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इस बार टोपी में से जाति गणना निकाली

लड़ाई तो अब शुरु होगी। जाति गणना की राहुल गांधी की मांग को मोदी सरकार को मानना पड़ा। आम जनगणना में इस बार जातिवार गणना भी होगी

इस बार टोपी में से जाति गणना निकाली
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- शकील अख्तर

जनता को एक के बाद एक नए मुद्दे में उलझाना। इसे खुश होकर उनके भक्त कहते हैं कि यह हेडलाइन मैनेजमेंट हैं। खबरों की सुर्खियों में हम ही रहेंगे। टोपी में से कबतूर निकालने का जादू चलता रहेगा। इस बार जब 26 पर्यटकों की पहलगाम में हत्या हुई और लोग इसके जवाब में आतंकवाद का खात्मा मांग रहे थे तो मोदी जी ने टोपी में से जाति गणना निकाल दी।

लड़ाई तो अब शुरु होगी। जाति गणना की राहुल गांधी की मांग को मोदी सरकार को मानना पड़ा। आम जनगणना में इस बार जातिवार गणना भी होगी। मगर गिनती हो जाना ही अपने आप में कुछ नहीं है। दलितों की आदिवासियों की गिनती है। दस साल बाद होने वाली हर जनगणना में होती है। हालांकि मोदी सरकार ने अभी तक जनगणना ही नहीं करवाई। 2021 में होना थी। मगर कोविड के बहाने उसे टाल दिया गया। जबकि 2021 में ही 5 राज्यों बंगाल, तमिलनाडु, असम, केरल, पुदुचेरी के विधानसभा चुनाव करवाए। इससे पहले 2020 में बिहार, दिल्ली के। और 2022 में उत्तर प्रदेश के चुनाव भी हुए। चुनाव कभी नहीं टाले। मगर पांच साल लेट हो गई जनगणना।

जनगणना में सरकार के सामने सबसे बड़ी समस्या यही थी कि वह जाति गणना से कैसे बचे। मोदी सरकार ने उस समय संसद में कहा था कि वह अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा किसी और समुदाय की गणना नहीं करवाएगी। ऐसा ही जवाब उसने एक हलफनामे के जरिए सुप्रीम कोर्ट को दिया था। 2021 के बजट में जनगणना के लिए जो पैसा रखा था उसे केंसिल किया ( विलंबित ) अगले साल 2022 तक के लिए। अगले साल फिर 2023 तक के लिए। सरकार जाति गणना से बचने के लिए जनगणना को भी अभी तक टालती रही।

मगर अब उसने अचानक यह फैसला ले लिया। इस पर बहुत सारी बातें हैं। सवाल हैं। कि अचानक क्यों?
देश जब पहलगाम के आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान पर कड़ी कार्रवाई करने की मांग कर रहा था। पूरा विपक्ष सरकार के साथ खड़ा था तब अचानक प्रधानमंत्री मोदी फैसला करते हैं कि हम तो जातिवार गणना कराएंगे।

11 साल से लोगों को बेवकूफ बनाया जा रहा है। जनता जब जो चाहती है उसे वह न देकर दूसरे मामले में उलझा दिया जाता है। बेरोजगार नौकरी मांगते हैं उनसे कहा जाता है कि वह तुम्हारी भैंस खोल ले जाएंगे। महिलाएं कहती हैं कि आपने तो कहा था- 'बहुत हुआ नारी पर वार अबकी बार मोदी सरकार!' तो कहते हैं कि अब तुम्हारा मंगल सूत्र ले जाएंगे! कुछ भी कह देते हैं। और कुछ नहीं मिला तो कह दिया कि मैं बायलॉजिकल ( मां की कोख से जनमा ) नहीं हूं।

जनता को एक के बाद एक नए मुद्दे में उलझाना। इसे खुश होकर उनके भक्त कहते हैं कि यह हेडलाइन मैनेजमेंट हैं। खबरों की सुर्खियों में हम ही रहेंगे। टोपी में से कबतूर निकालने का जादू चलता रहेगा। इस बार जब 26 पर्यटकों की पहलगाम में हत्या हुई और लोग इसके जवाब में आतंकवाद का खात्मा मांग रहे थे तो मोदी जी ने टोपी में से जाति गणना निकाल दी।

जाति गणना तो बहुत पुरानी मांग है। होना चाहिए थी। मगर इस समय घोषणा कुछ और चाहिए थी। आतंकवाद के खिलाफ। और घोषणा नहीं कार्रवाई। मगर मोदी जी को आदत पड़ गई है बातों से लोगों को बहलाने की। आखिर 11 साल से यही कर रहे हैं। मगर इस बार संभव नहीं लगता।

दो बड़ी बातें हैं। पहली, बार-बार सीमा पार से आकर यहां लोगों को मारे जाने की घटनाएं और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होना। पुलवामा में चालीस जवान शहीद, गलवान में बीस जवान और अब पहलगाम में 26 पर्यटक। दूसरी बात, इनके जवाब में जो मोदीजी जो जाति गणना लाए हैं वह उन्हें उलटी पड़ रही है। आरएसएस और भाजपा के मूल विचार यथास्थितिवाद के खिलाफ है। यह दक्षिणपंथी संगठन सामाजिक ढांचे में बदलाव के सख्त खिलाफ हैं।

