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भरोसे का चुनाव : मतपत्रों के मुकाबले मशीन?

'ईवीएम' को हटाने के खिलाफ अंतिम तर्क होता है, खर्च हुए पैसे का। यह भी खोखला तर्क ही है

भरोसे का चुनाव : मतपत्रों के मुकाबले मशीन?
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- डॉ. संदीप पाण्डेय

'ईवीएम' को हटाने के खिलाफ अंतिम तर्क होता है, खर्च हुए पैसे का। यह भी खोखला तर्क ही है। यह ठीक है कि 'ईवीएम' व 'वीवीपीएटी' के निर्माण में बहुत पैसा खर्च हो चुका है, किंतु तब दक्षिण अफ्रीका को लगा कि नाभिकीय शस्त्र उसके किसी काम के नहीं हैं तो उसने अपने छह नाभिकीय शस्त्र खत्म कर दिए। अब 'ईवीएम' पर खर्च किया गया पैसा नाभिकीय शस्त्र की कीमत से ज्यादा तो नहीं होगा?

सर्वोच्च न्यायालय ने हाल के अपने फैसले में 'ईवीएम' (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) व 'वीवीपीएटी' (वोटर वेरीफायेबल पेपर ऑडिट ट्रेल) से ही चुनाव कराते रहने को जायज ठहराते हुए मतपत्र के विकल्प पर वापस जाने के सुझाव को सिरे से खारिज कर दिया है। उनका मूल तर्क यह है कि प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के कई फायदे हैं, जैसे - फर्जी मतदान पर रोक, मानवीय त्रुटि की गुंजाइश खत्म करना व जल्दी मतगणना हो जाना आदि। अदालत के मुताबिक प्रौद्योगिकी का ही इस्तेमाल कर इस व्यवस्था को और मजबूत बनाना चाहिए, जैसे –'वीवीपीएटी' की पर्ची में 'बार कोड' डालकर पर्चियों की यांत्रिक मतगणना आदि।

सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि बढ़ता मतदान प्रतिशत लोगों की 'ईवीएम' में आस्था का प्रतीक है, हालांकि इस तर्क का कोई आधार नहीं है। देश के आम लोगों को सरकारी व्यवस्था में काम कराने के लिए घूस देनी पड़ती है, यहां तक कि न्यायालयों में भी अगली तारीख लेने के लिए मुंशी को पैसे देने पड़ते हैं। तो क्या हम मानेंगे कि आम लोगों का इस व्यवस्था में भरोसा है? असल में लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है। इसी तरह यदि हम उन्हें मतपत्र का विकल्प न देकर मतदान के लिए प्रेरित करें और वे 'ईवीएम' के माध्यम से मजबूरी में मतदान करें तो क्या यह मानना चाहिए कि लोगों की 'ईवीएम' में आस्था है?

निर्वाचन आयोग के अनुसार अभी तक 25 ऐसी शिकायतें प्राप्त हुईं हैं जिनमें जिस चिन्ह पर बटन दबाया गया वह नहीं दिखाई पड़ा, किंतु ये सारी शिकायतें झूठी पाई गईं। शिकायत झूठी पाई जाने पर मतदाता के खिलाफ कार्रवाई भी हो सकती है। अब दिक्कत यह है कि शिकायतकर्ता के पास कोई सबूत तो है नहीं कि उन्होंने क्या बटन दबाया था और कौन सा चिन्ह दिखाई पड़ा, तो वे अपना दावा कैसे मजबूती से रख सकते हैं? अपने खिलाफ कार्रवाई के डर से लोग शिकायत करने से भी बचते हैं।

'ईवीएम' के तीन हिस्से हैंृ कंट्रोल-इकाई, बैलट-इकाई व 'वीवीपीएटी।' इन सभी में माइक्रो कंट्रोलर लगे हैं। चूंकि यह मालूम नहीं होता कि कौन सी मशीन कहां जाएगी और जिले तक पहुंचने के बाद ये स्ट्रांग-रूम में रखी जाती हैं इसलिए उम्मीदवारों की अंतिम सूची तय होने से पहले मशीनों में कोई हेरा-फेरी की गुंजाइश कम है। चुनाव को जब पंद्रह दिन रह जाते हैं तब 'इलेक्ट्रॉनिक कॉर्पोरेशन ऑफ इण्डिया लिमिटेड' या 'भारत इलेक्ट्रॉनिक लिमिटेड,' जो मशीन के निर्माता हैं, से एक इंजीनियर आता है जो उम्मीदवारों की अंतिम सूची के अनुसार उनके चिन्ह एक लैपटॉप कम्प्यूटर और 'सिम्बल लोडिंग इकाई' के माध्यम से 'वीवीपीएटी' में डालता है।

