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बनारस का ठग

कथाकार, पत्रकार, पटकथा लेखक, इप्टा के संस्थापक सदस्य पद्मश्री ख्वाजा अहमद अब्बास की आज पुण्यतिथि है

बनारस का ठग
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कथाकार, पत्रकार, पटकथा लेखक, इप्टा के संस्थापक सदस्य पद्मश्री ख्वाजा अहमद अब्बास की आज पुण्यतिथि है। ख़्वाजा अहमद अब्बास का जन्म 7 जून 1914 को पानीपत में हुआ था, 1 जून 1987 को महज 72 वर्ष की उम्र में मुंबई में उन्होंने आखिरी सांस ली। ख्वाजा साहब उच्चकोटि के लेखक थे, यह बताने की जरूरत नहीं, उनका लेखन ही इसकी गवाही देता है। यहां पाठकों के लिए प्रस्तुत है उनकी मशहूर रचना बनारस का ठग, जो दशकों पहले लिखी गई है, लेकिन मालूम पड़ता है कि आज के हालात बयां हो रहे हैं। - संपादक

- ख्वाजा अहमद अब्बास

जगर से मत डरो मेमसाब! फोटो खींचो, सिर्फ दो रुपए। भाषा न समझने वाले यात्री ने सोचा कि दाढ़ीवाला सपेरा अजगर से औरत पर हमला कर रहा है। इसलिए वह आगे बढ़ा और दोनों हाथों से सांप को पकड़कर जमीन पर पटक दिया। विदेशी महिला अपनी भाषा में चिल्लाने लगी। सपेरे ने यात्री की गर्दन पकड़ ली, 'क्या बकवास है, बुड्ढे! तुमने मेरा काम खराब कर दिया।' फिर उसकी आंखों में समझ की चमक आई। 'तो तुम भी जादूगर हो!' यात्री ने कहा, 'मैं जादूगर नहीं हूं, लेकिन तुम क्या कर रहे थे? यह बेचारी विदेशी महिला मर सकती थी।' 'चले जाओ, मूर्ख! सांप के दांत नहीं थे। मेमसाब ने उसे सिर्फ लोगों के फोटो खींचने के लिए गले में पहना था। जाओ, हमारे रास्ते से हट जाओ पागल।'

रेलवे स्टेशन पर वाराणसी लिखा था। पुलिस स्टेशन के बाहर वाराणसी लिखा था। अस्पताल पर वाराणसी लिखा था। शराब की दुकान पर वाराणसी लिखा था। अफीम, गांजा और चरस की दुकान पर वाराणसी लिखा था। किताब की दुकान पर वाराणसी लिखा था। दवा की दुकान पर वाराणसी लिखा था। हकीम हाजीक-उल-मुल्क के क्लीनिक पर वाराणसी लिखा था। पिंजरापोल (बूढ़े या बीमार जानवरों के लिए एक घेरा) पर वाराणसी लिखा था। गौशाला पर वाराणसी लिखा था। पागलखाने पर वाराणसी लिखा था।

डाकघर में एक के बाद एक चिडियों पर मुहर लग रही थी: वाराणसी, वाराणसी, वाराणसी; हथौड़े की चोट की तरह, तबले की ताल की तरह, वाराणसी वाराणसी, वाराणसी।

लेकिन जब यात्री ने एक राहगीर से पूछा, ' भाई , यह कौन सा शहर है?' तो उसका जवाब था, 'बनारस'।
अब तक खोया-खोया और भ्रमित-सा यात्री अचानक राहत से मुस्कुरा उठा। उसकी काली आँखें पुरानी यादों से चमक उठीं। उसके सूखे होठों पर मासूम मुस्कान उभर आई। वह वही बच्चा था जो माँ के पास घर आया था और कह रहा था, 'माँ, मैं आ गया।' यात्री बहुत दूर से आया था, लेकिन उसके चेहरे पर थकान का कोई निशान नहीं था। उसके घर में धुले हुए खुरदरे कपड़ों पर यात्रा की कोई गंदगी नहीं थी। उसके पास न तो बिस्तर था, न ट्रंक, लेकिन न जाने क्यों, ऐसा लग रहा था कि वह अपने कंधे पर बहुत बड़ा बोझ ढो रहा है।

