पर्यावरण रक्षक है वृक्ष खेती
वृक्षों की जल संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका है। वृक्षों के कारण बारिश की सीधी मार जमीन पर नहीं पड़ती

- बाबा मायाराम
वृक्षों की जल संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका है। वृक्षों के कारण बारिश की सीधी मार जमीन पर नहीं पड़ती। कुछ बारिश की बूंदें पत्तियों पर ही ठहर जाती हैं। हवा के हल्के झोकों के साथ बूंदें धीरे-धीरे नीचे जाकर भूजल में तब्दील हो जाती हैं। वृक्षों के नीचे केंचुए सक्रिय होते हैं, वे जमीन को हवादार व पोला बनाते हैं। इस कारण वर्षा जल अधिक मात्रा में भूजल में परिवर्तित होता है। यहां तालाब भी है। जहां पानी और पेड़ होते हैं, वहां पक्षी होते हैं। यहां कई तरह के रंग-बिरंगे पक्षी हैं, जो खेती में सहायक हैं।
इन दिनों जब काफी तेज गर्मी पड़ रही है, तापमान बढ़ रहा है, तब पेड़ों की बहुत याद आती है। लेकिन अब पेड़ ही कम बचे हैं, लगातार कटते जा रहे हैं। लेकिन मैं आज के स्तंभ में ऐसी पहल के बारे में बताने जा रहा हूं, जिन्होंने पेड़ लगाने और बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
छुटपन में हम देखते थे कि गांवों में और उसके आसपास कई तरह के पेड़ हुआ करते थे। आम, नीम, इमली, बरगद, पीपल, बबूल, कटहल के पेड़ होते थे। इनकी गहरी छाया होती थी, और मौसमी फल खाने को मिलते थे। कुछ पेड़ों से अच्छी लकड़ियां मिलती थीं। ईंधन, चारा और औषधियों में भी इनका उपयोग किया जाता था। मिट्टी-पानी के संवर्धन में भी इनका विशेष योगदान होता था। ऑक्सीजन के लिए भी पेड़ महत्वपूर्ण हैं।
कुछ समय पहले मेरा महाराष्ट्र जाना हुआ। वहां अमरावती जिले के रवाला गांव में बसंत फुटाणे के खेतों को देखने का मौका मिला। वे एक गांधीवादी किसान कार्यकर्ता हैं, और प्राकृतिक खेती करते हैं। उनके खेत में कई तरह के पेड़ हैं। इनमें से कुछ कुदरती तौर पर उगे हैं, और कुछ का उन्होंने रोपण किया है। खेत में ही लकड़ी और मिट्टी का घर भी बनाया है।
वहां मेरा स्वागत अम्बाड़ी के शरबत से किया गया। इसके बाद, मैंने बसंत फुटाणे के बड़े बेटे विनय के साथ खेत का एक चक्कर लगाया। कुछ दूर चलने पर हम आम के बगीचे में पहुंचे। अमरूद तोड़कर खाया और नींबू भी चखा।
उनके खेत में आम के 350 पेड़ हैं। इसमें कई देसी किस्में हैं। इसके अलावा, संतरा के 500 पेड़ हैं। आंवला, रीठा, बेर, भिलावा, महुआ, दक्खन इमली, तेंदू, अगस्त, अमलतास, मुनगा/शहजन, कचनार, चीकू, अमरूद, जामुन, सीताफल, करौंदा, पपीता, बेल, कैथ, इमली, रोहन, नींबू, नीम, महुआ इत्यादि के फलदार व छायादार पेड़ हैं।
बसंत फुटाणे ने बताया कि साल 1983 में खेती की शुरूआत की। उनके परिवार की 30 एकड़ जमीन है, इसमें आधी जमीन कुओं के पानी से सिंचित है। इसमें एक 6 एकड़ के टुकड़े की जमीन सूखी व बंजर थी।
वे आगे बताते हैं कि 'जब हमने विषमुक्त और बिना प्रकृति के साथ छेड़छाड़ वाली प्राकृतिक खेती की शुरूआत की, उस समय रासायनिक खाद की कीमतें बढ़ रही थीं। इससे खेती में व्यापारियों और कंपनियों की लूट बढ़ रही थी। विदर्भ के खेतों की मिट्टी की उर्वरता घट रही थी, भूजल का संकट बढ़ रहा है, भोजन व पानी जहरीला हो रहा है, किसानों की स्थिति बिगड़ रही थी।'
