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लद्दाख को बचाने की कोशिश

लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा और संविधान की छठी अनुसूची लागू करने की मांग को लेकर देश के जाने-माने पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक पिछले दो हफ्तों से अनशन पर बैठे हैं

लद्दाख को बचाने की कोशिश
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लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा और संविधान की छठी अनुसूची लागू करने की मांग को लेकर देश के जाने-माने पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक पिछले दो हफ्तों से अनशन पर बैठे हैं। 21 दिन के उनके अनशन में 14 दिन पूरे हो चुके हैं, लेकिन अब तक केंद्र सरकार से ऐसी कोई पहल नहीं दिखाई दे रही है कि वह इस अनशन को तुड़वाने का प्रयास करे। छह मार्च को शून्य से नीचे के तापमान में सोनम वांगचुक ने लेह के नवांग दोरजे मेमोरियल पार्क खुले मैदान में अनशन की शुरुआत की और इस समय क़रीब दो हज़ार लोग उनके समर्थन में प्रदर्शन कर रहे हैं। श्री वांगचुक रोजाना अपनी बात सोशल मीडिया के जरिए रख भी रहे हैं. लेकिन ऐसा लग रहा है कि लद्दाख से दिल्ली की दूरी इतनी बढ़ चुकी है कि वहां की आवाज केंद्र सरकार तक पहुंच ही नहीं रही। अपने हक के लिए उठती आवाज़ों को अनसुना करना इस सरकार की पुरानी आदत है। गंगा बचाने के लिए अनशन करने वाले प्रो. जी डी अग्रवाल की आवाज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नहीं सुनी, उन्हें किसानों की आवाज भी सुनाई नहीं दी और अब अनसुनी करने का सिलसिला लद्दाख में भी देखा जा रहा है।

सोनम वांगचुक के साथ-साथ अपेक्स बॉडी लेह (एबीएल) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायन्स (केडीए) जैसे संगठन भी चार मांगों को लेकर अपना आंदोलन चला रहे हैं। इनमें संविधान की छठी अनुसूची के अलावा पूर्ण राज्य की मांग, लद्दाख में एक और संसदीय सीट को बढ़ाना और पब्लिक सर्विस कमीशन को लद्दाख में क़ायम करना शामिल है। इससे पहले तीन फरवरी को लेह में छठी अनुसूची को लागू करने की मांग को लेकर कड़ाके की ठण्ड में एक बड़ा प्रदर्शन हुआ था, जिसमें हज़ारों लोगों ने भाग लेकर केंद्र सरकार के खिलाफ अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की थी और बंद का आह्वान किया था। जिसके बाद भाजपा सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति बातचीत के लिए गठित की। 19 से लेकर 23 फ़रवरी तक चर्चा का दौर चला, फिर चार मार्च को एक बार फिर बातचीत हुई, लेकिन कोई सहमति नहीं बन पाई और अब 6 मार्च से लद्दाख की पूरी उपेक्षा केंद्र सरकार कर रही है।

लद्दाख में जो मांगें उठाई जा रही हैं, उन्हें सुना जाना और उनका निराकरण करना बेहद जरूरी है, क्योंकि सवाल लोगों के जीवन और आजीविका का है। केंद्र शासित प्रदेश बनने से पहले लद्दाख के लोग जम्मू-कश्मीर पब्लिक सर्विस कमीशन में गैज़ेटेड पदों के लिए आवेदन कर सकते थे, लेकिन अब ये सिलसिला बंद हो गया है, जिसको लेकर लद्दाख के युवाओं में गुस्सा है। इसी तरह छठी अनुसूची में शामिल करना इसलिए जरूरी है ताकि लद्दाख की जनजातीय संस्कृति और पर्यावरण को बचाया जा सके। इन सबके अलावा एक अहम पहलू यह भी है कि लद्दाख सीमांत राज्य है और सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील है। राहुल गांधी ने जब इस राज्य की यात्रा की थी, तो स्थानीय लोगों ने बताया था कि किस तरह चीन यहां घुसपैठ कर रहा है। लेकिन केंद्र सरकार न चीन के जमीन हड़पने के सच को स्वीकार कर रही है, न यहां के लोगों की बात सुन रही है।

