यह भारतीय लोकतंत्र की कठिन परीक्षा का दौर
राहुल गांधी की दोषसिद्धि के गुण-दोष, सजा, परिस्थितियों और शिकायतकर्ता के कहने पर कार्रवाई पर बीच में रोक की जांच आने वाले दिनों में की जाएगी

- जगदीश रत्तनानी
राहुल गांधी की दोषसिद्धि के गुण-दोष, सजा, परिस्थितियों और शिकायतकर्ता के कहने पर कार्रवाई पर बीच में रोक की जांच आने वाले दिनों में की जाएगी। कांग्रेस पार्टी खुद इस सजा पर रोक लगाने के लिए कदम उठाएगी। फिर भी भारत दुनिया के सामने जो बड़ी कहानी सुना रहा है, कि भारत में सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी का सबसे महत्वपूर्ण सदस्य क्रोनिज्म, अडानी समूह तथा उस समूह के उस समय के सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के साथ संबंधों पर कतिपय बहुत ही असहज सवाल उठाने के तुरंत बाद संसद से बाहर है- उसके सामने ये तात्कालिक कदम महत्वहीन हैं।
मानहानि के मामले में सूरत की एक अदालत द्वारा दो साल की सजा सुनाए जाने के बाद राहुल गांधी को लोकसभा की सदस्यता से तत्काल अयोग्य करार दिया जाना (कपिल सिब्बल के शब्दों में 'अजीब') हाल के वर्षों में भारत के लोकतांत्रिक मानकों के तेजी से गिरने की दिशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। हाल ही में अमेरिका में सिलिकॉन वैली बैंक के डूबने के मद्देनजर हमारे बैंकों के लिए 'स्ट्रेस टेस्ट' की बात की जा रही है। अगर भारतीय लोकतंत्र के लिए इसी तरह का स्ट्रेस टेस्ट होता तो राष्ट्र और उसके लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने वाली संस्थाओं का खराब प्रदर्शन नजर आता क्योंकि कई घटनाओं ने राजनीतिक सरगर्मी बढ़ा दी है, राजनीतिक बहस को निरुपयोगी साबित किया है तथा विपक्षी दलों को इसके विरोध में एकजुट कर दिया है।
निश्चित रूप से राहुल गांधी की दोषसिद्धि के गुण-दोष, सजा, परिस्थितियों और शिकायतकर्ता के कहने पर कार्रवाई पर बीच में रोक की जांच आने वाले दिनों में की जाएगी। कांग्रेस पार्टी खुद इस सजा पर रोक लगाने के लिए कदम उठाएगी। फिर भी भारत दुनिया के सामने जो बड़ी कहानी सुना रहा है, कि भारत में सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी का सबसे महत्वपूर्ण सदस्य क्रोनिज्म, अडानी समूह तथा उस समूह के उस समय के सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के साथ संबंधों पर कतिपय बहुत ही असहज सवाल उठाने के तुरंत बाद संसद से बाहर है- उसके सामने ये तात्कालिक कदम महत्वहीन हैं। कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, सारा ध्यान राहुल गांधी को चुप कराने की कोशिश, अडानी घोटाले, हिंडनबर्ग के आरोपों के मद्देनज़र जेपीसी जांच की मांग और राहुल द्वारा उठाये मुख्य सवाल पर रहेगा कि अडानी के शेयरों में किसका पैसा लगाया जा रहा था? संसद से बाहर होने के बाद राहुल इन सवालों को लोगों तक ले जाने, राजनीतिक विमर्श बनाने के लिए और अधिक सुसज्जित हो गए हैं।