बैलेट-इकाई में तो उम्मीदवारों के नाम व चिन्ह हाथ से मशीन के ऊपर चिपकाए जाते हैं। कंट्रोल-इकाई व बैलेट-इकाई, जिनमें बनाए जाने के समय प्रोग्राम डाला जाता है, को नहीं मालूम रहता कि किस स्थान पर कौन सा चिन्ह है, किंतु चुनाव से तुरंत पहले 'वीवीपीएटी' में 'सिम्बल लोडिंग इकाई' के माध्यम से चिन्ह डाले जाते हैं इसलिए यहां कुछ खुराफात की गुंजाइश बनती है। 'सिम्बल लोड्रिग इकाई' से जो 'बिटमैप फाइल' 'वीवीपीएटी' में डाली जाती है उसमें कुछ हेरा-फेरी करने के संदेश दिए जा सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने इस बात को नजरअंदाज कर दिया है।

यह समझने के लिए 'आईआईटी-दिल्ली' व अमेरिका से प्रशिक्षित इंजीनियर राहुल मेहता द्वारा बनाए गए 'ईवीएम' के एक नमूने को देखना होगा। इसमें विपक्षी दलों के चिन्हों को, काले शीशे की आड़ में, जिताने वाले चिन्ह में परिवर्तित कर दिया जाता है। इस मशीन का प्रोग्राम इसी तरह लिखा गया है। हालांकि यह नहीं कहा जा रहा कि 'निर्वाचन आयोग' की मशीन में भी यही किया जा रहा होगा, किंतु वह अपनी मशीन, कीमत अदा करने पर भी, देने को तैयार नहीं है। 'निर्वाचन आयोग' मशीन के अंदर 'लिखे' गए प्रोग्राम, जिसे 'सोर्स कोड' कहते हैं, को किसी से साझा करने को तैयार नहीं है और सर्वोच्च न्यायालय ने भी उसकी इस भूमिका का समर्थन किया है।

गनीमत है कि सर्वोच्च न्यायालय ने कम-से-कम 'सिम्बल लोडिंग इकाई' को भी, कंट्रोल-इकाई, बैलेट-इकाई व 'वीवीपीएटी' की तरह, चुनाव के 45 दिनों बाद तक स्ट्रांग-रूम में रखने का आदेश दिया है। उन्होंने सबसे ज्यादा मत पाने वाले दूसरे और तीसरे उम्मीवारों को यह अधिकार भी दिया है कि यदि उन्हें चुनाव परिणाम पर आपत्ति हो तो वे अपने खर्च पर मशीन के सॉफ्टवेयर की जांच की मांग कर सकते हैं। इससे कम-से-कम प्रोग्राम में हेरा-फेरी करने के प्रयासों पर कुछ तो अंकुश लगेगा।

'ईवीएम' को हटाने के खिलाफ अंतिम तर्क होता है, खर्च हुए पैसे का। यह भी खोखला तर्क ही है। यह ठीक है कि 'ईवीएम' व 'वीवीपीएटी' के निर्माण में बहुत पैसा खर्च हो चुका है, किंतु तब दक्षिण अफ्रीका को लगा कि नाभिकीय शस्त्र उसके किसी काम के नहीं हैं तो उसने अपने छह नाभिकीय शस्त्र खत्म कर दिए। अब 'ईवीएम' पर खर्च किया गया पैसा नाभिकीय शस्त्र की कीमत से ज्यादा तो नहीं होगा?

'ईवीएम' के प्रति गहरे असंतोष को देखते हुए बेहतर है, हम मतपत्र की व्यवस्था पर वापस जाएं। जब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने कहा कि हम मतपत्र की ओर वापस लौटने पर विचार भी नहीं कर सकते तो उनके दिमाग में यह बात नहीं रही होगी। चण्डीगढ़ के महापौर के चुनाव में हमने देखा किस तरह मतपत्र में की जा रही गड़बड़ी को कैमरे के माध्यम से पकड़ लिया गया। यदि यही गड़बड़ी प्रोग्राम के माध्यम से 'ईवीएम'- 'वीवीपीएटी' में की जा रही होती तो कैमरे में पकड़ में नहीं आती और न ही वहां मौजूद अधिकारी पकड़ पाते। निर्वाचन अधिकारी व पर्यवेक्षक की जानकारी के बिना भी 'ईवीएम' - 'वीवीपीएटी' में हेरा-फेरी की सम्भावना है इसलिए अधिकारी वर्ग जो खुलकर इस व्यवस्था का पक्ष लेता है, वह अज्ञानता में ऐसा करता है।
(लेखक वैज्ञानिक,समाजकर्मी एवं लेखक हैं।)


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