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न्याय संहिता के अन्याय को परिवहन मजदूरों की चुनौती

मोदी सरकार द्वारा हाल में पारित कराए गए कथित 'नये' अपराध कानूनों में, जिनका औपनिवेशिक कानूनों के 'मुक्ति' के रूप में खूब ढोल पीटा जा रहा है

न्याय संहिता के अन्याय को परिवहन मजदूरों की चुनौती
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- राजेन्द्र शर्मा

अगर सरकार हड़बड़ी में, सड़क दुर्घटना में मौतों के मामले में वाहन चालकों के लिए सजा बढ़ाने जैसे कदमों का सहारा लेती है, तो उससे इस समस्या पर काबू पाने में कोई मदद नहीं मिलने वाली है। सच्चाई यह है कि ड्राइवरों की लापरवाही से भी ज्यादा संख्या में इन मौतों के पीछे सड़कों की डिजाइन से लेकर रख-रखाव, भारी वाहनों के लिए मार्ग-अलगाव, अलग-अलग श्रेणी के वाहनों का अलगाव आदि-आदि की कमजोरियां काम करती हैं।

मोदी सरकार द्वारा हाल में पारित कराए गए कथित 'नये' अपराध कानूनों में, जिनका औपनिवेशिक कानूनों के 'मुक्ति' के रूप में खूब ढोल पीटा जा रहा है, अब मूल नाम हिंदी में रखे जाने के सिवा, नया और औपनिवेशिकता-विरोधी क्या है, इसके लिए दूरबीन से खोजने की जरूरत है। लेकिन, एक चीज जो किसी एक या किन्हीं एक प्रकार के कानूनों के मामले में नहीं बल्कि आम तौर पर इस समूची 'न्याय संहिता' के बारे में ही सच है, वह है नागरिकों के अधिकारों को ज्यादा से ज्यादा घटाने की और सजाओं को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने की प्रवृत्ति, जो औपनिवेशिक राज की परंपरा के बनाए रखे जाने को ही नहीं आगे बढ़ाए जाने को भी दिखाती है।

औपनिवेशिक राज में ऐसी प्रवृत्ति का होना स्वाभाविक है क्योंकि यह प्रवृत्ति शासक और शासित के बीच बुनियादी अंतर्विरोध को दिखाती है। लेकिन, औपनिवेशिक शासन से आजाद हो चुके एक औपचारिक रूप से जनतांत्रिक देश में इस तरह की प्रवृत्ति का आगे बढ़ना, मौजूदा शासन के पूरी तरह से आम नागरिकों की विशाल संख्या के खिलाफ हो जाने को ही दिखाता है। लेकिन, जहां औपनिवेशिक शासन, आम जनता के विरोध के दमन के जरिए, अपने आम जनताविरोधी राज को बनाए रखने की कोशिश करता था, वर्तमान शासन धर्म के नाम पर सांप्रदायिक गोलबंदी के हथियार से, नागरिकों और खासतौर से बहुसंख्यक समुदाय की अपने हित की चेतना को कुंद करने के जरिए, ठीक यही करता नजर आ रहा है।

इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि इस कथित नयी न्याय संहिता के तहत एक 'सख्त' कर दिए गए कानून के खिलाफ परिवहन उद्योग की और खासतौर पर ड्राइवरों की देशव्यापी हड़ताल ने, नये साल के पहले दिनों में ही देश में अनेक जगहों पर, आपूर्तियों को बाधित कर, लोगों के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं और यहां तक कि बहुत सी जगहों पर वाहनों के ईंधन की भी गंभीर तंगी पैदा कर दी है, फिर भी सरकार के कान पर जंू तक रेंगती नहीं लगती है। क्यों? क्योंकि नये साल के पहले दिन, जब ट्रक आदि के ड्राइवरों की यह हड़ताल शुरू हुई, देश का शासन जैसे अयोध्या के अपने 30 दिसंबर के रोड शो, उद्ïघाटन, घोषणा कार्यक्रम से प्रधानमंत्री मोदी ने, जिस 'राम मंदिर' भुनाओ अभियान की विधिवत शुरूआत की थी, उसकी खुमारी से ही निकला नहीं था। तभी तो, जनजीवन को प्रभावित करने वाली किसी हड़ताल को संभालने के लिए, सामान्यत: किसी जनतांत्रिक व्यवस्था में जिस तरह के कदम उठाए जाते हैं, उस प्रकार के कदमों या चिंता का कहीं दूर-दूर तक अता-पता ही नहीं था। शासन निश्चिंत है, राम मंदिर के उद्ïघाटन से जुड़ा उसका अभियान, ऐसी हरेक आवाज को तुच्छ बना देगा। कहां इतना बड़ा काम हो रहा है और कहां ये ड्राइवर वगैरह,अपनी मामूली शिकायतें ले आए हैं।