उसे ठहरने की जगह चाहिए थी, इसलिए उसने एक राहगीर से पूछा, 'भैया, यहां भूली-भटियारन की सराय है?' 'नहीं,' जवाब मिला, 'लेकिन वहां एक मुस्लिम मुसाफिरखाना है।' 'गैर-मुसलमान कहां ठहरते हैं?' 'हिंदुओं के लिए कई धर्मशालाएं हैं।' 'और जो न मुसलमान हैं, न हिंदू?' उस आदमी ने एक होटल की ओर इशारा किया। बाहर एक बोर्ड लगा था, होटल वाराणसी, वाराणसी। यात्री यह सोचते हुए अंदर गया कि वाराणसी नाम दो बार क्यों लिखा है। अचानक उसने एक भयानक दृश्य देखा। एक काला सांप अपनी पूरी ऊंचाई पर उठा हुआ उसकी ओर बढ़ रहा था। वह उसके रास्ते से हट गया, लेकिन उस खूंखार अजगर को एक अर्धनग्न विदेशी महिला के सीने और कूल्हों से लिपटा देखकर और भी हैरान हो गया।

एक दाढ़ीवाला जादूगर कह रहा था, 'अजगर मेमसाब! अजगर से मत डरो मेमसाब! फोटो खींचो, सिर्फ दो रुपए।' भाषा न समझने वाले यात्री ने सोचा कि दाढ़ीवाला सपेरा अजगर से औरत पर हमला कर रहा है। इसलिए वह आगे बढ़ा और दोनों हाथों से सांप को पकड़कर जमीन पर पटक दिया। विदेशी महिला अपनी भाषा में चिल्लाने लगी। सपेरे ने यात्री की गर्दन पकड़ ली, 'क्या बकवास है, बुड्ढे! तुमने मेरा काम खराब कर दिया।' फिर उसकी आंखों में समझ की चमक आई। 'तो तुम भी जादूगर हो!' यात्री ने कहा, 'मैं जादूगर नहीं हूं, लेकिन तुम क्या कर रहे थे? यह बेचारी विदेशी महिला मर सकती थी।' 'चले जाओ, मूर्ख! सांप के दांत नहीं थे। मेमसाब ने उसे सिर्फ लोगों के फोटो खींचने के लिए गले में पहना था। जाओ, हमारे रास्ते से हट जाओ पागल।'

फिर उसने औरत की तरफ देखा और अपनी खोपड़ी की तरफ इशारा किया। 'मेमसाब, बुड्ढे, पागल आदमी, दिमाग नहीं है, पागल आदमी। अब अजगर प्यार करेगा, मेमसाब, फोटो खींचो, सिफ़र् दो रुपये।'

अब यात्री होटल मैनेजर से बात कर रहा था। 'क्या मैं इस सराय में रुक सकता हूँ?' 'यह सराय नहीं है , यह होटल है।' 'ओह! अब सराय को होटल कहते हैं? हम्म... मैं यहाँ रुकना चाहता हूँ।' 'आप कहाँ से आए हैं?' 'अच्छा, मैं यहीं रहता हूँ... और मैं यहाँ से इतनी दूर रहता हूँ कि कोई भी उस दूरी का मतलब नहीं समझ सकता।'
मैनेजर को यह बात बिल्कुल समझ में नहीं आई. उसने अपने रजिस्टर में प्रश्नावली भरनी शुरू कर दी.
'आपने यात्रा कैसे की? मेरा मतलब है, आप यहाँ कैसे आए, ट्रेन से?'
'नहीं'
'बस से?'
'नहीं'
'हवाई जहाज से?'
'नहीं। क्षमा करें, हाँ। आप मेरी यात्रा को एक उड़ान मान सकते हैं।'
'आपका सामान कहां है?'
'जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ सामान की कोई ज़रूरत नहीं है।'
'तो आप यहाँ नहीं रह सकते.'
'क्या आप इस होटल के मालिक हैं?'
'नहीं, मैं मैनेजर हूं।'

