तालाबों की पानीदार परंपरा को बचाने की जरूरत
छत्तीसगढ़ के गांवों में तालाबों की पानीदार परंपरा है। यहां एक गांव में कई-कई तालाब होते हैं

- बाबा मायाराम
राजस्थान में पानीदार परंपराएं कायम हैं। कुछ समय पहले मैं राजस्थान गया था और वहां 5 जिलों के कई तालाब देखे थे। उनमें से कई तो एक हजार व आठ सौ साल पुराने थे। बहुत साफ-सुथरे व स्वच्छ, जिनका लोग आज भी पानी पीते हैं। इन्हें देखकर सुखद आश्चर्य हुआ था। पश्चिमी राजस्थान का एक गांव है गुगरियाली। वैसे तो यह आम गांव की तरह है, पर यहां के तालाब ने इसे खास बना दिया है। इसकी पहचान इसके तालाब से भी है।
छत्तीसगढ़ के गांवों में तालाबों की पानीदार परंपरा है। यहां एक गांव में कई-कई तालाब होते हैं। इनका लोग दैनंदिन जरूरतों के लिए उपयोग करते हैं। दातौन से लेकर नहाने, कपड़ा धोने, मवेशियों को पानी पिलाने तक में तालाबों का इस्तेमाल होता है। लेकिन इन तालाबों में अब कमी भी आने लगी है। तालाब सूखने लगे हैं, उनकी जमीनों पर अतिक्रमण हो रहे हैं। जबकि राजस्थान में तालाबों की अच्छी परंपरा कायम है। इस कॉलम में इस मुद्दे पर बातचीत करना चाहूंगा।
छत्तीसगढ़ समेत देश के कई राज्यों में अच्छी तालाबों की पानीदार परंपराएं रही हैं। इसे गांव-समाज, व्यक्तियों व समुदायों ने बरसों से मिलकर बनाया है। इस पर सामलाती मेहनत की है। यह तालाब संस्कृति सदियों पुरानी है। इसके इर्द-गिर्द लोगों का जीवन जुड़ा है। यह जीवन पद्धति का हिस्सा है। शादी-विवाह से लेकर तीज-त्यौहार में इसका महत्वपूर्ण स्थान है।
यहां तालाबों को तरिया कहा जाता है। उनमें कमल के फूल खिले होते हैं। बतखें तैरती हैं। पक्षियों का कलरव होता है। जनजीवन की चहल-पहल होती है। मछुआरे मछली पकड़ते हैं। सिंधाड़े व कमल ककड़ी होती है। कई तरह की हरी भाजियां होती हैं। मवेशी यहां पानी पीने के लिए एकत्र होते हैं। एक अलग ही नज़ारा होता है। यानी इनकी अनुपम छटा निराली होती है, साथ ही इनसे लोगों की आजीविका भी जुड़ी होती है।
देश के अन्य भागों के साथ पश्चिम बंगाल, झारखंड, और ओडिशा में भी अनोखी तालाब संस्कृति पाई जाती है। मध्यप्रदेश के सतपुड़ा अंचल में भी पहले बहुत तालाब हुआ करते थे। कुएं और बावड़ियां होती थीं। लगभग हर गांव में भू-पृष्ठ के पानी को संजोने का यह माध्यम होता था।
सतपुड़ा अंचल में बारिश के पानी से रबी की खेती करने के लिए हवेली पद्धति थी। हवेली जैसी ऊंची-ऊंची मेड़ें जिससे पानी रोका जाता था और उसकी नमी में खेती की जाती थी। बिना सिंचाई के भी खेती होती थी। विशेषकर चना व कठिया गेहूं की खेती बिना सींच (सिंचाई) के होती थी। इस तरह की अन्य इलाकों में भी पद्धतियां रही हैं।
छत्तीसगढ़ में उतेरा पद्धति है जिसमें धान की फसल के साथ ही तिवड़ा, चना आदि की फसल बोई जाती है। यानी बारिश की नमी में यह फसलें हो जाती हैं। तिवड़ा का भूसा, पशुओं के लिए भी बहुत अच्छा माना जाता था। खेती के साथ पशुपालन जुड़ा ही है। लेकिन अब इनमें कमी आ रही है। खेती में मशीनीकरण के कारण खेत और बैल का संबंध भी टूट रहा है।
इसी तरह बारिश में घर की छतों से बहने वाले पानी को भी एकत्र किया जाता था, और फिर से घरेलू कामों में इस्तेमाल किया जाता था। मवेशियों को पानी पिलाने, बर्तन साफ करने, कपड़े धोने इत्यादि में यह काम में लिया जाता था। लेकिन धीरे-धीरे इनमें कमी आती जा रही है।
लेकिन राजस्थान में पानीदार परंपराएं कायम हैं। कुछ समय पहले मैं राजस्थान गया था और वहां 5 जिलों के कई तालाब देखे थे। उनमें से कई तो एक हजार व आठ सौ साल पुराने थे। बहुत साफ-सुथरे व स्वच्छ, जिनका लोग आज भी पानी पीते हैं। इन्हें देखकर सुखद आश्चर्य हुआ था।
पश्चिमी राजस्थान का एक गांव है गुगरियाली। वैसे तो यह आम गांव की तरह है, पर यहां के तालाब ने इसे खास बना दिया है। इसकी पहचान इसके तालाब से भी है, जिसे सैकड़ों साल पहले एक संत ने बनवाया था। वह संत थे सुंडाराम, उन्हीं के नाम पर इसका नाम सूंड सागर तालाब पड़ा है।