राजनीतिक रूप से कम से कम कुछ भाजपा समर्थकों सहित कई पर्यवेक्षकों को चिंता होगी कि राहुल पर हमला और संसद में उन्हें चुप कराने का प्रयास राहुल को नायक बना सकता है। ऐसे प्रयास भाजपा के लिए काफी मददगार नहीं होंगे तथा इस आशंका की पुष्टि करेंगे कि अडानी कनेक्शन वास्तव में भयावह तथा सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान के शीर्ष में गहरे तक फैला हुआ है, परन्तु यह भी एक साइड स्टोरी है और समय के साथ इसका भाजपा पर असर नजर आ सकता है या संभवत: नजर भी न आए। फिलहाल, जिस हद तक भाजपा को इस मामले में दोषी के रूप में देखा जाता है और यह कि वह राहुल की अयोग्यता से लाभान्वित होने वाली पार्टी है, देश और दुनिया इस बात को नोट करेगी कि भाजपा अपने उठाए कदमों के आने वाले नतीजों की परवाह नहीं करती है।
विपक्षी नेताओं के खिलाफ दर्ज मामलों की संख्या, महाराष्ट्र में सरकार गिराने, दिल्ली में आप सरकार पर डाले गए दबाव और राजनीति पर थोपे जा रहे कई अन्य दबावों को मिलाकर यह जताने की कोशिश की जाती है कि जो भी उनके खिलाफ खड़ा होगा, उसे कुचल दिया जाएगा। इस समय की राजनीति में क्रोध, कड़वाहट यहां तक कि बदला लेने और अनवरत बदमाशी की भावना प्रतीत होती है। यह सत्ता के शीर्ष स्तर पर बैठे कुछ लोगों का मानसिक मेकअप हो सकता है लेकिन इस मेकअप ने देश को नकारात्मकता की चपेट में फंसे एक राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसके लोकतांत्रिक संस्थानों का स्वरूप बिगाड़ दिया गया है और इसके समृद्ध इतिहास को अंदर से लूट लिया गया है। भारत को खोखला कर दिया गया है।
यह भारत की लोकतांत्रिक परंपराओं तथा लोकतंत्र की बहुप्रशंसित प्रकृति के बारे में क्या कहता है? हम दूसरे मुद्दे पर पहले विचार करेंगे। दूसरे यानी लोकतंत्र की बहुप्रशंसित प्रकृति पर विचार करें तो इस प्रवृत्ति की तत्काल या धीमी मृत्यु हो सकती है। अचानक तख्तापलट, किसी महत्वाकांक्षी सैन्य अधिकारी का पैलेस पर कब्जा करना, एक ऐसा देश जो दिवालिया हो रहा है, जिसके पास कोई विदेशी मुद्रा नहीं बची है या लड़ाई के समय सड़कों और जंगलों में सैनिकों के रूप में काम करने वाले एक-दूसरे से लड़ रहे लोग हैं, वह एक ऐसा समय होता है जब लोकतंत्र का पतन होता है और किसी महत्वाकांक्षी तानाशाह का उदय होता है। हमने सोचा कि यह भारत में नहीं बल्कि कहीं और हुआ है। निश्चित रूप से यह सच है क्योंकि लोकतंत्र की रक्षा के लिए निर्मित मानक उपायों के माध्यम से भारतीय लोकतंत्र आज भी मजबूत है- हमारे यहां हर पांच साल में चुनाव होते हैं, केंद्र और राज्यों में सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण होता है, सेना पेशेवर है, संसद की बैठकें होती हैं, विधेयक पारित होते हैं और कुछ बहसें होती हैं। वास्तव में राहुल गांधी से संबंधित अधिकांश कार्रवाइयों को वर्ष 2024 के आगामी चुनावों से जोड़ा जा रहा है। इसलिए लोकतांत्रिक संस्थाओं को लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए आवश्यक और सुचारु रूप से काम करने के लिए हर चीज मौजूद है। फिर भी यह स्पष्ट भावना है कि सब कुछ खाली हो गया है, खोखला हो गया है और ये संस्थाएं एक बड़े राष्ट्र की बजाय किसी दिए गए प्रतिष्ठान के लिए काम कर रहीं हैं।
