संवादहीनता का परिणाम है ट्रक हड़ताल
वर्ष 2024 का आगाज़ बसों व ट्रकों की जिस तीन दिवसीय राष्ट्रव्यापी हड़ताल के साथ हुआ है

वर्ष 2024 का आगाज़ बसों व ट्रकों की जिस तीन दिवसीय राष्ट्रव्यापी हड़ताल के साथ हुआ है, वह केन्द्र सरकार की प्रशासकीय अक्षमता, निरंकुशता और संवादहीनता का नया उदाहरण है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार मनमाने ढंग से कानून बनाने के लिये जानी जाती है। यह उसी परम्परा के निर्वाह का प्रतिफल है जिसके अंतर्गत संसद के हाल ही में समाप्त हुए सत्र में मोदी सरकार ने सड़क कानून में संशोधन कर 'हिट एंड रन' मामले में सजा व जुर्माना इतना ज्यादा कर दिया है कि कोई भी ड्राइवर वाहन चलाने से घबरायेगा। इसके फलस्वरूप देश भर के 30 लाख बसों व ट्रकों के पहिये थम गये हैं। किसी वाहन चालक द्वारा कोई दुर्घटना होती है और यदि वह घटनास्थल से फरार हो जाता है तथा पुलिस को सूचना नहीं देता, तो संशोधित कानून के अंतर्गत उसे 10 वर्ष तक की जेल की सजा होगी और सात लाख रुपये का जुर्माना भरना पड़ सकता है। अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 279 (लापरवाहीपूर्ण वाहन चलाना), 304ए (लापरवाही के कारण मौत) और 338 (जान जोखिम में डालना) के तहत अब तक इसमें दो साल की सजा का प्रावधान था। तीन कानून लाकर इसकी सजा की मियाद तो बढ़ा ही दी गई, जुर्माना भी भारी-भरकम कर दिया गया है।
ऑल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट कांग्रेस द्वारा इन कानूनों पर पुनर्विचार की मांग को लेकर की गई इस हड़ताल में देश भर के बस-ट्रक चालक एवं ट्रांसपोर्टर शामिल हुए जिसका असर देश भर में देखा गया। कई शहरों में पेट्रोल पम्प खाली हो गये। यही हाल रहा तो मंगलवार से ज़रूरी वस्तुओं की सप्लाई एवं उपलब्धता पर विपरीत असर पड़ना शुरू हो सकता है। जहां तक हड़ताली चालकों-परिवहन संचालकों का सवाल है वे मानते हैं कि इन कानूनों के चलते उनका सड़कों पर वाहन निकालना तक मुश्किल हो जायेगा। नये कानूनों में जैसे कठोर प्रावधान किये गये हैं, उससे कोई भी ड्राइवर वाहन चलाने से हिचकिचायेगा।
जो भी भारत की सड़कों एवं यातायात व्यवस्था की वस्तुस्थिति से वाकिफ है, वह जानता है कि सड़कों पर पूरी तरह से अराजकता का मंज़र उपस्थित रहता है। कानून बनाते समय इस बात पर विचार तक नहीं किया गया कि किस तरह से हर रास्ते और मोड़ पर राहगीरों से लेकर वाहन चालकों तक के लिये खतरों की स्थिति होती है। सड़क पर अनुशासन के नाम पर लगभग शून्य होने के कारण देश में हर वक्त दुर्घटनाएं होती रहती हैं। आंकड़े भी बताते हैं कि भारत उन देशों में से एक है जिनमें सर्वाधिक हादसे होते हैं।
लाखों लोग हर रोज सड़कों पर मारे जाते हैं और उनसे कई गुना ज्यादा घायल होते हैं। अक्सर यह भी देखा जाता है कि हादसे में दोषी का निर्धारण वाहन के आकार के अनुसार होता है। पैदल चलते को स्कूटी-मोटर साइकल टक्कर मारे तो बाइक सवार दोषी होता है। ऐसे ही, बाइक व कार के बीच टक्कर हो तो कार वाला और कार से ट्रक-बस की भिड़ंत हो तो ट्रक चालक का दोष होता है। ऐसे मामले अक्सर रोड रेज़ का स्वरूप धारण कर लेते हैं। वाहन चालक से मारपीट करना, बसों-ट्रकों की तोड़-फोड़, उन्हें जला देना आम है। सैद्धांतिक रूप से चाहे गलत हो परन्तु व्यवहारिक रूप से चालकों को यही सही लगता है कि वाहन छोड़कर या उसे लेकर घटना स्थल से किसी भी तरह से निकल जाये। उन्हें अपने प्राणों की भलाई इसी में नज़र आती है। देश में कई बार ड्राइवरों को गुस्साई जनता मार भी देती है।
जहां तक थानों को सूचित करने की बात है, तो इसमें प्रत्यक्षदर्शी तक गवाह बनने से इंकार कर देते हैं क्योंकि उनके साथ पुलिस वाले कोई अच्छा सलूक नहीं करते। फिर दोषियों की कौन कहे? वे अगर बचकर निकलने की स्थिति में रहते हैं तो उनकी पहली कोशिश यही होती है कि वे खुद को और अपने वाहन को जनता के हाथों से बचा लें। जो लोग स्वेच्छा से पुलिस की मदद करना चाहते हैं, उन्हें डर रहता है कि हादसे को लेकर उन्हें ही प्रताड़ित किया जा सकता है। पुलिस की यह छवि गलत भी नहीं है। कोर्ट के आदेशों के बाद भी लोग सहायता के लिये सामने नहीं आते। उन्हें यह भी लगता है कि मामले की जांच-सुनवाई के दौरान उन्हें बार-बार थाने या कोर्ट में आते रहना पड़ेगा। आज के जमाने में कोई भी इतनी ज़हमत नहीं उठाना चाहता।
इसके बावजूद अगर सरकार स्थिति में सुधार लाना चाहती है, जिसकी ज़रूरत भी है, तो उसे व्यवहारिक कदम उठाने चाहिये; और इसके लिये उसे विशेषज्ञों एवं इस क्षेत्र में कार्यरत लोगों से विचार-विमर्श करना चाहिये। परिवहन क्षेत्र में कार्य कर रहे संगठनों से उसे संवाद कायम करना चाहिये। हालांकि बात-बात में विरोधी विचारधारा वाले सांसदों को निष्कासित करने वाली सरकार से यह उम्मीद नहीं की जा सकती, परन्तु सरकार चलाने का तरीका यही है। सम्बन्धित पक्ष तो दूर, सांसदों तक से विचार-विमर्श किये बगैर काननू बना देना इस सरकार की फ़ितरत में शामिल है।
सरकार में बैठे प्रमुख लोगों को यह गलतफहमी है कि वे हर विषय के विशेषज्ञ हैं और उन्हें सभी लोगों से अधिक ज्ञान है। इसलिये वे किसी से बात करना पसंद नहीं करते। किसी की सलाह लेना वे अपनी तौहीन मानते हैं। नोटबन्दी हो या जीएसटी कानून, अनुच्छेद 370 को हटाना हो या तीन तलाक की समाप्ति, कृषि कानून लाना हो या दूरससंचार कानून, नागरिकता कानून हो या एनसीआर- सारे ही सरकार द्वारा सम्बन्धित पक्षों से चर्चा किये बिना लाये गये। परिणाम सबके सामने है। ट्रांसपोर्ट हड़ताल भी इसका नतीजा है।