'मालिक कौन है?'
'स्वामी भगवान काशीद्वारकानाथ भंजम हैं।'
'तो फिर इसे होटल क्यों कहते हो? यह तो मंदिर है और भगवान के मंदिर में कोई भी यात्री मेहमान बन सकता है।'
मैनेजर हंसा, 'लेकिन यहाँ का मालिक किराया मांगता है। एक कमरे का किराया चालीस रुपए प्रतिदिन है। क्या तुम्हारे पास इतने पैसे हैं?'
यात्री क्रोधित हुआ, 'तो फिर इस जगह का मालिक कोई भगवान नहीं, शैतान है। मैं यहाँ नहीं रहना चाहता। मैं जा रहा हूँ।'
यह कहकर वह बाहर निकल गया।

उसके जाने के बाद मैनेजर ने मालवाहक से कहा, 'हमें किन पागलों से निपटना पड़ता है!'
और मालवाहक बोला, 'साहब, वह बहुत खतरनाक पागल है। मैंने अभी-अभी उसे अमेरिकी मेमसाब को परेशान करते देखा था और वह सांप छीनकर भागने ही वाला था।'

'तो तुमने मुझे क्यों नहीं बताया? अगर ऐसे पागल हमारे होटल के आस-पास घूमते रहेंगे तो पर्यटक यहाँ आना बंद कर देंगे।'
फिर उसने फोन उठाया और 4068 डायल किया।

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अब यात्री भीड़ भरे बाजार में जा रहा था। वह सोच रहा था, मेरे दिनों में इतने लोग नहीं थे। उसने बनारसी साड़ियों और रेशमी कपड़ों की दुकानें देखीं। फिर उसने कुछ दुकानों में ऊनी कपड़े रखे देखे। तो उसने सोचा, यह सर्दियों के लिए अच्छा स्टॉक है; ये सब प्रगति के संकेत हैं।

कुछ दूर जाकर देखा तो सड़क पर मैले-कुचैले फटे-पुराने कपड़े पहने लोग नजर आए। कुछ समझ में नहीं आया। दुकानों में महंगी बनारसी साड़ियों के ढेर लगे थे , पर बाहर खड़ी औरत फटे-पुराने कपड़े पहने थी, जिनसे वह अपना और बच्चे का शरीर ढांपने की कोशिश कर रही थी। उसने दो दुबले-पतले मजदूरों को एक ठेला खींचते देखा। वे भी फटे -पुराने कुर्ते और धोती पहने हुए थे। पास ही एक दुकान में लालाजी अंगीठी पर हाथ ताप रहे थे। दूसरी तरफ, सुनहरे कढ़ाई वाला गर्म ऊनी कश्मीरी दोशाला पहने, सिर पर बीस गज पगड़ी रखे एक मौलवी मस्जिद की तरफ तेजी से बढ़ रहे थे।

तभी एक और बड़ी गाड़ी एक साड़ी की दुकान पर रुकी। एक आदमी उतरा और अंदर चला गया। उसकी काली गोल-मटोल उंगलियों पर हीरे चमक रहे थे, जैसे गंदे बदबूदार नाले के पानी में सितारे चमक रहे हों। किसी ने पूछा, 'क्या तुमने इन्हें पहचाना? ये सेठ करोड़ीमल पकौड़ीमल हैं। इन्होंने ब्लैक मार्केट में एक करोड़ रुपए कमाए हैं, जिनमें से एक लाख का मंदिर बनवाया है । ये अपनी बेटी को पांच लाख का दहेज देने की योजना बना रहे हैं, इसलिए यहां आए हैं। खास साड़ियां बनवाई हैं, एक-एक साड़ियां पांच सौ रुपए की हैं। समझे?'

यात्री को कुछ समझ नहीं आया। उसे बस इतना समझ आया कि दीवार के पास खड़ी महिला ठंड से कांप रही थी और उसकी गोद में बच्चा नीला पड़ रहा था।
इसी समय पास के मंदिर में एक भजन शुरू हुआ, अचानक यात्री के साथ कुछ गड़बड़ हो गई। वह भजन के साथ-साथ जोर-जोर से गाने लगा, लेकिन यह उसका अपना संस्करण था। बाजार से लोग उसके चारों ओर इकठ्ठा होने लगे क्योंकि उसकी आवाज़ उनके दिल को छू गई थी। उन्होंने सदियों से ऐसी आवाज़ नहीं सुनी थी। यात्री गा रहा था:

