कांग्रेस के हाथ में लौटा 'सामाजिक न्याय' का अस्त्र
10 वर्षों की धमाचौकड़ी के बाद अगर भारतीय जनता पार्टी और उनके सर्वेसर्वा बन बैठे नरेन्द्र मोदी ढलान पर दिख रहे हैं

- डॉ. दीपक पाचपोर
कुछ समय से सामाजिक न्याय का मुद्दा फिर से कांग्रेस के हाथों में आ गया है जिसे पिछले दिनों हुए कर्नाटक विधानसभा के चुनावों में सफलता मिली है। छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के हो चुके तथा राजस्थान व तेलंगाना के होने जा रहे विधानसभा चुनावों में (नतीजे 3 दिसंम्बर को) जातिगत जनगणना के माध्यम से लोगों को अवसर देने की गारंटी है।
10 वर्षों की धमाचौकड़ी के बाद अगर भारतीय जनता पार्टी और उनके सर्वेसर्वा बन बैठे नरेन्द्र मोदी ढलान पर दिख रहे हैं तो उसका कारण है कांग्रेस के हाथों में लौट आया 'सामाजिक न्याय' का वह अस्त्र, जिसके बल पर उसने देश की तस्वीर व तकदीर को संवारा है। भीषण गरीबी, निरक्षरता, बदहाली, असमानता और अनेकानेक काली परतों को चीरकर एक आत्मनिर्भर व चमकदार भारत का निर्माण इसलिये हो सका क्योंकि यह मुद्दा व आजादी का मसला अंतर्गुंफित थे। स्वतंत्रता की लड़ाई में सम्प्रभुता बेशक महत्वपूर्ण थी, लोगों के सशक्तिकरण की आकांक्षा कहीं अधिक बलवती थी। स्वतंत्रता का घोषित उद्देश्य स्वाभाविक तौर पर भारत की विदेशी साम्राज्यवाद से मुक्ति का था, पर महात्मा गांधी की अगुवाई में कांग्रेस द्वारा लड़े गये आजादी के आंदोलन का प्रमुख लक्ष्य करोड़ों लोगों को सामाजिक न्याय दिलाना था।
सामाजिक न्याय ही वह आकर्षण था जिसके कारण भारत का स्वतंत्रता संग्राम केवल राजा-महाराजाओं, जमींदारों या कुलीन वर्ग का होकर नहीं रह गया था। उन्होंने भी उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था जो वंचित, शोषित, गरीब और कमज़ोर थे। गांधीजी ने अपने रहन-सहन, भाषणों, लेखों तथा कांग्रेस की बैठकों में इस बात को साफ कर दिया था कि उनके लिये आजादी के क्या मायने हैं और किनके लिये वे अपने जीवन को स्वाहा कर रहे हैं। जॉन रस्किन की जिस किताब 'अन टू दिस लास्ट' ने उन्हें रात भर सोने नहीं दिया तथा जिसे पढ़कर उन्होंने सर्वोदय को अपना तिलस्मा तैयार कर देश की सरकारों व संस्थाओं को दिया, वही 'सर्वोदय' की भावना एक तरह से लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के रूप में पल्लवित होता दिखता है। उनके विचारों की शब्द देह कही जाने वाली 'हिन्द स्वराज' पुस्तक में उनका यही मंत्र स्वतंत्र भारत की सरकारों के लिये कम्पास की तरह काम करता रहा और वही सामाजिक न्याय की गांधी की अवधारणा है।
देश स्वतंत्र होने के बाद कांग्रेस की तमाम सरकारों एवं उनके प्रमुख प्रधानमंत्रियों ने देश को इस मुद्दे पर कभी भी निराश नहीं किया। समाजवाद से प्रभावित पहले प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने करोड़ों किसानों को घोर गरीबी से बाहर निकालने के लिये कृषि को संवारने का बीड़ा उठाया। बड़े बांधों और नहरों के जाल बिछाने के अलावा खाद कारखाने, कृषि सम्बन्धी शोध व अध्ययन को बढ़ावा दिया। किसानी के काम में छोटी जोत के व सीमांत किसानों, खेतिहर मजदूरों की संख्या अधिक थी और हाथ से काम करने वाले ये सारे समाज के निचले वर्गों से ही आते थे। अब भी काफी कुछ वैसा ही है। इसके बाद उल्लेखनीय काम किया इंदिरा गांधी ने। उनकी लाई गरीबी उन्मूलन योजना, 20 सूत्री कार्यक्रम, हरित क्रांति, साहूकारी व्यवस्था का अंत, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स की समाप्ति आदि जैसे कार्यक्रम भी प्रकारांतर से सामाजिक न्याय के ही स्वरूप थे।
बीच में आए लालबहादुर शास्त्री को उतना वक्त ही न मिल पाया परन्तु उन्होंने इस काम को कहीं रुकने नहीं दिया। 1984 में आये राजीव गांधी के बारे में सोचा गया कि वे विदेशी मानसिकता में पले-बढ़े हैं इसलिये देश का कहीं अधिक पश्चिमीकरण होगा जिसमें यह मुद्दा खूंटी पर टंग जायेगा। इसके विपरीत उन्होंने पंचायती राज को मजबूत किया, नवोदय स्कूल खोले, भारत को डिजीटल बनाने में मदद की, मताधिकार की आयु को घटाया। इन सबके कारण निचले तबके के लोगों के लिये बगैर भेद-भाव अवसरों के नये-नये दरवाज़े खुले। आधुनिक व्यवस्था के बीच में भी उनके समय सामाजिक न्याय ने अपनी जगह नहीं छोड़ी थी।
