राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा बन गई है टीवी पत्रकारिता
भारतीय मीडिया, खास कर टेलीविजन के राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल इस वक्त अपने अल्प इतिहास में सार्वकालिक पतन के दौर से गुजर रहे हैं

- अनिल जैन
इस समय पहलगाम में आतंकवादियों के हाथों हुए भीषण नरसंहार का मामला पूरे देश में चर्चा का विषय बना हुआ है। हमले के दौरान कई पर्यटकों की जान बचाने में कश्मीर के स्थानीय बांशिदों ने अहम भूमिका निभाई। हमले में मारे गए लोगों के शोक स्वरूप और आतंकवादियों के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार करने के लिए समूचे कश्मीर के लोगों ने ऐतिहासिक रूप से एक दिन के लिए 'कश्मीर बंद' रखा।
भारतीय मीडिया, खास कर टेलीविजन के राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल इस वक्त अपने अल्प इतिहास में सार्वकालिक पतन के दौर से गुजर रहे हैं। ताजा मामला है कश्मीर में हुए आतंकवादी हमले को लेकर उसका रवैया। कश्मीर घाटी के बाशिंदों को पिछले एक दशक में जितना बदनाम और भावनात्मक रूप से जितना आहत भाजपा की प्रोपेगेंडा मशीनरी ने नहीं किया है, उससे ज्यादा उन्हें बदनाम करने और उनके जख्मों को कुरेदने का काम देश के इन राष्ट्रीय टीवी चैनलों ने किया है। इसीलिए आम तौर पर इन टीवी चैनलों को भी अब भाजपा के प्रचार तंत्र का हिस्सा ही माना जाने लगा है।
इस समय पहलगाम में आतंकवादियों के हाथों हुए भीषण नरसंहार का मामला पूरे देश में चर्चा का विषय बना हुआ है। हमले के दौरान कई पर्यटकों की जान बचाने में कश्मीर के स्थानीय बांशिदों ने अहम भूमिका निभाई। हमले में मारे गए लोगों के शोक स्वरूप और आतंकवादियों के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार करने के लिए समूचे कश्मीर के लोगों ने ऐतिहासिक रूप से एक दिन के लिए 'कश्मीर बंद' रखा। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने राज्य की कानून-व्यवस्था को लेकर अपने पास कोई अधिकार न होने के बावजूद विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर आतंकवादी हमले के लिए पूरे देश से माफी मांगी। इस सबके बावजूद टीवी चैनलों का रवैया कतई सकारात्मक नहीं है। उनका पूरा जोर आतंकवादियों के बहाने कश्मीरियों और पूरे देश के मुसलमानों को अपमानित करने और उनके खिलाफ नफ़रत का वातावरण तैयार करने और युद्धोन्माद पैदा करने पर है।
टीवी चैनलों का यह रवैया छह साल पुराने उस दौर की याद ताजा कर रहा है जब केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को प्राप्त विशेष राज्य का दर्जा खत्म कर दिया था और उसका विभाजन कर उसे केंद्र शासित प्रदेश बनाया था। तब भी इन टीवी चैनलों ने अपने संवाददाताओं को कश्मीर भेजे बगैर ही कश्मीर के बारे में खूब मनगढ़ंत और बेसिर-पैर की खबरें अपने दर्शकों को परोसी थीं। उस समय विशेष दर्जा खत्म करने के केंद्र सरकार के फैसले से कश्मीर घाटी के लोग बेहद क्षुब्ध और निराश थे। अपना विरोध जताने के लिए उन्होंने कई दिनों तक अपना काम-काज बंद रखा था। समूची कश्मीर घाटी में लॉकडाउन जैसे हालात थे। उसी दौरान इन पंक्तियों के लेखक ने अपने साथी पत्रकार महेंद्र मिश्र के साथ हालात का जायजा लेने के लिए कश्मीर घाटी की यात्रा की थी। हम लोग वहां एक सप्ताह तक रहे थे।
उस समय तमाम टीवी चैनल कश्मीर को लेकर ऐसी तस्वीर पेश कर रहे थे मानो वह किसी दूसरे देश का हिस्सा था, जिसे भारत सरकार ने हमला कर जीत लिया हो और अपना हिस्सा बना लिया है। यह बात बार-बार जोर देकर बताई जा रही थी कि अब कोई भी भारतीय वहां आसानी से जमीन खरीद सकेगा, वहां बस सकेगा। यही नहीं, भाजपा के कुछ नेताओं, केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों ने तो ऐसे भी बयान दिए थे कि अब भारत के दूसरे प्रदेशों के नौजवान कश्मीर से अपने लिए दुल्हन भी ला सकेंगे।
ऐसे बेहूदा बयानों को तमाम टीवी चैनल बढ़-चढ़कर दिखा रहे थे। इसी बात को सोशल मीडिया पर भाजपा का समर्थक वर्ग और भी ज्यादा भद्दे तरीके से प्रचारित कर रहा था, जिससे हर कश्मीरी बुरी तरह आहत और दुखी था, वह अपने को अपमानित महसूस कर रहा था। ऐसा महसूस करते हुए उसका दुखी होना स्वाभाविक भी था।
उस समय तमाम बेखबरी टीवी चैनल रोजाना पुराने फुटेज और सरकारी दावों के आधार पर बता रहे थे कि कश्मीर घाटी में जनजीवन लगातार सामान्य हो रहा है, लेकिन श्रीनगर पहुंचकर हवाई अड्डे से बाहर निकलते ही हमने पाया था कि कहीं कुछ सामान्य नहीं है। उस दिन कश्मीर में जनता द्वारा लागू लॉकडाउन का 32वां दिन था। डिजिटल इंडिया में उस 'नए कश्मीर' का जनजीवन बगैर मोबाइल फोन और इंटरनेट के पूरे 33 दिन से अपाहिज बना हुआ था।