हे भगवन् क्या यह आपका दरबार है ?
जहां अंतहीन उत्पीड़न है?
जोकर महलों में रहते हैं,
चोर-लुटेरे मौज-मस्ती करते हैं,
मूर्ख को बुद्धिमान कहते हैं,
बुद्धिमान को गँवार कहते हैं,
एक ऊनी वस्त्र पहने हुए है,
दूसरा बाज़ार में नंगा खड़ा है,
क्या यह आपका दरबार है ?
हे भगवन् , यह सरकार क्या है ?

यह सुनकर किसी ने कहा, 'वह जरूर कोई कम्युनिस्ट होगा।' दूसरे ने कहा, 'वह कबीरपंथी लगता है। ये शब्द कबीर जैसे हैं।' तीसरे ने कहा, 'नहीं, नहीं। आजकल के कबीरपंथी कबीर के शब्द नहीं गाते।' चौथे ने कहा, 'मैं कहता हूं, वह पागल है। बेचारा पागल है।' पांचवें ने कहा, 'कितना खतरनाक पागल है, जो ऐसे खतरनाक भजन गाता है !' छठे ने कहा, 'वह तो सिर्फ गा रहा है, बेचारा, वह कोई नुकसान नहीं कर रहा।' सातवें ने कहा, 'तुम्हें कैसे पता? ऐसे शब्दों से आग लग सकती है।' आठवें ने कहा, 'ऐसे शब्द जहरीले सांप हैं। इनके काटने का कोई इलाज नहीं है।'

अचानक किसी ने कहा, 'देखो, पागल आदमी क्या कर रहा है!' सबने पलटकर देखा कि यात्री ने सेठ की शॉल उतारकर एक रिक्शावाले को दे दी थी जो फटी हुई शर्ट और पैंट में ठिठुर रहा था। शॉल मिलते ही उसने जल्दी से अपना रिक्शा आगे बढ़ाया और नज़रों से ओझल हो गया। सेठजी अभी सहायता के लिए चिल्ला ही रहे थे कि मस्जिद से लौट रहे मौलवी ने चिल्लाना शुरू किया, 'अरे, अरे दोशाला , चोर के पीछे भागो, उसके पीछे भागो, वह चुरा ले गया है।' लेकिन मुसाफिर ने वह ऊनी दोशाला भिखारिन को दे दी, जिसने अपने बच्चे को उसमें लपेटा और नज़रों से ओझल हो गई। अब सभी मुसाफिर को ढूँढ रहे थे, लेकिन मुसाफिर गायब हो चुका था। मौलवी की दाढ़ी क्रोध से काँप रही थी; वे लगातार बुदबुदा रहे थे, मानो नमाज़ पढ़ रहे हों। 'अरे, मज़हर - उल - अजैब , बदमाश यहीं था और अब चला गया। किसी ने कहा, 'ये दिनदहाड़े डकैती है। सेठजी और मौलवी को थाने में रिपोर्ट दर्ज करानी चाहिए। चोर तुरंत पकड़ा जाएगा।'

दूसरे ने कहा, 'वह चोर नहीं है। वह ठग है। उसने हमारी आँखों में धूल झोंकी और शॉल लेकर गायब हो गया।' तीसरे ने कहा, 'वह सचमुच ठग नहीं लग रहा था, वह तो एक सीधा-सादा बूढ़ा आदमी लग रहा था।' दूसरे ने उत्तर दिया, 'बनारस में अधिकांश लोग भोले-भाले दिखते हैं। वह निश्चित रूप से ठग था।' चौथे ने कहा, 'मुझे नहीं लगता कि वह चोर या ठग था, अन्यथा वह चोरी का माल खुद ही ले जाता। दूसरों को क्यों देता? वह पागल होगा। वह पागल आदमी होगा।' सेठ जिसका पेट क्रोध से वैसे ही काँप रहा था जैसे मौलवी की दाढ़ी क्रोध से काँप रही थी, बोला, 'यह पागलपन बहुत खतरनाक है, अगर ऐसे दो-चार पागल और आ गए तो हमारा धंधा चौपट हो जाएगा।' यह कहकर उसने पास पड़े फोन पर डायल किया... 4068।

