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टमाटर तय कर रहे पत्रकारिता की कीमत

देश में विभिन्न वस्तुओं की बढ़ती कीमतें हमेशा चर्चा में रहती हैं

टमाटर तय कर रहे पत्रकारिता की कीमत
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देश में विभिन्न वस्तुओं की बढ़ती कीमतें हमेशा चर्चा में रहती हैं। शायद ही ऐसा कोई शासनकाल रहा हो जब महंगाई पर सवाल न उठाये गये हैं, और सरकारों ने जवाब न दिये हों। इन दिनों टमाटर सुर्ख़ है। उसकी आसमान छूती कीमतें जनसामान्य को परेशान तो करने के बाद वैसे अब उतार पर हैं। हर किसी की रसोई की अनिवार्यता कहे जाने वाले टमाटर की कीमतें अभूतपूर्वंऊंचाई को छूकर उतर तो चुकी हैं लेकिन लगता है कि महंगे टमाटर वर्तमान निज़ाम के दौर में बहस के योग्य नहीं हैं- वैसे ही जैसे अन्य उपभोक्ता वस्तुओं के बढ़ते दाम भी नहीं रहे। यह दीगर बात है कि जिन मुद्दों का हो-हल्ला कर भाजपा केन्द्रीय सत्ता पर 2014 में काबिज हुई है, उनमें से एक महंगाई थी। यह आज के हुक्मरानों और विपक्ष के तत्कालीन झंडाबरदार नेताओं के लिये डायन थी जिसने जनता को बहुत हलाकान किया था।

2014 के पहले जब भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में थी, तो महंगाई हमेशा बड़ा मुद्दा होती थी। होना भी चाहिये क्योंकि आम आदमी के बजट को बिगाड़ने से लेकर उसकी कमर तोड़ने का यह काम करती है। बहुत पुरानी बातें छोड़ भी दी जायें तो आज जो नेता भाजपा के संगठन व सरकार में बड़े ओहदे सम्हाले बैठे हैं उनमें से ज्यादातर ने इस सरकार के आने के पहले महंगाई के खिलाफ आंदोलनों में हिस्सा ज़रूर लिया होगा या जिनकी खाली सिलेंडरों के साथ अथवा महंगी सब्जियों की मालाएं पहने हुए तस्वीरें प्रकाशित हुई होंगी। वे इसके लिये पूर्व की सरकारों पर जमकर हल्ला बोलते थे और संसद के बाहर-भीतर आवाजें उठाते थे। इसमें कोई बेजा बात नहीं है और विपक्ष के नाते यह उनका कर्तव्य भी था।

निज़ाम बदला। हुक्मरान बदले; और परिस्थितियां बदलीं। जो लोग पहले महंगाई को पानी पी-पीकर कोसते थे, अब उनके गले सूखने बन्द हो गये हैं। भाजपा का शासन काल ऐसा है जो किसी भी मुद्दे पर न संवाद करता है और न जवाब देता है। फिर वह चाहे भ्रष्टाचार हो या फिर उसके द्वारा लिये गये गलत आर्थिक फैसलों के दुष्परिणाम हों, चीन द्वारा की गई घुसपैठ हो या पुलवामा कांड अथवा कोरोना के दौरान स्वास्थ्य सम्बन्धी कुप्रबंधन। किसी भी विषय पर सरकार ने कभी अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं किया और न ही जवाबदेही की भावना का प्रदर्शन किया। कोई भी फैसला कैसे लिया गया, इस प्रक्रिया से लोगों को हमेशा अनभिज्ञ रखा गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हों या उनकी सरकार का कोई भी मंत्री, शायद ही किसी विषय पर जनमानस को संतुष्ट कर पाया हो। चूंकि सारी शक्तियां स्वयं मोदी के अधीन हैं, अन्य मंत्रियों, अधिकारियों, संस्थाओं, विभागों की हैसियत आज हां में हां मिलाने से अधिक कुछ भी नहीं रह गई है। जब स्थिति ऐसी हो तो किसी भी बात का कोई स्पष्टीकरण हो ही नहीं सकता।

