Top
Begin typing your search above and press return to search.

समय बताएगा देश में युवाओं की संख्या वरदान या अभिशाप?

इंसानी आबादी का छठा हिस्सा भारत में है जो इस ग्रह पर सबसे अधिक आबादी वाला देश है

समय बताएगा देश में युवाओं की संख्या वरदान या अभिशाप?
X

- डॉ.अजीत रानाडे

जनसंख्या के संबंध में कुछ मेगा रुझान इस प्रकार हैं। पहला, प्रजनन दर में तेजी से गिरावट आई है। अभी पचास साल पहले कुल प्रजनन दर (टोटल फर्टिलिटी रेट- टीएफआर) यानी बच्चा पैदा करने वाली उम्र की महिला से पैदा होने वाले बच्चों की औसत संख्या 4.5 थी। यह गिरकर 2.5 हो गई है। यह विश्व का औसत है। 2.1 के टीएफआर को 'प्रतिस्थापन दर' कहा जाता है जिसके बाद जनसंख्या का आकार स्थिर हो जाता है क्योंकि विकास दर शून्य हो जाती है।

इंसानी आबादी का छठा हिस्सा भारत में है जो इस ग्रह पर सबसे अधिक आबादी वाला देश है। आज दुनिया में रहने वाले आठ अरब लोगों में से सात अरब पिछले दो सौ वर्षों में पैदा हुए थे। इससे पता चलता है कि सहस्राब्दियों की लंबी अवधि की तुलना में बहुत कम समय में विश्व जनसंख्या की वृद्धि कितनी तेजी से हुई है। अगले सौ वर्षों में दुनिया की आबादी लगभग 1100 करोड़ पर स्थिर हो जाएगी।

जनसंख्या के संबंध में कुछ मेगा रुझान इस प्रकार हैं। पहला, प्रजनन दर में तेजी से गिरावट आई है। अभी पचास साल पहले कुल प्रजनन दर (टोटल फर्टिलिटी रेट- टीएफआर) यानी बच्चा पैदा करने वाली उम्र की महिला से पैदा होने वाले बच्चों की औसत संख्या 4.5 थी। यह गिरकर 2.5 हो गई है। यह विश्व का औसत है। 2.1 के टीएफआर को 'प्रतिस्थापन दर' कहा जाता है जिसके बाद जनसंख्या का आकार स्थिर हो जाता है क्योंकि विकास दर शून्य हो जाती है। अमीर देशों में टीएफआर कम है जबकि गरीब देशों में ऊंची है। दक्षिण कोरिया में टीएफआर संख्या 0.84 जितनी कम है। चीन में यह 1.28, रूस में 1.5, अमेरिका में 1.64 और भारत में 2.05 है। उच्च टीएफआर ज्यादातर अफ्रीका के गरीब देशों में पाई जाती है जिसमें नाइजर 4.6 और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य 5.8 पर है। अफ्रीका के 54 देशों की कुल आबादी भारत के लगभग बराबर है और आर्थिक आकार भी डॉलर के संदर्भ में तुलनीय है। अफ्रीका का आर्थिक विकास लगभग 6 प्रतिशत है और आने वाले वर्षों में बढ़ सकता है।

दूसरा मेगा ट्रेंड जीवन काल में वृद्धि है। यह (गलत तरीके से) माना जाता था कि दुनिया में आज अधिक लोग जीवित हैं जितने पहले कभी पैदा नहीं हुए थे। भले ही यह बयान गलत है लेकिन जनसंख्या में तेजी से वृद्धि के बारे में काफी नाटकीय जानकारी देता है। आजादी के पहले भारत में सामान्य जीवन काल 40 साल था जो अब बढ़कर दोगुना हो गया है। बुजुर्ग आबादी में वृद्धि का यह एक निहितार्थ है। भारत में चूंकि बुजुर्गों के पास अपने बुढ़ापे में बहुत कम आय या स्वास्थ्य सुरक्षा होती है इसलिए ये बुजुर्ग एक बड़ा सामाजिक बोझ हैं जिसे एक समाज के रूप में हमें सहन करना पड़ता है। विकसित देशों में बुजुर्गों की आय और स्वास्थ्य सुरक्षा की लागत उनके कामकाजी जीवन काल के दौरान उनकी आय से वित्त पोषित उनकी अपनी बचत और पेंशन द्वारा वहन की जाती है। इसके विपरीत भारत में यह खर्च सामान्य खजाने से वहन करना पड़ सकता है जिसका मतलब है युवा कामकाजी पीढ़ी पर कर का अधिक बोझ। भारत में प्रत्येक बुजुर्ग व्यक्ति की देखभाल के लिए कामकाजी उम्र के लगभग पांच लोग हैं जबकि जर्मनी और अन्य पश्चिमी देशों में एक बुजुर्ग के पीछे 2 कामकाजी व्यक्ति है।