उन्होंने बताया कि 'इस सबके मद्देनजर हमने कम जुताई वाली अनाज की खेती और वृक्ष खेती की शुरूआत की और मिट्टी व जल प्रबंधन पर जोर दिया। प्राकृतिक खेती में बिना जुताई, बिना रासायनिक खाद, बिना कीट-नाशी के खेती की जाती है। मिट्टी प्रबंधन के लिए हरी खाद, जैविक पदार्थ, कंटूर बंडिंग, कंटूर बुआई, केंचुआ खाद का इस्तेमाल किया। '
वृक्षों की जल संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका है। वृक्षों के कारण बारिश की सीधी मार जमीन पर नहीं पड़ती। कुछ बारिश की बूंदें पत्तियों पर ही ठहर जाती हैं। हवा के हल्के झोकों के साथ बूंदें धीरे-धीरे नीचे जाकर भूजल में तब्दील हो जाती हैं। वृक्षों के नीचे केंचुए सक्रिय होते हैं, वे जमीन को हवादार व पोला बनाते हैं। इस कारण वर्षा जल अधिक मात्रा में भूजल में परिवर्तित होता है।
यहां तालाब भी है। जहां पानी और पेड़ होते हैं, वहां पक्षी होते हैं। यहां कई तरह के रंग-बिरंगे पक्षी हैं, जो खेती में सहायक हैं। वे परागीकरण में मदद तो करते ही हैं, कीट नियंत्रण करते हैं, खरपतवार नियंत्रण करते हैं। पूरे भू दृश्य को सुंदर व जीवंत बनाते हैं। जैव विविधता व पर्यावरण का संरक्षण व संवर्धन करते हैं। गोरैया, तोता, बसंता, भारद्वाज जैसे कई पक्षी हैं।
बसंत भाई कहते हैं कि 'आम ऐसा फलदार पेड़ हैं, जिससे पूर्ण आहार मिलता है। चाहे सूखा हो या अकाल, पेड़ों से फल मिलते ही हैं। उनकी जड़ें गहरी होती हैं जो धरती की गहरी परतों से पोषक तत्व और नमी लेते हैं। हमने अनाज कम व फलदार पेड़ ज्यादा उगाए हैं, जिससे हमारे परिवार की भोजन की जरूरतें पूरी हो सकें। फिर हमारी बंजर व कम उपज वाली जमीन व शुष्क जलवायु वृक्ष खेती के लिए उपयुक्त हैं।
वे कहते हैं यह हमारी अगली पीढ़ियों के लिए उपहार है। यह जीती-जागती सुंदर प्रकृति है, जो फलती-फूलती है, सदाबहार है। ताजा हवा, फल, फूल, छाया, ईंधन, चारा, रेशा, और जड़ी-बूटियां सभी मिलती हैं। पेड़ भूख के साथी होते हैं। और सालों तक साथ देते हैं।
वे आगे बताते हैं कि 'अब हमें भोजन की जरूरतों के लिए बाजार से बहुत कम चीजें खरीदने की जरूरत होती हैं। हम धान, ज्वार, मूंग, उड़द, गेहूं, चना, अलसी, तिल भी बोते हैं, जो साल भर खाने के लिए पर्याप्त हैं। बैंगन, टमाटर, गाजर, मूली, प्याज जैसी मौसमी सब्जियां भी उगाते हैं, जिससे सब्जियां के लिए पूरी तरह बाजार पर निर्भरता नहीं रहती।'
इसी तरह का एक उदाहरण उत्तराखंड के जलधार गांव का है। यह गांव हेंवलघाटी के गढ़वाल जिले में स्थित है। यहां 80 के दशक में पहाड़ों की हरियाली बहुत कम हो गई थी। जंगल में इने-गिने पेड़ ही बचे थे। चारा, पानी और ईँधन की कमी हो गई थी। इससे चिंतित होकर गांव वालों ने पेड़ बचाने व उजड़े जंगल को हरा-भरा करने का संकल्प लिया और इसे कुछ ही सालों में कर दिखाया।
चिपको आंदोलन के कार्यकर्ता रहे विजय जड़धारी बताते हैं कि गांव के लोगों ने मिलकर तय किया कि जंगल को बचाया जाए। इसके लिए एक वन सुरक्षा समिति बनाई गई। जंगल से किसी भी तरह के हरे पेड़, ठूंठ, यहां तक कि कंटीली हरी झाड़ियों को काटने पर रोक लगाई गई। कोई भी व्यक्ति यदि अवैध रूप से हरी टहनी या झाड़ी काटता है तो उस पर जुर्माना लगाया जाएगा, ऐसा तय किया गया। कुछ समय के लिए पशु चरने पर भी रोक लगाई गई। कोई व्यक्ति वनों को किसी प्रकार नुकसान न पहुंचाए, यह सुनिश्चित किया गया।