ड्राइवरों की शिकायतों का मुद्दा एकदम सरल है। नये कानून में दुर्घटना में मौत की सजा को बढ़ाकर 'हत्या' की सजा के करीब पहुंचा गया है। अब तक दुर्घटना से मौत के लिए 2 साल की कैद का प्रावधान था। जाहिर है कि दुर्घटना होने की स्थिति में, ड्राइवर की लापरवाही को ही दुर्घटना के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन, नये कानून में ऐसी मौत होने की सूरत में सजा सीधे बढ़ाकर 7 साल तक कर दी गयी है और इसके अलावा तगड़े जुर्माने का भी प्रावधान है। 'सख्ती' पर इसी जोर को आगे बढ़ाते हुए, 'हिट एंड रन' यानी वाहन चालक के दुर्घटना की जगह से भाग जाने की सूरत में, सजा और बढ़ाकर 10 साल की कैद तक कर दी गयी है और जुर्माना भी 7 लाख रुपए कर दिया गया है।

कहने की जरूरत नहीं है कि इस देश में कॉमर्शियल वाहनों के ड्राइवरों की जिंदगी की सच्चाइयों के संबंध में जरा सी भी बाखबर किसी भी सरकार ने, सजा के प्रावधानों में इस तरह की सख्ती लाने से पहले, अपने कदमों के प्रभाव पर बीस बार सोचा होता। और जाहिर है कि जनतांत्रिक व्यवस्था में संबंधित तबके से बातचीत के जरिए, उनके लिए कम से कम दिक्कतें पैदा करते हुए, अपना उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा आगे बढ़ाने का रास्ता निकाला होता। लेकिन, जाहिर है कि वर्तमान सरकार ने इस पूरे मामले में ड्राइवरों को दोषी और उससे भी बढ़कर अपराधी की नजर से देखा जा रहा है। यह इसके बावजूद है कि यह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है कि कोई पेशेवर ड्राइवर, जान-बूझकर दुर्घटनाएं नहीं करता है। बेशक, दुर्घटना में विक्टिम तो स्वत: स्पष्टï होता है, लेकिन ड्राइवर को अपराधी और उसमें भी हत्या जैसे जघन्य अपराध के अपराधी की तरह देखा जाना भी किसी भी तरह से न्यायपूर्ण नहीं है। यहां वर्तमान शासन, 'जान के बदले जान' के आग्रह से संचालित लगता है, जिसकी जगह सिर्फ आदिम कानूनों में हो सकती है, आधुनिक न्याय व्यवस्था में नहीं।

एक ओर 7 लाख रुपए तक जुर्माने का प्रावधान और दूसरी ओर, दुर्घटना स्थल से भागने के नाम पर, जेल की सजा बढ़ाकर 10 साल किए जाने में, यह और भी साफ दिखाई देता है कि ये कानून बनाने वालों का वास्तविकताओं से कुछ लेना-देना ही नहीं था। वर्ना 7 लाख रुपए के जुर्माने का प्रावधान करते हुए, यह तो ध्यान में आया होता कि देश में पेशेवर ड्राइवर की आय औसतन पच्चीस-तीस हजार रुपए से ज्यादा नहीं होगी। ऐसे में करीब दो साल की कुल आय के बराबर जुर्माना कोई ड्राइवर कहां से भरेगा और वह भी तब जबकि जेल की सजा की अवधि कई गुना बढ़ाई जा रही है। लंबी सजा के साथ, ड्राइवर के बाकी परिवार के लिए भी जुर्माने की ऐसी रकम जुटाना मुश्किल होगा। बहरहाल, इससे भी ज्यादा वास्तविकताओं से कटा हुआ है, दुर्घटना स्थल से भागने के 'अपराध' के लिए जेल और जुर्माने, दोनों की सजा में उल्लेखनीय बढ़ोतरी का फैसला।

