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खबरों की पुष्टि के लिए भरोसेमंद समाचार पत्र

फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स ऐप जैसे सोशल मीडिया के आने से जहां सूचनाओं का आदान-प्रदान बेहद आसान हो गया है

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नई दिल्ली। फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स ऐप जैसे सोशल मीडिया के आने से जहां सूचनाओं का आदान-प्रदान बेहद आसान हो गया है। वहीं, झूठी, उकसाऊ और भ्रामक खबरों की भी भरमार हो रही है। इसके चलते बीते दिनों उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक दंगों से लेकर जम्मू कश्मीर में बुरहान वानी के जनाजे के दौरान उमड़ी भीड़ द्वारा हिंसा, प्रदर्शन और पत्थरबाजी जैसी घटनाएं भी देखी गईं।

परिणामस्वरूप सैकड़ों लोगों को जानमाल का भारी नुकसान उठाना पड़ा। उक्त बातें इंदिरा गांधी राष्टï्रीय कला केंद्र नई दिल्ली में आयोजित परिचर्चा के दौरान सामने आईं। जिसका आयोजन जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र और दिल्ली पत्रकार संघ के तत्वावधान में सोमवार को किया गया।

जम्मू-कश्मीर और मीडिया मिथक एंव यथार्थ विषय पर आयोजित चर्चा के दौरान वक्ताओं ने कहा कि, खबरों की पुष्टि के लिए समाचार पत्रों की विश्वसनीयता आज भी कायम है लेकिन जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में हिंसा और अलगाव की आग भड़काने में जुटी देश विरोधी ताकतों ने प्रिंट मीडिया को ही अपना हथियार बना लिया है। घाटी से प्रकाशित करीब 150 से ज्यादा पत्र-पत्रिकाएं कश्मीरी अलगाववादियों का मोहरा बन रही हैं। वे लोग स्थानीय मीडिया के जरिए अपना तयशुदा एजेंडा चला रहे हैं जिसे मेनस्ट्रीम मीडिया (नेशनल मीडिया) भी हाथों हाथ ले लेता है। नतीजतन कश्मीर की आजादी और सेना की ज्यादती जैसी खबरों को प्रमुखता मिल जाती है।

जबकि स्थानीय समस्याएं और अन्य मुद्दे दबे रह जाते हैं। उन्होंने कहा कि जब सोशल मीडिया (फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स ऐप) की निगरानी की गई तो पता चला कि ऐसे तमाम भ्रामक अभियानों के पीछे 100 प्रतिशत पाकिस्तानी टीम काम रही हैं। इनमें विदेशों में बसे पाकिस्तानी भी शामिल हैं। इस दौरान आईजीएनसीए के सच्चिदानंद जोशी, डीजेए के अध्यक्ष मनोहर सिंह, महासचिव प्रमोद सैनी, आशुतोष भटनागर, आभा खन्ना, अरविन्द सिंह आदि ने अपने विचार प्रकट किए। अरविन्द सिंह के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में आतंकियों के खिलाफ जारी सेना की कार्रवाई को व्हाट्स एप और फेसबुक पर इस्लाम विरोधी गतिविधि कहकर प्रोपेगंडा किया जा रहा है। सकारात्मक खबरों को भी कश्मीर विरोधी बताकर लोगों को उकसाया जा रहा है। इसके लिए सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि घाटी के तमाम लोग किसी न किसी व्हाट्स एप ग्रुप से जुड़े हैं जिनकी संख्या करीब एक हजार के आस-पास है।

इनमें ऐसा कोई ग्रुप नहीं है जिसमें पाकिस्तानी एडमिन ना हो। ये लोग पाकिस्तानी सेना के इशारे पर पहले भारत विरोधी भावनाओं को उभारते हैं और फिर उन्हें हिंसा, प्रदर्शन एंव पत्थरबाजी के लिए उकसाते हैं। इस काम के लिए उन्हें अच्छी खासी रकम भी दी जाती है। व्हाट्स एप ग्रुप के तमाम एडमिन को ग्रुप चलाने से पहले दो -दो महीने की वर्कशॉप में प्रशिक्षण दिया जाता है। एक ग्रुप में 40 से ज्यादा लोग प्रोपेगंडा करते हैं। यह प्रशिक्षण कैंब्रिज, हार्वर्ड और प्रिंसटन जैसे विदेशी शहरों में भी दिया जा रहा है जहां कई विदेशी एडमिन भी पाकिस्तानी प्रचार अभियान चला रहे हैं। परिचर्चा दौरान मनोहर सिंह ने कहा कि सीएजी की रिपोर्ट में पूरे देश में सरकारी खर्च का लेखा जोखा पेश किया जाता है जिसमें जम्मू कश्मीर सरकार द्वारा बीते 10 सालों से उपयोग प्रमाण पत्र (यूटीलाइजेशन सर्टिफिकेट) नहीं दिए जाने की सूचना भी शामिल है लेकिन मीडिया ने जम्मू कश्मीर सरकार से इस बारे में अबतक सवाल नहीं किया है। राज्य सरकार को इस प्रमाण पत्र में केंद्र सरकार द्वारा दी गई राशि के खर्च का सिलसिलेवार ब्यौरा देना पड़ता है। कितना पैसा विकास कार्यों पर खर्च किया गया और कितना पैसा जनकल्याणकारी योजनाओं में लगाया गया। इससे अनुदान राशि खर्च के दौरान गड़बड़ी होने की आशंकाओं को बल मिलता है।

वहीं, आभा खन्ना ने कहा कि अक्सर लोग जब जम्मू-कश्मीर से संबंधित समस्याओं पर बात करते हैं तो वे सिर्फ कश्मीर का ही जिक्र करते हैं जबकि यह राज्य कश्मीर, जम्मू और लद्दाख को मिलाकर बनाया गया है। अगर क्षेत्रफल की बात करें तो कश्मीर इसका महज 15 प्रतिशत हिस्सा हैं और शेष 85 प्रतिशत भूभाग पर जम्मू और लद्दाख फैले हैं। आबादी के हिसाब से भी देखा जाए तो जम्मू-कश्मीर की आबादी करीब एक करोड़ 30 लाख है। इनमें से करीब 60 लाख लोग कश्मीर में बसते हैं। लिहाजा समस्याओं के बाबत सिर्फ कश्मीर की बात किया जाना न्यायोचित नहीं है।


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