ऐसो रंग रंग दीन्हों गुजरिया...
अब इस बक्से का ताला तोड़ ही देना चाहिए....मेरे शौहर कह रहे थे...जाने बड़े मियाँ ने क्या छुपा कर रखा है कि चाबी ही नहीं मिल रही है।

—शुभदा मिश्र
अब इस बक्से का ताला तोड़ ही देना चाहिए....मेरे शौहर कह रहे थे...जाने बड़े मियाँ ने क्या छुपा कर रखा है कि चाबी ही नहीं मिल रही है।
क्या छुपाकर रखेंगे जी....मैंने तुनककर कहा... सब कुछ तो उन्होंने हम लोगों को दे ही दिया है। घर हम लोगों के नाम कर ही दिया । तुम्हारे लिए दुकान कर दी। बच्चों के लिए सब करते ही रहते थे। कोई धन्नासेठ तो थे नहीं। स्कूलमास्टर थे बेचारे। जो कमाते थे, हम लोगों पर ही खर्च करते थे।
तो फिर यह बक्सा क्यों बंद रखा। हो सकता है इसमें तुम्हारी माँ के कुछ जेवर हों। सोचे होंगे, जो अंतिम समय में सेवा करेगा, उसे दूंगा।
ऐसा हो सकता है, मैं सोचने लगी। मगर उन्होंने तो सेवा करने का कोई मौका ही नहीं दिया। अचानक ही चले गए। आज उनको गए दो महीने हो गए। ऐसा लगता है, जैसे घर की आत्मा ही चली गई। उपर छत के अकेले कमरे में रहते थे। वहाँ जाने की हिम्मत ही नहीं होती।
मेरे शौहर मुझे अक्सर छेड़ते रहते...बुढ़ऊ शादी क्यों नही किए। जरूर किसी के इश्क में देवदास बने हुए थे।
मैं सोचती। मैंने तो उन्हें कभी किसी स्त्री, किसी लड़की के साथ घुलते मिलते नहीं देखा। हाँ, बहुत साल पहले जब मैं पाँच छह साल की रही होऊंगी, तब देखी थी एक लड़की के साथ गपशप करते।
लड़की बड़ी सुंदर थी। दिखने में ही नहीं, हर बात में। हमारे कस्बे की कन्याशाला में टीचर होकर आई थीं। गणित की टीचर। कॉलेज से नई नई पढ़कर निकली थी। क्या कोर्स है, क्या पढ़ाना है, कैसे पढ़ाना है, उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा थां। स्कूल की अध्यापिकाऐं मदद करने की बजाये खिंचाई करने वाली। बेचारी बहुत परेशान। कि उनकी मकान मालकिन ने समझाया...हमारे पड़ोस कें मुख्तार मास्टर लड़कों के स्कूल में गणित पढ़ाते हैं।
आप तो उनसे बात करके देखो। मकानमालकिन बुजुर्ग थीं। पति की मृत्यु के बाद वही घर की मुखिया थीं। सब उन्हें आदर से सेठानीजी कहते थे। उन्होंने मुख्तार भाई को बुला भेजा। मुख्तार भाई उनके घर से लौटे तो बेहद खुश। उन्होंने कुछ किताबों में निशान लगाकर मुझे उन टीचर के पास भेजा। टीचर मुझे बहुत प्यारी लगीं। फिर तो मैं अक्सर उनके पास जाने लगीं। कभी अकेले, कभी मुख्तार भाई के साथ। उनकी बहुत सी उलझने थीं। पढ़ने पढाने की ही नहीं, स्कूल के माहौल, प्रबंधक समिति के दांव पेंच, लोगों की मानसिकता।
मुख्तार भाई समाधान सुझाते। सलाहें देते। बातचीत जाने कब शेरो शायरी पर आ गई। उन्हें शेरो शायरी का बहुत शौक। मुख्तार भाई को तो दीवान के दीवान जबानी याद। एक से एक शेर, गजलें कत्तऐ सुनाये जाते, वे नोट करती जातीं। फिर एक दिन बोलीं, आप तो मुझे कुछ ऐसे हास्य वाले शेर बताईये जो पिकनिक वगेैरह में, मस्ती करने में, धमाल मचाने में काम आयें। उनके बहुत जिद करने पर मुख्तार भाई ने कुछ बहुत ही हँसानेवाले शेर सुनाए, जिसमें एक मुझे अभी भी याद है...आए वो मेरी मजार पर सिगरेट जला कर चल दिए। दिये में जो तेल था, सर पर लगा कर चल दिये। वे तो हँसते हँसते लोट पोट हो गईं। सेठानी जी भी खूब हँसी। और लोग भी। सेठानीजी घर के सबसे सामनेवाले वाले कमरे में चैकी पर बैठी रहतीं। उनके आसपास कुर्सियाँ रखी रहती।
आनेवाले उन्हीं में बैठते। मुख्तार भाई भी। मुख्तार भाई आते तो सेठानीजी टीचरजी को उनके कमरे से बुलवा लेतीं। जब बातचीत रंग लाने लगती तो घर के बाकी लोग भी शामिल हो जाते। कई बार कुछ पड़ोसी भी।