पश्चिमी राजस्थान का यह इलाका मरुस्थल कहलाता है। यहां पानी कम और गरमी ज्यादा है। इससे जीवन कठिन हो जाता है। लेकिन यहां के समाज ने सदैव ही इस कठिन परिस्थिति में रहना सीखा है। पानी को महत्व दिया है। यानी इस इलाके में पानी संजोने का काम बड़े जतन से हुआ है। बारिश की एक-एक बूंद से सागर भरा है। सागर का अर्थ समुद्र होता है,लेकिन इसका संदर्भ यहां तालाबों से है। यहां सर नाम के कई गांव मिल जाएंगे। सर यानी सरोवर या इसे तालाब भी कह सकते हैं। लूणकरणसर इनमें से एक है।
मरुभूमि को बालू का मैदान भी कहा जाता है। यहां गर्मी के दिनों में तेज आंधियां चलती हैं, जो रेत के बड़े-बड़े टीले बना देती हैं। इन टीलों को यहां धोरे कहा जाता है। गर्मी के दिनों में इन टीलों को बनते देखना, एक खेल की तरह होता है। सड़कें रेत से पट जाती हैं और गुम हो जाती हैं।
यह करीब 500 घरों का गांव है। यहां के लोगों की आजीविका खेती और पशुपालन है। यहां 12 वीं तक स्कूल है। नागणी माता का प्रसिद्ध मंदिर है। गांव के लोगों ने बताया कि इस तालाब का नाम सूंड सागर तालाब है। इसका अंगोर करीब 600 बीघा है, जो राजस्व रिकार्ड में दर्ज है। सुंडाराम महात्मा जी ने इसमें सहायता की थी। वे ही तालाब का संरक्षण करते थे।
यहां हर ग्यारस व अमावस्या को गांव के लोग श्रमदान करते हैं, जिससे तालाब की खुदाई हो जाती है। मिट्टी की खुदाई के लिए मनरेगा की मदद ली जाती है। और उस साद मिट्टी को खेतों में डालते हैं, जिससे पैदावार अच्छी हो। तालाब की मिट्टी बहुत उपजाऊ होती है।
गांव वाले बतलाते हैं कि इस तालाब में 12 महीने पानी रहता है, सूखता नहीं है। पूरा तालाब बारिश में लबालब भर जाता है। इस तालाब की दीवारें पंचायत ने बनवाई हैं। दीवारों का फायदा यह है कि इससे तालाब में मिट्टी कम जाती है। इसकी पाल तालाब की रक्षा करती है। इस तालाब की साफ-सफाई पूर्वज भी रखते थे। वे भी रख रहे हैं और आगे भी बच्चे भी रखेंगे। नहर का पानी तो कभी-कभी मिलता है। टूयूबवेल भी बंद हो जाते हैं, तालाब से तो हमेशा पानी मिलता है।
वे आगे बतलाते हैं कि उनकी आजीविका पशुपालन से भी जुड़ी है। हर घर में मवेशी हैं। इन मवेशियों को भी पीने के लिए पानी चाहिए। एक मोटे हिसाब के अनुसार एक घर के लिए प्रतिमाह 4 टैंकर पानी लगता है। अगर यह पानी खरीदना पड़े तो काफी धनराशि पानी पर ही खर्च हो जाएगी। अगर तालाब से पानी उन्हें मुफ्त में मिल जाता है।
तालाब के प्रबंधन के नियमों के बारे में गांव वालों ने विस्तार से बताया। उन्होंने बताया कि तालाब के अंगोर के आसपास पेशाब व शौच करना मना है। यदि तालाब के आसपास कोई जानवर मर जाता है तो तुरंत उठवाने की व्यवस्था की जाती है। तालाब से सभी लोगों को पानी हमेशा मिलता है, सुनिश्चित किया जाता है। गांव में शादी-विवाह, सभा, चुनाव के समय तालाब में गंदगी न हो, इसलिए सूचना दे दी जाती है।
इसके अलावा, तालाब में टैंकर से पानी ले जाना मना है, पर कोठी से पानी ले जाया जा सकता है। गांव की सरहद तक टैंकर ले जा सकते हैं, पर गांव के बाहर टैंकर ले जाना मना है। अगर कोई पानी बाहर ले जाता है कि तो जुर्माना तय है। वे आगे बताते हैं कि तालाब में गहरीकरण की जरूरत है। साथ ही दीवार बन जाए तो तालाब में गंदा पानी नहीं आएगा और साफ पानी पीने को मिलेगा।
कुल मिलाकर, इस गांव के लोगों ने तालाब की सार-संभाल बड़े जतन से की है और लगातार इसके रखरखाव पर ध्यान दे रहे हैं। तालाब की साफ-सफाई, गहरीकरण से लेकर तालाब के उपयोग करने के नियमों का भी पालन किया जा रहा है। पानी सबको मिले, इसके लिए समय- समय पर पानी को किफायत बरतने पर जोर दिया जाता है।
इस तरह की पहल छत्तीसगढ़ व अन्य राज्यों में भी करने की जरूरत है। क्योंकि यहां तालाब की संस्कृति कमजोर हो रही है। तालाबों की जगह ट्यूबवेल खोदे जा रहे हैं। सघन रासायनिक खेती की ओर बढ़ा जा रहा है। शहरीकरण की ओर रूख किया जा रहा है। लेकिन अगर हम धरती के पेट से पानी उलीचते रहे तो धरती के नीचे भी पानी खत्म हो जाएगा, जो सैकड़ों सालों से एकत्र हुआ है।
इसलिए हमें तालाबों को बचाने की जरूरत है। तालाब संस्कृति बचाने की जरूरत है, जिससे न केवल मनुष्य, बल्कि पशु-पक्षी व समस्त जीव-जगत का पालन हो सके। इसके लिए बारिश की एक-एक बूंद को बचाने के लिए तालाब ही अच्छा उपाय है। लेकिन क्या हम इस दिशा में सचमुच आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं?