साल 2019 के अपने चुनावी घोषणापत्र में और बीते वर्ष लद्दाख हिल काउंसिल चुनाव में भी भाजपा ने लद्दाख को राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची में शामिल करने का वादा किया था। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म करने का श्रेय लेने वाली और रामलला को उनका घर दिलाने का दंभ भरने वाली भाजपा लद्दाख के मसले पर मौन है कि यहां के लोगों से जो वादे उसने किए थे, उन्हें पूरा क्यों नहीं कर रही है। पूर्ण राज्य का दर्जा या छठी अनुसूची में शामिल करने के फैसले कठिन नहीं हैं, लेकिन भाजपा शायद किसी दबाव में इन मांगों को पूरा नहीं कर रही है।

गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 244 की छठी अनुसूची जनजातीय क्षेत्र के लोगों और संस्कृतियों को सुरक्षा प्रदान करता है। इन स्थानों को दूसरों के हस्तक्षेप के बिना कैसे विकसित किया जाना चाहिए, इसे तय करने का हक भी स्थानीय लोगों को मिलता है। छठी अनुसूची के कारण ही असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम में जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन है और लद्दाख के लोग भी अपने लिए यही मांग कर रहे हैं ताकि लद्दाख की पर्यावरण और संस्कृति की विरासत को बचा कर रख सकें।

सोनम वांगचुक ने कहा है कि, 'छठी अनुसूची के बगैर तो यहां होटेल्स का जाल बिछ जाएगा। लाखों लोग यहां आएंगे और जिस तहज़ीब को हम सालों से बचाते आ रहे हैं उसके खोने का खतरा पैदा हो जाएगा।Ó श्री वांगचुक की यह चिंता वाजिब है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में विकास के नाम पर पर्यावरण को तहस-नहस करने के अनेक काम हुए हैं। उत्तराखंड में चारधाम परियोजना के तहत बन रही सड़कों और सुरंगों से वहां जोशीमठ और सिलक्यारा सुरंग जैसे हादसे सामने आ चुके हैं। छत्तीसगढ़ में हसदेव के जंगलों को काटा जा रहा है, मुंबई में आरे जंगल में हजारों पेड़ काट दिए गए। अंडमान-निकोबार में विकास के नाम पर ऐसी ही विनाशलीला की जा चुकी है और अगर उद्योगपतियों के इस लालच को रोका नहीं गया तो कुछ ही बरसों में लद्दाख भी धूल और धुएं से लिपटा नजर आ सकता है।

सत्ता और पूंजी का एक भयानक खेल देश में चल रहा है। जिसका खुलासा चुनावी बॉंड में भी हुआ है। इसमें कई सुनी-अनसुनी कंपनियों ने हजारों करोड़ों के चंदे राजनैतिक दलों को बॉन्ड खरीद कर दिए हैं। लेकिन इसमें ध्यान देने वाली बात यह है कि बॉन्ड खरीदने वाली कई कंपनियां खनन, सड़क या अन्य सार्वजनिक से जुड़ी हुई हैं। राजनैतिक दलों को चंदा देने के बदले इन्हें करोड़ों की परियोजनाओं का ठेका मिला और साथ ही जल, जंगल, जमीन के अंधाधुंध दोहन की छूट भी। राजनैतिक दलों से लेकर कारोबारियों को मुनाफा कमाने का मौका मिला, लेकिन सदियों से प्रकृति की रक्षा करने वाले जनजातीय तबके को शोषण का चाबुक खाना पड़ा। सोनम वांगचुक और लद्दाख के तमाम लोग इस चाबुक को ही रोकना चाह रहे हैं।


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