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वहाँ से बहुत दूर, सारनाथ के खंडहरों में यात्री घूम रहा था। यात्री बहुत देर तक भगवान की मूर्ति के सामने खड़ा रहा; गौतम की अभयमुद्रा उसे सांत्वना दे रही थी और वे पत्थर की आँखें, जो दुनिया के दर्द को समझ चुकी थीं, उससे बातें करती रहीं। यात्री की आँखें मौन की भाषा बोल रही थीं, 'मुझे शक्ति दो, मुझे शांति दो, हे शाक्यमुनि, बहुत दिनों के बाद मैं लौटा हूँ।'

गौतम के होंठ बिना हिले-डुले बोल उठे। 'तुम कहीं से वापस नहीं आए। तुम कभी कहीं गए ही नहीं। तुम लोगों के दिलों में सोए हुए थे। अब तुम उनके दिलों में जाग गए हो। तुम यहीं रहोगे। तुम यहीं हो...हर जगह, जैसे मैं यहाँ हूँ, मैं वहाँ हूँ, मैं हर जगह हूँ। हम हर जगह हैं। हम हर समय में हैं। लेकिन आज, खास तौर पर, हम यहाँ हैं, यहीं।'

फिर वह बुद्ध मंदिर की ओर चला गया। प्रवेश द्वार पर उसने संगमरमर की पटियाएँ देखीं, जिन पर धनी दानियों के नाम खुदे हुए थे; उनमें सेठ करोड़ीमल पकौड़ीमल भी थे, जिनकी शॉल उसने आज ही ली थी।

'यह क्या है?' उसने एक भिक्षु से पूछा । पीले वस्त्र पहने भिक्षु ने कहा, 'ये उन दानवीरों के नाम हैं जिन्होंने मंदिर निर्माण के लिए पैसे दिए हैं।' वह मंदिर में घुस गया। वहाँ उसने देखा कि लाखों-करोड़ों मनुष्यों को मुक्ति देने वाली महान आत्मा एक पीले धातु के आवरण में थी। भिक्षु बोला, 'मूर्ति के चारों ओर यह आवरण आठ मन सोने से बना है।'

और यात्री ने उत्तर दिया, 'यह सोना कितनी शक्तिशाली धातु है; यह बुद्ध जैसी आत्मा को अपनी मुठ्ठी में रख सकता है!' यह टिप्पणी भिक्षु की समझ से परे थी। इस बीच, उसने देखा कि भिक्षु पेंटिंग, मूर्तियाँ और किताबें बेचने वाली दुकान पर खड़ा था। यात्री ने एक और भिक्षु को देखा जो बुद्ध की मूर्ति के सामने लगातार दंडवत कर रहा था। 'लेकिन महात्मा बुद्ध ने कहा था, 'मेरी मूर्ति कभी मत बनाना।' उन्होंने यह भी कहा, 'कभी किसी मूर्ति के सामने दंडवत मत करना।'

लेकिन भिक्षु कोई प्रार्थना कर रहा था और हर बार वह जमीन पर गिर जाता और अपना माथा रख देता। यात्री ने देखा कि ठंडे संगमरमर के फर्श पर भिक्षु ने एक गर्म ऊनी शॉल बिछा रखा था ताकि उसका शरीर ठंडे फर्श को न छुए। उसे लगा कि यह झूठी भक्ति भगवान बुद्ध का अपमान कर रही है; कि भिक्षु बुद्ध की पवित्र आत्मा का मजाक उड़ा रहा है। इसलिए वह नीचे झुका और एक झटके में उसने ऊनी कपड़ा खींच लिया, बहुत से भिक्षु, पहरेदार, पर्यटक उसके पीछे दौड़े, लेकिन यात्री हवा में गायब हो गया। 'वह पागल आदमी है, महाराज।' भिक्षु ने मंदिर के प्रबंधक को बताया जो अपने रजिस्टर में दान का हिसाब लिख रहा था। और गार्ड ने कहा, 'वह एक खतरनाक पागल है। उसने मूर्ति के सोने के आवरण को टुकड़े-टुकड़े कर दिया, लेकिन एक भी टुकड़ा अपने साथ नहीं ले गया। वह पूरी तरह से पागल है!' मंदिर के प्रबंधक ने कहा, 'बुद्धं शरणं गच्छामि।' और उसकी उंगलियों ने डायल किया...4068।