2018 में प्रकाशित स्टीवन लेविट्स्की और डैनियल ज़िब्लैट की पुस्तक 'हाउ डेमोक्रेसीज़ डाई' एक ऐसे समय का उल्लेख करती है जब 'राजनेता अब अपने प्रतिद्वंद्वियों को दुश्मन मानते हैं, स्वतंत्र प्रेस को डराते हैं .., अदालतों, खुफिया सेवाओं और नैतिक जिम्मेदारियों की रक्षा के लिए बनाये गये कार्यालयों सहित हमारे लोकतंत्र के संस्थागत बफ़र को कमजोर करने की कोशिश करते हैं...। महान न्यायविद लुई ब्रैंडिस ने राज्य, जिनकी 'लोकतंत्र की प्रयोगशालाओं' के रूप में प्रशंसा की गई थी, वे अधिनायकवाद की प्रयोगशाला बनने के खतरे में हैं...' लेखक दुनिया के सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र के बारे में बात कर रहे हैं, लेकिन वे सबसे बड़े लोकतंत्र के बारे में भी यही बात कर सकते हैं। लेखकों ने द गार्डियन में लिखा- 'लोकतंत्र को नष्ट करने के कई सरकारी प्रयास 'कानूनी' हैं, इस अर्थ में कि वे विधायिका द्वारा अनुमोदित हैं या अदालतों द्वारा स्वीकार किए जाते हैं।
उन्हें लोकतंत्र में सुधार के प्रयासों के रूप में भी चित्रित किया जा सकता है- न्यायपालिका को अधिक कुशल बनाना, भ्रष्टाचार का मुकाबला करना या चुनावी प्रक्रिया में सुधार लाना। समाचार पत्र अभी भी प्रकाशित होते हैं लेकिन उन्हें खरीद लिया जाता है या खुद ही सेंसरशिप करने के लिए मजबूर किया जाता है। नागरिक सरकार की आलोचना करना जारी रखते हैं लेकिन वे अक्सर खुद को कर या अन्य कानूनी परेशानियों में फंसा पाते हैं। ये सारी बातें जनता में भ्रम के बीज बोती हैं। लोगों को इस बात का तुरंत एहसास नहीं होता कि क्या हो रहा है। कई लोग इस भरोसे में रहते हैं कि वे लोकतंत्र के तहत रह रहे हैं।'
क्या हम मानते हैं कि हम एक लोकतंत्र में रह रहे हैं? यह पहला बिंदु है जिस पर हम बाद में विचार कर रहे हैं, भारत की ऐतिहासिक कथाओं में कही गईं लोकतांत्रिक परंपराओं को सामने लाता है। भारतीय बुद्धिजीवियों में से कई लोगों ने वर्षों से इस संदेश को आत्मसात किया था कि आपातकाल अपवाद था और लोकतंत्र ही शासन विधि है। इस तरह भारत दुनिया को यह संदेश देता है। अब यह व्याख्या सरल लगती है। भारत के पास इस सवाल का पता लगाने के लिए एक गहरी सोच है- क्या हम वास्तव में एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं? या लोकतंत्र वह कहानी है जिसके बारे में राष्ट्र और उसके लोग जानते हैं कि हम वह नहीं हैं जो हम सोचते हैं या होने का दावा करते हैं तथा जिस कहानी को हम खुद को और दुनिया को बेचते हैं।
भारत की लोकतांत्रिक परंपराएं वापस इतिहास की गहराई में जाती हैं लेकिन जैसा कि प्रोफेसर माधवन पालट ('सलेक्टेड वर्क्स ऑफ जवाहरलाल नेहरू' के संपादक) ने किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट द्वारा किंग्स कॉलेज, लंदन में आयोजित 2023 नेहरू मेमोरियल लेक्चर देते हुए कहा- 'एक लंबी थीसिस है कि भारतीयों को उनके औपनिवेशिक स्वामी द्वारा सिखाया गया था कि लोकतांत्रिक कैसे बनें।' उन्होंने यह भी बताया कि एडविन लुटियंस द्वारा सरकारी इमारतों में से एक के पोर्टल पर एक शिलालेख है जिसमें कहा गया है कि लोगों को स्वतंत्रता पाने से पहले स्वतंत्र होना सीखना होगा। पालट ने अपने व्याख्यान में बताया कि लुटियंस निश्चित रूप से गलत था, लेकिन हमारे आज के नेता हमें बताते हैं कि वह सही था!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट: दी बिलियन प्रेस)