केन्द्र सरकार हो या देश के किसी भी राज्य की भाजपा प्रणीत सरकार, यह नहीं बता पा रही है कि जो पेट्रोल पहले 40-45 रुपये का होकर भी महंगा था, वही आज 100 रुपए का होकर भी सस्ता कैसे है? ऐसे ही, डीज़ल, रसोई गैस, तेल, मसाले, सब्जियां आदि महंगी होकर भी सरकार व उसके नेताओं एवं समर्थकों को सस्ती क्यों लगती हैं?

इस पूरे काल का मूल्यांकन जब भी होगा, तय है कि मीडिया अपनी चुप्पी के लिये सर्वाधिक कोसा जायेगा। लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में स्वीकृत मीडिया राजसत्ता को गैर जिम्मेदार और लोकविरोधी बनने में प्रमुख सहायक संस्थान के रूप में याद किया जायेगा। मीडिया ने महंगाई के परिप्रेक्ष्य में इस झूठ को फैलाने और उसे लोगों द्वारा आत्मसात किये जाने में प्रमुख भूमिका निभाई कि कीमतें इसलिये बढ़ाई गई हैं कि इससे देशविरोधी ताकतों से लड़ने में सरकार को मदद मिल रही है। वैसे अकेला राष्ट्रवाद इस महंगाई को बढ़ाने का जिम्मेदार नहीं है। समाज में हिंसा और नफरत का जो वातावरण बनाया गया है उसने भी सरकार को महंगाई बढ़ाने का औचित्य प्रदान किया है। एक बड़ा वर्ग मानता है कि मोदी सरकार बहुसंख्यकों के धर्म की रक्षा कर रही है इसलिये उसकी इतने छोटे कारण से आलोचना नहीं की जानी चाहिये।

मीडिया ने राष्ट्रवाद, हिंसा और परस्पर घृणा को बढ़ावा देने के सरकार व भाजपा के कृत्य को मास्टर स्ट्रोक कहकर हमेशा महिमा मंडित किया तथा खुलकर समर्थन दिया, जिससे सरकार को हौसला मिला कि वह अड़चन में डालने वाले सवालों पर या तो ध्यान न दे या पूछने वालों को ही अपमानित या प्रताड़ित करे। जिनकी सरकार विरोधी के रूप में शिनाख्त हो जाती है, उन्हें सीधे जेलों का रास्ता दिखाया जाता है- फिर चाहे वे पत्रकार हों या फिर कोई स्वयंसेवी संगठन। महंगाई भी एक ऐसा ही विषय है जो सत्ता को असहज करता है।

इसलिये कभी सिलेंडर लेकर प्रदर्शन करने तथा महंगाई के मुद्दे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चूड़ी भेजने वाली केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी से एक समाचार चैनल की रविवार को आयोजित शिखर वार्ता के दौरान जब पूछा गया कि- 'परिजनों के साथ टमाटर का इस्तेमाल करते हुए वे इसकी बढ़ी हुई कीमतों के बाबत क्या सोचती हैं?', तो टेढ़े सवालों की अब आदी नहीं रह गयीं मंत्री ने कहा-'यह वैसा ही है जैसे आपसे कोई पूछे कि जेल में बिताये दिनों के बारे में आप क्या सोचते हैं?' उल्लेखनीय है कि जिस पत्रकार से मंत्री ने ऐसा कहा, वे एक बड़े उद्योग समूह के अधिकारी से पैसे उगाही के आरोप में जेल में समय काट चुके हैं।

सरकार के हर गलत काम के साथ खड़े होने वाले मीडिया की कीमत जब आज अदने से टमाटर ने तय कर ही दी है तो हर ऐसे पत्रकार व मीडिया संस्थान को सोचने की ज़रूरत है जो निजी स्वार्थों के चलते सरकार का साथ देते हैं।


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