दुर्घटना को इरादतन अपराध की तरह न देखने वाला कोई भी व्यक्ति इस सच्चाई को अनदेखा नहीं कर सकता है कि दुर्घटना में मौत होने की सूरत में, मृतक के परिजनों की ही नहीं, आम लोगों की भी प्रतिक्रिया बहुत बार काफी हिंसक हो जाती है। ऐसी सूरत में ड्राइवर से घटनास्थल पर रुके रहने की अपेक्षा करना, उससे जान-जोखिम में डालने की अपेक्षा करना है। रही पुलिस को सूचित करने की बात तो, ज्यादातर मामलों में कामर्शियल वाहनों के ड्राइवर घटनास्थल से भागकर, पुलिस के पास ही जाते हैं। यह अक्सर उनके लिए प्राणरक्षा के उपाय के तौर पर कारगर भी होता है। लेकिन, पुलिस और कॉमर्शियल वाहनों के ड्राइवरों के रिश्तों की हमारे यहां जो आम व्यवस्था उसमें यह भी, ड्राइवर के लिए आर्थिक रूप से काफी महंगा ही पड़ता है। ऐसे में पुलिस को सूचित करने-न करने की सूरत में सजाओं का भारी अंतर, पुलिस के हाथों में वसूली का एक और हथियार बन सकता है। आखिरकार, इसका साक्ष्य तो पुलिस के ही हाथ में होगा कि उसके दुर्घटना करने वाले ड्राइवर ने खुद इसकी जानकारी दी थी, या पुलिस ने तफ्तीश में उससे संबंधित जानकारी 'निकलवाई' थी!

बेशक, हमारे देश मेें सड़क दुर्घटनाओं में मौतें असह्यï रूप से ज्यादा हैं। 2021 में भारत में सड़क दुर्घटनाओं में 1,53,792 मौतें दर्ज हुई थीं, जबकि 2018 में यही आंकड़ा 1,50,785 था। 2010 में सड़क दुर्घटना में मौतें 1.3 लाख ही रही थीं। साफ तौर पर यह संख्या बढ़ती ही जा रही है। यह और परेशान करने वाली बात है कि जहां भारत में ये मौतें बढ़ती ही जा रही हैं, जबकि दुनिया के पैमाने पर इन्हीं मौतों में 5 फीसद की गिरावट दर्ज हुई है। लेकिन, अगर सरकार हड़बड़ी में, सड़क दुर्घटना में मौतों के मामले में वाहन चालकों के लिए सजा बढ़ाने जैसे कदमों का सहारा लेती है, तो उससे इस समस्या पर काबू पाने में कोई मदद नहीं मिलने वाली है। सच्चाई यह है कि ड्राइवरों की लापरवाही से भी ज्यादा संख्या में इन मौतों के पीछे सड़कों की डिजाइन से लेकर रख-रखाव, भारी वाहनों के लिए मार्ग-अलगाव, अलग-अलग श्रेणी के वाहनों का अलगाव आदि-आदि की कमजोरियां काम करती हैं।

लेकिन, ढांचागत क्षेत्र तथा सड़क निर्माण के बढ़ते निजीकरण के चलते, अब इन पहलुओं की बेहतर प्रौद्योगिकियां आने के बावजूद, पहले से भी ज्यादा उपेक्षा हो रही है। इसके ऊपर से हमारे देश में कथित गोरक्षा के जुनून में सड़कों पर आवारा मवेशियों की बढ़ती संख्या के लिए दरवाजे और खोल दिए गए हैं। ऐसे में भारतीय न्याय संहिता का गरीब वाहन चालकों को ही अपराधी बनाकर पीसना, न तो भारतीय है और न न्याय; ये तो सरासर अन्याय है।
(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


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