लेकिन समय की ऐसी बलिहारी है कि देश में सामाजिक ढांचे के बदलाव के आज तक के सबसे बड़े काम की घोषणा मोदी जी के हाथों होना थी। हो गई।
बहुत अच्छा हुआ। सोचिए अगर यह घोषणा राहुल गांधी करते तो क्या होता? 1990 याद कर लीजिए। उसी तरह देश भर में बीजेपी इसके विरोध में हिंसक आंदोलन शुरू कर देती। युवाओं का आत्मदाह याद है! क्या भयावह समय था। वीपी सिंह को आज तक गालियां देते हैं।

मोदी जी की घोषणा से एक लाभ यह जरूर हुआ कि प्रतिक्रियावादी ताकतें मुख्यत: ओबीसी और दलित आदिवासी के खिलाफ खुल कर नहीं आ पा रही हैं। केवल सोशल मीडिया तक ही सीमित हैं। हालांकि सोशल मीडिया पर बहुत गंदगी फैलाई जा रही है। मगर वहां कब नहीं फैला रहे थे ये लोग? फर्क बस इतना था कि पहले मुस्लिम के खिलाफ फैला रहे थे और अब पिछड़ा, अति पिछड़ा, दलित, आदिवासी के खिलाफ।

मामला पूरा यू टर्न ले गया। अभी तक इस वर्ग को समझा रहे थे कि मुस्लिम तुम्हारे खिलाफ है। झारखंड के चुनाव में तो इस बार प्रधानमंत्री मोदी ने बोल ही दिया था कि बेटी ले जाएंगे। मगर मजबूरी में जैसे ही जाति गणना की घोषणा की तो सारा नजला पिछड़ा अति पिछड़ा दलित आदिवासी पर गिरने लगा।

उसकी सारी सेवाएं भूल गए कि उनको ही आगे ले जाकर मस्जिदों के बाहर नाचते और नारे लगाते थे। 11 साल में देश में हिन्दू-मुसलमान हवा बनाने के लिए सबसे ज्यादा उपयोग समाज के इस वंचित समाज का ही किया। और अब उसे ही गालियां दी जा रही हैं।

दूसरा बड़ा सेटबैक समाज की उच्च जातियों को भी लगा। आज तक का सबसे बड़ा धक्का। हमला। दिखाते तो इसे भी मुसलमान मुसलमान ही रहे। मगर छीन इसका सारा प्रिवलेज ( विशेषाधिकार) लिया। जाति भारत में एक प्रिवलेज की तरह थी। और उसकी सबसे बड़ी रक्षक होने का दावा भाजपा आरएसएस करती थी। मगर पैनिक रिएक्शन (घबराहट) में वह जाति गणना ले आई। इसका कोई फायदा उसे नहीं मिलेगा। दोई दीन से गए ...! इसके आगे नहीं लिख रहे। लोग इस पर भी ऐतराज करने लगे हैं। यह वाला लिख देते हैं कि न खुदा ही मिला न विसाले सनम, न इधर के हुए न उधर के हुए! यह भी हलवा मिला न मांडे के मुकाबले का है।

सवर्ण समझ गया कि वह भी बीजेपी आरएसएस के लिए उपयोग की चीज है। अब पिछड़ा ज्यादा महत्वपूर्ण लगने लगा तो उस पर ही चोट कर दी। और ऐसी चोट की अब वह कभी वर्चस्व की लड़ाई में संख्या बल के सामने टिक ही नहीं पाएगा। मोदी को जो वह आंख बंद करके समर्थन दे रहा था वह उसे उलटा पड़ गया। सोशल मीडिया ही आज समाज का आईना बना हुआ है। उस पर तमाम मोदी के समर्थक लिख रहे हैं कि अब उनका समर्थन बंद। बड़ा धोखा हो गया। सही बात है। राहुल करते, अखिलेश करते, तेजस्वी करते तो यह स्वाभाविक माना जाता। वे सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे। मगर इसे देश को तोड़ने वाला अरबन नक्सल का विचार बताने वाले जब खुद इसको ले आए तो साफ हो गया कि वे लोगों का ध्यान भटकाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। उनकी किसी विचार से कोई प्रतिबद्धता नहीं है। अगर है तो केवल वोट से अपनी सत्ता से।

और अब आखिरी बात। कहानी शुरू वहीं से की थी कि अभी सिर्फ घोषणा हुई है। इसे लागू करवाना और फिर जाति की संख्या के आधार पर हिस्सेदारी के लिए पिछड़े, अति पिछड़े दलित आदिवासी को निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी। मोदीजी ने तो आज मुद्दा बदलने के लिए इसकी घोषणा कर दी। महिला आरक्षण की भी की थी। नौकरियों की भी, महंगाई कम करने के भी, 15 लाख की भी सबकी। लेकिन लागू क्या हुआ, मिला क्या?

अब सोचना पिछड़े दलित आदिवासी को है कि कौन उसे संख्या के हिसाब से हिस्सेदारी दिला सकता है? किसके विचारों में वास्तव में सामाजिक न्याय है ? और कौन सामाजिक न्याय, समानता को समरसता कहकर कमजोर को बलवान के साथ समरस करके मिलाकर रखना चाहता है। समरसता मतलब जो समर्थ कहे उसे मानना। समानता मतलब समर्थ के बराबर सामाजिक रूप से कमजोर का भी अधिकार।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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