरते है। उनके पास गजब की बरकत रहती है। वह घर में खुशियां लेकर आते हैं। आज उन अजीब लोगों को देख भी लिया था।

गांव के लोग कह रहे थे कि छबीला बाबा और गोमती अम्मा एक दशक बाद आए हैं। यह लोग कावड़िया भाट घुमंतू समुदाय से संबंधित है। जो काठ से बने इस चलते फिरते मंदिर को लेकर घर घर अलख जगाते कार्तिक माह से लेकर अगले चार महीने पैदल गांव गांव घूमते हुए कथा, कहानी, गीत और किस्से सुनाते रहते हैं।
ये कावड़ एक चलता फिरता मंदिर हैं। इसके बहुत से कपाट हैं। जिन्हें बड़ी ही सावधानी और सूझबूझ के साथ खोलना पड़ता है। हर कपाट पर कुछ चित्र मांढे हुए हैं। जिनके बारे में गीतों के जरिए उनकी कथा सुनाने का काम करना पड़ता है। बगैर बांचे कावड़ बंद नहीं हो सकती।

इस कावड़ में श्रवण कुमार की कथा से लेकर, राजा हरीश चंद्र का किस्सा, मोरद्वाज की कथा, रानी मैनावती का किस्सा। रामायण महाभारत का कोई प्रसंग जैसे तमाम लोक गाथाएं इसमें उकेरी हुई रहती हैं। भूगोल के हिसाब से इसकी घटनाएं, गाथाएं और चरित्र बदल जाते हैं। ये लोग राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ हरियाणा और उत्तर प्रदेश तक अपनी यात्रा करते हैं।

कभी हमारी सामूहिक स्मृतियों का अटूट हिस्सा रहा यह समुदाय आज लुप्त होने की कगार पर खड़ा है। वह लोग बहुत थोड़े से संसाधनों में अपने जीवन को खुशी खुशी जीते हैं। यह समुदाय आज का नहीं है। बल्कि उस समय से हैं जब हमारे पास उपासना के कोई स्थाई केंद्र नहीं थे। हमारे ज्ञान, स्मृतियों और विश्वास का आधार यही लोग थे।

कावड़िया भाट समुदाय में एकमात्र छबीला बाबा और गोमती अम्मा शेष बचे हैं। जिनको कावड़िया भाट की परंपरा की संपूर्ण जानकारी है। जिनके पास सैकड़ों की संख्या में किस्से कहानियां और गाथाएं मौखिक याद है। जो रात भर इन्हीं किस्सों कहानियों के जरिए हमारी स्मृतियों को जिंदा करते हैं। हमें सुखद एहसास से भरते हैं।
कावड़िया भाट न जाने कितने हजार सालों से चले आ रहे हैं। हमारी धरोहर तो यह समुदाय है। मंदिर का स्थाई रूप तो बहुत बाद में आया है। वह भी कुछ गिने-चुने समाजों के लिए। दलितों को तो आज तक मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं है। आदिवासी और घुमंतू समुदायों ने अपने उपासना के तरीके और स्थान अपने भूगोल, जरूरत और उपयोग के अनुरूप चुने हैं।

छबीला बाबा और गोमती अम्मा के पास न बुढ़ापा पेंशन है। न कोई जमीन का पट्टा। राजस्थान सरकार के प्रिंसिपल सेक्रेटरी से लेकर मध्य प्रदेश के अधिकारियों तक घूम लिए न बुढ़ापा पेंशन बनी न कोई राशन की सहायता। मध्य प्रदेश सरकार का कहना है कि राजस्थान करेगा और राजस्थान का कहना है की जमीन का पट्टा लाओ तो कुछ होगा।

आखिर हमारे जेहन में हेरिटेज का मतलब क्या है? क्या अयोध्या में राम मंदिर बनाकर और नई गौशालाएं खोलकर हम अपने हेरिटेज को बचा सकेंगे? सब जगह पर्यटन पर्यटन करके हम क्या हासिल करेंगे? क्या बगैर इस सांस्कृतिक धरोहर को सहेजे, हमारा पर्यटन अगले पांच वर्ष भी चल सकेगा?

जिनको कला की एबीसीडी नहीं पता वे कला संरक्षण में लग गए। जिसने जीवन में कभी घर का व्यंजन नहीं देखा वह घुमंतू समुदायों और आदिवासियों के खानपान को बचाने में लग गया। जिसको सुर का पता है ना ताल का ज्ञान है, वह संगीत का पुरोधा बन गया। कॉलेज और यूनिवर्सिटी में कट पेस्ट करके पेपर छापने वाले लोग भारतीय ज्ञान परंपरा और लोक संस्कृति के ज्ञाता बन गए।

हमारे जेहन से विचार आने बंद हो गए। हमारा दिमाग पहले से ही कूड़े के ढेर से भर चुका है। इस पूरे विमर्श से मौलिकता एकदम गायब है। छबीला बाबा और गोमती अम्मा अपनी मौलिकता को जीते हैं। उनको अपना सामान्य जीवन जीने के लिए किसी सरकारी कार्यक्रम, सहयोग या संरक्षण की आवश्यकता नहीं है।
सभ्यताओं को बनने में न जाने कितनी पीढ़ियां खप जाती हैं। कितने ही मौसम बीत जाते हैं। कितना ही चिंतन मनन और संवाद होता है। तब जाकर हम एक स्वरूप को देख पाते हैं। इस स्वरूप का आज हमारे लिए कोई मूल्य ही नहीं बचा है। वे लोग हजारों वर्षों से हमारे जीवन को प्रकाशित करते रहे हैं और आज भी वही रोशनी दिखा रहे हैं।

छबीला बाबा और गोमती अम्मा के जाने से बकाया समुदाय बहुत कुछ खोएगा। उनका जीवन अनुभव, समझ और मौलिक ज्ञान दुर्लभ है। वो किसी सरकारी कार्यक्रम, योजना या कॉन्फ्रेंस से हासिल नहीं होगी। और नहीं कोई नया भवन खड़ा कर देने से लौट आएगी।


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