हमने एक हफ्ते वहां रहते हुए देखा था कि सरकारी स्कूल-कॉलेज खुल रहे हैं लेकिन वहां पढ़ने वाले बच्चे नदारद हैं। सरकारी परिवहन के साधन बंद थे। सरकारी दफ्तर, बैंक आदि भी खुलते थे लेकिन उनमें सन्नाटा पसरा रहता था। होटलें, रेस्टोरेंट, दुकानें पूरी तरह बंद थे। देशी-विदेशी पर्यटकों का आना पूरी तरह बंद था। डल झील में तमाम शिकारे खामोश और उदास खड़े थे। पूरे श्रीनगर में हर दस कदम पर पैरामिलिट्री फोर्स के जवान तैनात थे।
हमने देखा था कि सुबह के वक्त दो घंटे के लिए खाने-पीने के सामानों की दुकानें खुलती थीं, ताकि लोग अपनी रोजमर्रा की जरुरतों का सामान खरीद सकें। बस उन्हीं दो घंटों की लड़खड़ाती और उदास चहल-पहल के बाद पूरे दिन घाटी में सन्नाटा पसरा रहता था। यही माहौल बाद में दो महीने तक और रहा था। फिर भी टीवी चैनलों की खबरों में इन सब बातों का कोई ज़िक्र नहीं हो रहा था। जो कुछ बताया जा रहा था, वह हकीकत से एकदम उलट यानी सरासर बकवास था। इसी वजह से घाटी के बाशिंदों में जबरदस्त गुस्सा था। उनका कहना था कि ये सारे चैनल कश्मीर के मौजूदा हालात की लगातार गलत तस्वीरें पेश कर रहे हैं।
बहरहाल, इस समय पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले को लेकर भी टीवी चैनलों का रोल बेहद आपत्तिजनक और गंदा है। उनकी खबरों के प्रस्तुतिकरण में वस्तुनिष्ठता सिरे से नदारद है। हमले के दौरान और हमले के बाद श्रीनगर, पहलगाम और आसपास के इलाकों के बांशिदों ने पीड़ित पर्यटकों की जिस तरह मदद की, उसे सिरे से नजरअंदाज किया जा रहा है। बताया जा रहा है कि आतंकवादियों ने पर्यटकों से उनका धर्म पूछा और फिर उन्हें मारा। अगर यह बात सही है तो जाहिर है कि उनका मकसद इस नरसंहार के जरिये देश के हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अलगाव व नफ़रत की खाई को और ज्यादा गहरा व चौड़ा करना था। तमाम टीवी चैनल आतंकवादियों के इसी मकसद को पूरा करने की दिशा में काम कर रहे हैं।
किसी भी टीवी चैनल की ओर से सरकार से यह सवाल नहीं पूछा जा रहा है कि जब पूरे जम्मू-कश्मीर में विभिन्न सुरक्षा बलों के ढाई लाख से ज्यादा जवान तैनात हैं तो जिस जगह हमला हुआ वहां सुरक्षा बल का एक भी जवान क्यों नहीं तैनात था? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के एक बार नहीं, कई मर्तबा किए गए इस दावे पर कोई सवाल नहीं उठा रहा है कि नोटबंदी और जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के बाद आतंकवाद की कमर टूट गई है।
सबसे खतरनाक बात तो यह है कि देश में युद्धोन्माद फैलाने के मकसद से कुछ चैनलों पर भारतीय सेना की संभावित रणनीतियों और पाकिस्तान की संभावित चालों पर भी खुली बहस हो रही है। जिस जानकारी तक दुश्मन देश को पहुंचने में समय लगता है, उसे टीवी चैनलों के स्टूडियो से मुफ्त में परोसा जा रहा है। सवाल है कि ऐसे चैनलों को राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े पहलुओं को सार्वजनिक चर्चा का हिस्सा बनाने की इजाजत किसने दी है? राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम और ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट भी इस सिद्धांत को मजबूती से स्थापित करते हैं कि किसी भी परिस्थिति में संवेदनशील सूचनाएं सार्वजनिक नहीं की जा सकतीं। हालांकि केंद्र सरकार की ओर से मीडिया के लिए एक एडवाइज़री जारी की गई है, लेकिन लगता नहीं है कि सरकार में बैठे राष्ट्रवाद और देशभक्ति के झंडाबरदार भी उस एडवाइज़री को लेकर गंभीर हैं।
कुछ टीवी चैनल तो टीआरपी बटोरने की अंधी दौड़ में इस कदर बदहवास हो चुके हैं कि देश के पूर्व सैन्य अधिकारियों को नाटकीय तौर पर भारतीय और पाकिस्तानी खेमों में बांटकर काल्पनिक युद्ध में भिड़ाने का तमाशा भी करवा रहे हैं। यह सिर्फ पत्रकारिता का ही पतन नहीं है बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के बुनियादी सिद्धांत की भी आपराधिक अनदेखी है। कोई भी सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी इस तरह टीवी कैमरों के सामने बैठकर ऐसे आपराधिक तमाशे का हिस्सा कैसे बन सकता है? कहने की आवश्यकता नहीं कि इन टीवी चैनलों ने राष्ट्र की सुरक्षा को लोगों के मनोरंजन और अपने धंधे का साधन बना लिया है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