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घूमते-घूमते यात्री एक श्मशानघाट पर पहुँच गया। यात्री ने देखा कि एक अकेला बूढ़ा आदमी अपनी बाहों में कफ़न में लिपटा एक शव लेकर जा रहा है। इस अर्थी को कंधा देने वाला कोई नहीं था। यात्री बूढ़े आदमी के पास गया और बोला, 'तुम थक गए हो। मुझे शव दे दो।'

बूढ़ा आदमी बस रोता रहा। उसने शव को यात्री को सौंप दिया और कहा, 'सावधान रहना। यह मेरा इकलौता बेटा है।' उसने 'है' का इस्तेमाल किया क्योंकि वह 'था' नहीं बोल सकता था। वे दोनों घाट पर पहुँचे , जहाँ लोहे के घेरे में लकड़ी के लडों का ढेर लगा हुआ था।

एक पंडा उन पर चिल्लाता हुआ आया, 'तुम लोग यहाँ कैसे आ गए? यह तो राजाओं - महाराजाओं के दाह-संस्कार का स्थान है। यहाँ किसी का दाह-संस्कार करने के लिए पाँच सौ रुपये लगते हैं।'

दूसरी ओर द्वारपालों का एक और समूह था, जो मृत्यु के महल के संरक्षक थे।
पहले व्यक्ति ने कहा, 'लकड़ी के लिए चालीस रुपये लगेंगे। पैसे दे दो।'
दूसरे ने हाथ बढ़ाया, 'पांच रुपए घी के लिए।'
तीसरे ने मुठ्ठी खोली, 'पंडित के लिए पाँच रुपये चढ़ावे।'
चौथे ने कुल रकम बताई, 'कुल मिलाकर पचास रुपए।'
'इसके अलावा ठेकेदार को सवा रुपया।'

'ठेकेदार?' यात्री आश्चर्यचकित हुआ। 'क्या किसी ने मौत का ठेका ले रखा है?'
'हाँ, बिना सवा रुपया दिए यहाँ किसी का दाह संस्कार नहीं हो सकता।'
'इक्यावन रुपए और पच्चीस पैसे।'

तीसरे ने कहा, 'अगर तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं तो यहां से चले जाओ।'
चौथे ने अपनी छड़ी ज़मीन पर मारी, 'जल्दी करो, काम का समय है।'
बूढ़े व्यक्ति की आंखों से आंसू बह रहे थे और उसने यात्री से कहा, 'मेरे पास कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी था, मैंने उसके इलाज पर खर्च कर दिया।'
अचानक एक अमीर आदमी की लाश आई। बैंड-बाजे, फूल-मालाओं के साथ, ऐसा लग रहा था जैसे कोई बारात हो।
मौत के ठेकेदार उस दिशा में भाग गए। यात्री ने देखा कि लकड़ियों के एक बड़े ढेर पर चिता जल रही थी; उसने उस पर बूढ़े के बेटे का शव रख दिया। कुछ ही मिनटों में एक की जगह दो शव जलने लगे।

बूढ़े ने कहा, 'धन्यवाद भाई,' और फूट-फूट कर रोने लगा। उसके रोने की आवाज सुनकर मौत के ठेकेदार भागे। जब उन्होंने देखा कि बिना उनका हक चुकाए एक और लाश जल रही है, तो उन्होंने अपनी लाठियां उठा लीं।

यात्री ने बहुत धीरे से कहा, 'वह अभी मरा है और तब भी मरेगा। उसे जलाया जाए या नहीं, इससे उसकी आत्मा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन उसका बूढ़ा पिता व्याकुल हो जाएगा।' फिर उसकी आवाज में कठोरता का भाव आया, 'और मैं ऐसा नहीं होने दूंगा।' वह चिता और मौत के ठेकेदारों के बीच खड़ा था।
'बूढ़े आदमी, हम तुम्हें इस आग में फेंक देंगे।'

