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राज्यपाल की भूमिका पर विचार का वक्त

गुरुवार को देश की सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली और महाराष्ट्र की सरकारों को लेकर दो अहम फैसले सुनाए

राज्यपाल की भूमिका पर विचार का वक्त
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गुरुवार को देश की सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली और महाराष्ट्र की सरकारों को लेकर दो अहम फैसले सुनाए। दोनों मामले अलग-अलग प्रकृति के हैं, लेकिन शीर्ष अदालत के आदेश में लोकतंत्र और संवैधानिक प्रक्रिया की रक्षा की फिक्र झलकती है,साथ ही केंद्र पर काबिज भाजपा नीयत पर सवाल भी खड़े करती है। दिल्ली में निर्वाचित आम आदमी पार्टी की सरकार औऱ उपराज्यपाल के बीच इस बात का विवाद था कि प्रशासनिक सेवाएं किसके नियंत्रण में रहेंगी।

2019 से यह मामला चल रहा था, जिस पर अब शीर्ष अदालत ने कहा है कि केंद्र द्वारा सभी विधायी शक्तियों को अपने हाथ में लेने से संघीय प्रणाली समाप्त हो जाती है। अगर चुनी हुई सरकार अधिकारियों को नियंत्रित नहीं कर सकती तो वो लोगों के लिए सामूहिक दायित्व का निर्वाह कैसे करेगी? अफसरों की ट्रांसफर पोस्टिंग पर दिल्ली सरकार का अधिकार है। चुनी हुई सरकार में उसी के पास प्रशासनिक व्यवस्था होनी चाहिए। इस आदेश और टिप्पणी से दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच शक्ति संतुलन कायम कर दिया गया है। इससे भावी उलझनों को टाला जा सकेगा।

अदालत का दूसरा अहम फैसला महाराष्ट्र को लेकर आया है, जिसके मुताबिक उद्धव ठाकरे को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में बहाल नहीं किया जा सकता है क्योंकि उन्होंने फ्लोर टेस्ट का सामना किए बिना स्वेच्छा से पद से इस्तीफा दे दिया था। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को अपना पद और अपनी सरकार बनाए रखने का मौका मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट ने उद्धव ठाकरे की सरकार को बहाल करने के अनुरोध को भी खारिज कर दिया क्योंकि ठाकरे ने विधानसभा में शक्ति परीक्षण का सामना करने के बजाय इस्तीफा देना चुना था। लेकिन अदालत ने यह भी कहा कि महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी का फ्लोर टेस्ट के लिए बुलाने का फैसला, जिसने अंतत: उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली एमवीए सरकार को गिरा दिया, कानून के अनुसार नहीं था।

गौरतलब है कि महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन की महाविकास अघाड़ी सरकार थी, जिसमें उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री थी। लेकिन पिछले साल 21 जून को शिवसेना में 16 विधायकों ने बगावत कर दी थी, एकनाथ शिंदे इस बगावत के नेता थे। 24 जून को शिव सेना ने इन 16 विधायकों की सदस्यता रद्द करने की मांग विधानसभा के तत्कालीन उपाध्यक्ष नरहरि जिरवाल से की थी। इन 16 विधायकों को नोटिस भेजा गया, लेकिन फिर उद्धव ठाकरे ने इस्तीफ़ा दे दिया था। इसके बाद एकनाथ शिंदे के गुट ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई। भाजपा के साथ सरकार बनाने से पहले बागी विधायकों को असम से लेकर गोवा तक खूब इधर-उधर घुमाया गया। जाहिर है सत्ता में आने के लिए सारी तिकड़में भिड़ाई गईं और इसमें तत्कालीन राज्यपाल की अहम भूमिका रही, जिन्होंने वास्तव में संवैधानिक दायित्वों की उपेक्षा करते हुए भाजपा के एजेंट की तरह काम किया। अदालत ने इस पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है।

अदालत ने तत्कालीन राज्यपाल कोश्यारी को शिंदे गुट की मदद करने वाले फैसले लेने के लिए कड़ी निंदा करते हुए कहा कि उन्होंने यह निष्कर्ष निकालने में 'गलतीÓ की थी कि उद्धव ठाकरे ने विधायकों के बहुमत का समर्थन खो दिया था। अदालत ने कहा कि राज्यपाल द्वारा विवेक का प्रयोग संविधान के अनुरूप नहीं था। अगर स्पीकर और सरकार अविश्वास प्रस्ताव को दरकिनार करते हैं, तो राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के बिना फ्लोर टेस्ट के लिए बुलाना उचित होता। अदालत ने एक महत्वपूर्ण बात और भी कही कि न तो संविधान और न ही कानून राज्यपाल को राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करने और अंतर-पार्टी या अंतर-पार्टी विवादों में भूमिका निभाने का अधिकार देता है। राज्यपाल ने जिन पत्रों पर भरोसा किया उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे यह संकेत मिले कि असंतुष्ट विधायक सरकार से समर्थन वापस लेना चाहते हैं।

सर्वोच्च अदालत की यह टिप्पणी से भाजपा और तत्कालीन राज्यपाल कोश्यारी सवालों के दायरे में आते हैं। श्री कोश्यारी तो शिवाजी महाराज पर टिप्पणी से उठे विवाद के बाद राज्यपाल पद से इस्तीफा दे चुके हैं, वे इस पर क्या कहेंगे, यह पता नहीं। लेकिन हैरानी यह देखकर होती है कि अदालत से आए इस फैसले को भाजपा अपनी बड़ी जीत बता रही है। सिर्फ इसलिए क्योंकि उसकी सरकार बच गई है और अदालत ने मुख्यमंत्री शिंदे को अयोग्य नहीं ठहराया, उनसे उनका पद नहीं छीना। उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस आदेश पर कहा कि यह लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की जीत है। हम सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले से संतुष्ट हैं। वहीं शिंदे गुट के नेता राहुल रमेश शिवालय ने कहा कि महाराष्ट्र में शिंदे सरकार को यह बड़ी राहत है। अब प्रदेश को स्थिर सरकार मिलेगी। इन टिप्पणियों से साफ है कि भाजपा और शिंदे गुट को गलत तरीके से सत्ता हथियाने पर कोई पछतावा नहीं है। उन्हें बस सत्ता चाहिए और अदालत के आदेश से फिलहाल वो सुरक्षित हैं।

उद्धव ठाकरे और उनके दल के बाकी लोग इस फैसले से निराश हो सकते हैं कि बात उनके हक में नहीं रही। उद्धव ठाकरे अगर इस्तीफा नहीं देते, तो शायद बाजी पलट सकती थी। लेकिन अब कम से कम भाजपा का असली चेहरा उजागर हो गया कि किस तरह संवैधानिक पदों का दुरुपयोग वह सत्ता के लिए कर रही है। देश में जितने गैरभाजपा शासित राज्य हैं, वहां राज्यपाल और निर्वाचित सरकारों के बीच अक्सर टकराव की खबरें आती रहती हैं, जिससे संविधान का अनादर होता है। अब वक्त आ गया है कि देश के सभी राजनीतिक दल इस बात पर मंथन करें कि आईंदा कोई राज्यपाल केंद्र के एजेंट के तौर पर काम न करे। लोकतंत्र की मजबूती इसी में है कि जनादेश का सम्मान हर हाल में हो।


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