तीसरा मेगा ट्रेंड शहरीकरण का है। 2007 में दुनिया ने एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर पार किया जिसमें दुनिया की 50 प्रतिशत से अधिक आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती है। भारत में यह संख्या अभी भी 35 फीसदी के करीब है। हालांकि भारत की जनगणना में शहरी आबादी की कम गिनती के कारण वास्तविक प्रतिशत के बारे में कुछ संदेह है। फिर भी, आने वाले दशकों में भारत के तेजी से शहरीकरण की संभावना है जो शहरों में बढ़ती भीड़ में योगदान देगा। शहर आर्थिक विकास के वाहक भी हैं और भारत के सकल घरेलू उत्पाद में उनकी हिस्सेदारी बहुत अधिक है। भारतीय शहरों के स्थानीय प्रशासन मॉडल में स्थानीय परिवहन (मेट्रो, बसें), सम्मेलन केंद्र, स्कूल व कॉलेज, पार्क तथा मनोरंजन केंद्र जैसे बुनियादी ढांचे की भारी मांग के लिए भुगतान करने के लिए पर्याप्त राजस्व आधार नहीं है। इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्रों को राज्य सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के माध्यम से वित्त पोषित किया जाता है जबकि शहर केवल संपत्ति कर या जीएसटी के हिस्से पर निर्भर करते हैं। फंडिंग के इस मॉडल को बदलना होगा। शहरों को अधिक स्वायत्तता और विकेंद्रीकृत शक्ति मिलनी चाहिए जैसा कि भारत के संविधान के 74वें संशोधन में उल्लिखित है।

दुनिया में चौथी मेगा प्रवृत्ति जनसंख्या वृद्धि, घनत्व और प्रसार का बढ़ता असंतुलन है। अधिक समृद्ध पश्चिम बूढ़ा हो रहा है जबकि एशिया, अफ्रीका व दक्षिण अमेरिका के कम विकसित देश युवा और गरीब हैं। इसे कभी-कभी उत्तर दक्षिण विभाजन के रूप में भी जाना जाता है। हालांकि यह लाक्षणिक है तथा भौगोलिक नहीं है। यह असंतुलन समृद्ध देशों में श्रम की कमी के रूप में भी प्रकट होता है। अधिशेष श्रम प्रविष्टियां आसानी से अंतर को भर सकती हैं। वस्तुएं, सेवाएं, वित्तीय पूंजी और विचार सीमाओं के पार स्वतंत्र रूप से प्रवाहित हो सकते हैं किन्तु लोग स्वतंत्र रूप से सीमा पार नहीं कर सकते हैं। समृद्ध देशों में नौकरियां युवा श्रमिकों का इंतजार कर रही हैं लेकिन उन्हें जाने से रोकने के लिए आप्रवासन नियम और अन्य बाधाएं हैं। नौकरी करने या सेवा देने के लिए सीमा पार जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति को समृद्ध देश में एक संभावित आप्रवासी के रूप में माना जाता है और इसलिए असंतुलन लगातार मौजूद है। अमीर देशों में श्रम की कमी एवं गरीब देशों में नौकरी की कमी साथ-साथ चलती हैं। इस प्रकार जनसंख्या संबंधी चिंताएं प्रवास और श्रमिकों के मुक्त आवागमन के मुद्दों से जुड़ी हुई हैं।

यही विषय हमें भारत में जनसंख्या के मुद्दों पर लेकर आता है। सबसे पहले, आधे से अधिक भारतीय राज्यों में पहले से ही प्रतिस्थापन दर 2.0 से नीचे टीएफआर है। यह आम तौर पर प्रति व्यक्ति में अधिक है, महिला साक्षरता में अधिक है और ज्यादातर दक्षिण या पूर्व में स्थित हैं। इधर हिंदी पट्टी के कुछ राज्यों में टीएफआर अभी भी अधिक है जिससे देशव्यापी औसत 2.05 है। आने वाले वर्षों में हम देखेंगे कि उच्च टीएफआर राज्यों से निचले टीएफआर राज्यों में बड़े पैमाने पर श्रमिकों का पलायन होगा। हमारे संविधान ने कामकाज के लिए देश के भीतर कहीं भी आने जाने की गारंटी दी है और प्रवासन पैटर्न श्रम की कमी के कारण होने वाले अंतराल को भरने का काम करते हैं।

दूसरा, 2026 में सीमा निर्धारण होने वाला है जो संसद के समग्र आकार और भारत के राज्यों में प्रतिनिधियों की संख्या बदलने का निर्धारण करेगा। संसद के वर्तमान सदस्यों के प्रतिनिधित्व में बहुत अधिक अंतर है। अभी एक सांसद एक ऐसे निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर सकता है जिसकी आबादी 10 हजार से 10 लाख तक हो सकती है। मध्यप्रदेश और तमिलनाडु की आबादी लगभग समान है लेकिन सांसदों की संख्या में बहुत अंतर (29 बनाम 39) है।

तीसरा, भारत की जनसांख्यिकी निर्भरता अनुपात के मामले में फायदेमंद है लेकिन इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह अनुपात कुछ दशकों तक हर साल कम से कम 50 से 80 लाख नई नौकरियां पैदा करने में सक्षम है। इस प्रकार आर्थिक विकास भारत की जनसांख्यिकी की एक पूर्व शर्त और परिणाम दोनों है। आने वाले वर्षों में पता चलेगा कि हमारे युवाओं की कुल जनसंख्या में बहुलता वरदान है या अभिशाप? सभी भारतीयों को 'विश्व जनसंख्या दिवस' की शुभकामनाएं!
(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैं। सिंडिकेट : द बिलियन प्रेस)


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it