जड़धार गांव के निवासी विजय जड़धारी ने बताया कि हालांकि यहां वृक्षारोपण व पेड़ लगाने का काम भी प्रतीकात्मक हुआ है, लेकिन वनों को फिर से हरा-भरा करने में महती भूमिका वनों को विश्राम (बंद वन) देने की है। यानी उन्हें उसी हाल में प्रकृति के हवाले छोड़ दिया जाए, जिसमें वह है। सिर्फ उनकी रखवाली की जाए और उसे पनपने दिया जाए, और बढ़ने, पल्लवित-पुष्पित होने दिया जाए। लोग जैसे अपने खेतों की देखभाल करते हैं, उसी तरह जंगल की देखभाल करने लगे। धीरे-धीरे उनकी मेहनत रंग लाने लगी। दो-तीन सालों में ही सूखे जंगलों में फिर से हरियाली लौटने लगी।
वे आगे बताते हैं कि शंकुधारी वृक्ष चीड़, देवदार यदि कट गए तो इनमें दुबारा कल्ले (नई कोंपलें) नहीं आते हैं। जबकि बांज, बुरांस, काफल, अथांर, घिघारू, किनगोड़, खाकसी, बमोर घने होते हैं। और उनमें नए कल्ले आने शुरू हो गए। झाड़ियां आ गईं। जलाऊ लकड़ियां मिलने लगीं। इससे उत्साह बढ़ने लगा।
बांज, बुरास, काफल के पुराने ठूंठों पर फिर नई शाखाएं फूटने लगीं। अंयार, बंमोर, किनगोड हिंसर, साकिना, धौला, सिंस्यारू, खाकसी आदि पेड़-पौधे दिखाई देने लगे। और आज ये पेड़ लहलहा रहे हैं।
दुनिया भर में पेड़ों की महिमा का बखान करता साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इनमें से एक अमरीका के प्रसिद्ध लेखक शेल सिल्वरस्टाइन की मशहूर कहानी 'द गिविंग ट्री' है। इस कहानी में बताया गया है कि हम पेड़ से क्या-क्या चीजें लेते हैं। पत्ते, फूल, फल, छांव, घर, नाव, ऑक्सीजन आदि। फूलों की माला बनाते हैं, पेड़ों की शाखाओं से बच्चे खेलते हैं, झूला झूलते हैं, भूख लगने पर फल तोड़कर खाते हैं, चलते-चलते थकने पर पेड़ों की छांव में सो जाते हैं, और खाना पकाने, घर बनाने के लिए लकड़ी लेते हैं इत्यादि। लेकिन हम बदले में उन्हें क्या देते हैं- केवल काटते हैं और जलाते हैं। यह कहानी दयालु प्रकृति को उजागर करने वाली सदाबहार कहानी है। बुद्ध ने भी उनके शिष्यों को साल में 5 पेड़ लगाने की सलाह दी थी।
कुल मिलाकर, इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि पेड़ों का हमारे जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है। गर्मी तो हर साल आती है, और आएगी, लेकिन उससे बचने के लिए हमने कोई उपाय नहीं किया है। और जो पेड़ हमारे पूर्वजों ने लगाए थे, उन्हें भी हमने काट दिया है। अब हमें नए सिरे से पौधारोपण करना बहुत जरूरी है। कंद-मूल, फल-फूल, चारा, चारा, ईंधन, रेशे, औषधि, प्राणवायु के लिए इनका योगदान तो है ही। साथ ही, जलवायु बदलाव के दौर में कार्बन उत्सर्जन को रोकने में भी इनकी अहम भूमिका है। यह धरती की प्राकृतिक रूप से शोभा भी बढ़ाते हैं।
इन उदाहरणों से साफ स्पष्ट है कि हमें पेड़ लगाना व वृक्ष खेती करना उपयोगी है। बसंत फुटाणे व विजय जड़धारी की पहल यही बताती है। इससे हम न केवल गर्मी से अपने आपको बचाएगे, भूख मिटा सकेंगे, बल्कि मनुष्यों के अलावा, अन्य जीव-जंतुओं की भी रक्षा कर सकेंगे, जैव विविधता व पर्यावरण की रक्षा कर सकेंगे। साथ ही, अगली पीढ़ी के लिए भी पेड़ों के रूप में अच्छा उपहार दे सकेंगे। लेकिन क्या हम सच में इस दिशा में आगे बढ़ने तैयार हैं?