'ऐसा करो। अब मैं जलने, डूबने या मौत के किसी भी डर से मुक्त हूँ। लेकिन याद रखना मैं तुममें से कम से कम एक को अपने साथ इन लपटों में घसीट कर ले जाऊँगा।'
लाठी लिए वह आदमी उसकी ओर बढ़ने ही वाला था कि भीड़ में से कोई चिल्लाया, 'उसके पास मत जाओ। वह पागल आदमी है। लाठी चलाने वाला पीछे हटा और युवक का शव जला दिया गया। जब आग की लपटें शांत हुईं तो उन्होंने देखा कि पागल आदमी गायब हो गया था और बूढ़ा आदमी अकेला खड़ा राख टटोल रहा था।
'चलो, थाने में जाकर कह दें कि वह पागल आदमी यहीं कहीं है।'

स्टेशन हाउस ऑफिसर ने उनकी रिपोर्ट को बहुत ध्यान से सुना। उसने फोन उठाया और 4068 डायल किया।
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ठंडी सुनसान सड़क पर शिकारी कुत्ते और पुलिस उस पागल आदमी की तलाश कर रहे थे। वह आदमी, जिसने एक दिन में पूरे शहर को उलट-पुलट कर दिया था।
तारों की रोशनी में, एक सफेद इमारत दिखाई दे रही थी। उसके बगल में कुछ लोग आग के पास बैठे थे।
'ये बिल्डिंग क्या है भाई? एक तरफ से मस्जिद और दूसरी तरफ से मंदिर जैसी दिखती है।'

'यह मस्जिद और मंदिर दोनों था। इसे बादशाह अकबर के समय में बनाया गया था ताकि हिंदू और मुसलमान, सभी धर्मों के लोग एक ही जगह पर प्रार्थना कर सकें। फिर औरंगजेब ने इसे तोड़कर मस्जिद बना दिया। फिर किसी राजा ने इसे मंदिर में बदल दिया।' 'और अब यह क्या है?' यात्री ने पूछा। 'अब यह न तो मंदिर है, न ही मस्जिद, यह कुछ भी नहीं है।'

'मेरे जैसे व्यक्ति के लिए जो सब कुछ है और कुछ भी नहीं है, जो हर जगह है और कहीं भी नहीं है, मेरे लिए यह सही जगह है।'

वह अभी भी इमारत के बाहर ही था जब शिकारी कुत्तों की आवाजें बहुत करीब से आने लगीं।
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थाने के अंदर पुलिस सब इंस्पेक्टर ने पूछा, 'बूढ़े आदमी, आपका नाम क्या है?'
यात्री ने अपना नाम बताया।
'आप क्या करते हैं?'
'पहले मैं जुलाहा था, जिसे तुम बड़े लोग जुलाहा कहते हो। मैं कपड़ा बुनता था। प्रेम की चादर और ज्ञान के ताने से मैंने सत्य की चादर बुनने की कोशिश की । लेकिन मेरा करघा कब का टूट गया। मैं उसे ढूँढ़ने आया था, यह सोचकर कि शायद किसी को मिल गया हो और वह मेरा काम कर रहा हो। लेकिन तुम लोगों ने मुझे समय ही नहीं दिया।'

'वह सचमुच पागल है,' सब-इंस्पेक्टर ने अपने हवलदार से कहा।
'हम उसे तुरंत भेज देंगे, वरना कौन जाने रात में वह क्या करेगा।'
फिर उसने फोन उठाया और डायल किया...4068.
दूसरी तरफ से आवाज आई, 'नमस्ते, यह पागलखाना है।'
सब-इंस्पेक्टर ने कहा, 'सुनो, बनारस का वह ठग पकड़ा गया है। लेकिन वह ठग नहीं है। बूढ़ा पागल है। हम उसे तुरंत भेज रहे हैं। अगर तुम उसे अभी दाखिल कर सको तो शुक्रिया।'

दूसरी तरफ से सवाल आया, 'नाम? उसका नाम क्या है?'
सब-इंस्पेक्टर ने कहा, 'नाम कबीरा है।' और फोन रख दिया।
लेकिन यात्री जा चुका था।


(अनुवाद : सैयदा सैयदैदैन हमीद)


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