1991 में जब पीवी नरसिंह राव पीएम बने, नयी वैश्विक अर्थप्रणाली का आगमन हो चुका था। इस व्यवस्था के तहत रोज-रोज खुलते नये-नये उद्योग-धंधों व कारोबार ने सामाजिक न्याय के मुद्दे को विस्मृत ही नहीं वरन उसका तिरस्कार भी किया। पश्चिम प्रवर्तित नयी व्यवस्था के अंतर्गत देश के होते कार्पोरेटरीकरण के अनुसार हाशिये पर खड़े लोगों के लिये कुछ करना फिज़ूलखर्ची तथा इकानॉमी पर बोझ डालना बताया गया।
मंडल आयोग की आरक्षण की सिफारिशों अब और कड़ी आलोचना का विषय बन गईं। यह देश का ऐसा बड़ा नरेशन बन गया कि उसके शोर-गुल में बाबरी मस्जिद के ढहाने का काम भी हो गया। इसी के बल पर पीएम बने अटल बिहारी वाजपेयी ने सामाजिक न्याय के मुद्दे को और भी पीछे ठेल दिया। वे इंडिया को शाइन करते रहे। 2004 में कांग्रेस सरकार में लौटी तो भारत के चाल बदलने की बहुत उम्मीद नहीं थी परन्तु कमान गांधी परिवार की बहू सोनिया गांधी के हाथ में थी- प्रधानमंत्री चाहे उसी वैश्विक अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करने वाले डॉ. मनमोहन सिंह थे। वे मनरेगा, भोजन का अधिकार जैसी योजनाएं लेकर आये। उन्होंने पंचायती राज को फिर मजबूत किया, खनिज न्यासों की स्थापना की, ग्राम सभाओं के अधिकार बढ़ाये और इन सबके माध्यम से कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को पुनर्जीवित किया।
पीवी नरसिंह राव एवं मनमोहन सिंह के काल में अलबत्ता एक ऐसा आत्मकेंद्रित व स्वार्थी नवधनाढ्य, खाया-पिया अघाया वर्ग तैयार हो गया जो सब्सिडी को गैर ज़रूरी मानता है, लोक कल्याणकारी योजनाओं से नफरत करता है और निचले तबकों को उसका वाजिब हक देना ही नहीं चाहता। वह पूरे समाज को थोड़े से टैक्स पेयरों व बड़े उद्योगपतियों की बपौती मानता है।
सुविधायुक्त मकान, कार, अच्छा-खासा बैंक डिपॉजिट एवं टेक्नॉलाजी से सज्जित यह छोटा सा वर्ग सामाजिक व राजनैतिक शक्तियां हासिल कर हाशिये पर खड़े वर्गों को सफे से बाहर करने पर तुला है। यही वह वर्ग है जो भारतीय जनता पार्टी व मोदी को इसलिये पसंद करता है क्योंकि वे बहुजन विरोधी सोच पर आधारित हैं। गरीबों, दलितों, किसानों, मजदूरों, अल्पसंख्यकों से घृणा करने वाला इस बात के प्रति सतर्क रहता है कि कोई भी नेता या राजनैतिक पार्टी सामाजिक न्याय पर बात न करे। इसलिये मोदी के लाये काले कृषि कानूनों के समर्थन में यही वर्ग था जो खेतों में कभी उतरा भी न हो। ये ही वे लोग हैं जो किसानों, आदिवासियों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों की आवाज उठाने वालों को जेल में डालने पर आनंदित होते हैं। कोरोना काल में सड़कों पर मरते मजदूर इनके मनोरंजन का विषय रहते हैं। सबके पीछे उनकी यही मंशा होती है कि उन्हें न्याय न मिले।
पिछले कुछ समय से सामाजिक न्याय का मुद्दा फिर से कांग्रेस के हाथों में आ गया है जिसे पिछले दिनों हुए कर्नाटक विधानसभा के चुनावों में सफलता मिली है। छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के हो चुके तथा राजस्थान व तेलंगाना के होने जा रहे विधानसभा चुनावों में (नतीजे 3 दिसंम्बर को) जातिगत जनगणना के माध्यम से लोगों को अवसर देने की गारंटी है। इसकी नौबत इसलिये आई क्योंकि भाजपा ने अपने इस 10 वर्षीय शासन में दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्गों के हकों को छीन लिया है। चोर दरवाजे से सारे अवसर पहले से सुविधासम्पन्न तथा ऊंचे तबकों को दिये जा रहे हैं।
ऐसे समय में जब लोगों के दिमाग से उनके ही पैसों से होने वाला निजी क्षेत्रों के पोषण का भूत उतर रहा है, भाजपा का ध्रुवीकरण का मुद्दा भोथरा हो चुका है- कांग्रेस का सामाजिक न्याय का मुद्दा फिर से राजनीति के सिर पर चढ़कर बोल रहा है। सामाजिक न्याय की कस्टोडियन व चैंपियन तो आखिरकार कांग्रेस ही है। विशेषकर, नेहरू-गांधी परिवार की भावना सामाजिक न्याय ही है। अब यह अस्त्र वापस गांधी परिवार के हाथ में आ गया है जिसके नये ब्रांड एंबेसडर राहुल गांधी हैं। भाजपा की मुसीबत यहीं से शुरू होती है क्योंकि उसकी न तो सामाजिक न्याय देने की हसरत है, न उसका ट्रैक रिकार्ड है और न ही उसके पास कोई ब्लू प्रिंट।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