उस दिन होली थी। शाम ढले उनके घरं गुझिये खाने का निमंत्रण था। मुख्तार भाई गुझिये भी खा रहे थे और शेर भी सुनाते जा रहे थें। टीचरजी अपनी नोट बुक और पेन लिये बैठी शेर नोट करती जा रही थीं। पेन उन दिनो ऐसे होते थे कि उसमें स्याही भरी जाती थी। वे कुछ शेर नोट कर रही थीं कि बिजली गोल। उन्होंने स्याही निकालने के लिए पेन को झटका तो स्याही के छींटे मुख्तार भाई के कुर्ते में।
मुख्तार भाई बोल उठे...अरे। उनका अरे कहना था कि टीचरजी ने शरारत से कुछ झटके और मार दिए। झटके यानी छींटे। वे अरे अरे कहते कुर्सी पर दायें बायें होने लगे। टीचरजी को मजा आने लगा। दे दनादन छींटे पर छींटे। छींटे मार मार कर मुख्तारभाई का पूरा कुर्ता ही रंग दिया। मुख्तार भाई उचक उचक कर बचाव करते कहते रहे...अरे भई, होली रात को नहीं खेली जाती। अरे भई बख्श दीजिए। अरे भई, ये सरासर धोखा है, गुझिये खाने बुला लिए ओैर गरीब का हुलिया बिगाड़ रहे हंै।ं अरे भई, बड़े जालिम हैं दया नहीं आती।
वे अरे भई, अरे भई करते गुहार लगाते रहे। मैं और टीचरजी खूब खुलखुल हँसते जाते। अँधेरे में सेठानी जी बिचारी को कुछ समझ नहीं आये। मुख्तार भाई की अरे भई, अरे भई सुनते कहने लगीं...सही में बहुत मच्छड़ हो गए हैं हमारे घरं। अँधेरे में और दुष्ट हो जाते हैं...।
बहुत दुष्ट...मुख्तार भाई बोले।
घर लौटते हुए रसरंग में सराबोर मुख्तारभाई झूठमूठ मुझपर ही बिगड़ने लगे...तू भी उन्हीं का साथ दे रही थी। मैं बोली... पेन तो आपकी जेब में भी थी। आपने क्यों नहीं उनकी साड़ी सराबोर कर दीं। मुख्तार भाई चुप हो गए।
फिर स्कूल में परीक्षायें हुईं। गर्मी की छुट्टियाँ आ गईं। टीचरजी दूर अपने शहर चली गईं। अपने घर। वहाँ से उनकी शादी का कार्ड आया। मुख्तारभाई बहुत देर तक कार्ड लिए बैठे रहे थे। फिर उन्होंने बधाई का तार भेजा था मेरे नाम से।
फिर टीचरजी की कोई चर्चा कभी नहीं हुई। समय के साथ वे बिसर भी गईं।
मुख्तार भाई भी अपनी जिम्मेदारियों में खो गए। पिता का इंतकाल जब मैं गोद में थी, तभी हो गया था। कुछ दिनो बाद माँ का भी इंतकाल हो गया।
मुख्तारभाई ने मुझे पढ़ाया लिखाया। मेरी शादी की। शौहर बेकार थे सो उनके लिए दुकान खोल दी। मेरे बालबच्चों की परवरिश पढ़ाई लिखाई जैसे सब उन्हीं के जिम्मे। ट्यूशन वे पहले भी लेते थे। अवकाश प्राप्ति के बाद तो बहुत लड़के आने लगे। पढ़ाते अपने ऊपर वाले कमरे में ।
उनके कमरे की सफाई करने मैं ही जाती थी। उनकी अलमारियाँ, रैक, किताबे,कपड़ें सब साफ कर ठीक से रखती। मगर उनका वह छोटा सा बक्सा कभी खोलकर नहीं देखा। वह दीवार के सबसे ऊंचे ओटाले में चुपचाप रखा रहता। एकाध बार देखा, वे बक्सा खोले, खोये हुए सा बैठे हुए हैं। मुझे देखते ही उन्होंने बक्सा बंद कर दिया।
मुझे लगता, जरूर वे उस बक्से में उन लोगों के लिएं कुछ रखकर गए है जिनकी वे चुपचाप मदद किया करते थे।
मगर शौहर कहते, जरूर उसमें कुछ जेवर हैं।
आखिर एक दिन सीढ़ी पर चढ़कर उन्होंने बक्से को नीचे उतारा। पत्थर मार मारकर ताला तोड़ने लगे। मै, मेरे बच्चे दम साधे देखने लगे। ताला टूटा। बक्सा खुला। भीतर कोई अत्यंत पुराना कपड़ा बेहद जतन से तह करके रखा था। मेरे शौहर उठाकर झाड़ने लगे । पुराना जर्जर कुर्ता। धुंधलाई स्याही के छींटों से भरा हुआ। मेरा कलेजा फटने लगा।
शौहर ने कुर्ता एक तरफ फेंक दिया...एकदम पागल थे बुढ़ऊ...
मेरी रुलाई नहीं रुक रही थी।
14,पटेल वार्ड डोंगरगढ़


