बिहार के क्षितिज से उगे सूर्य का प्रकाश अब सारे देश में फैले
राजनैतिक समीकरण तो पीछे चलकर आएंगे, इसका बड़ा असर पिछड़े व वंचितों के जीवन स्तर में सुधार को लेकर होगा

- डॉ. दीपक पाचपोर
राजनैतिक समीकरण तो पीछे चलकर आएंगे, इसका बड़ा असर पिछड़े व वंचितों के जीवन स्तर में सुधार को लेकर होगा। सामाजिक न्याय का रास्ता इस तरह से प्रशस्त होगा कि नौकरियों में अधिक भागीदारी से पिछड़े व अति पिछड़े वर्गों का सशक्तिकरण होगा तथा जिस समतामूलक समाज की कल्पना सुधारवादी नेताओं व महापुरुषों ने की थी, उसका मार्ग प्रशस्त होगा।
इस बार की गांधी जयंती खास रही। यह दिन गौतम बुद्ध के मुस्कुराने का दिन साबित हुआ। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के मुस्कुराने का भी दिन था। शाहू महाराज व महात्मा फुले भी मुस्कुरा उठे। बीपी मंडल, कर्पूरी ठाकुर, कांशीराम, वीपी सिंह के साथ हर उस व्यक्ति के मुस्कुराने का दिन था, जो समतामूलक समाज की कल्पना करते हैं और उसके आकांक्षी हैं। एक बहुत साहसिक कदम उठाकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जो जातिगत जनगणना कराई और उसके आंकड़े सार्वजनिक किये उसका राजनैतिक से ज्यादा सामाजिक महत्व है। बेशक, उसका रास्ता सियासी गलियारों से होकर ही गुजरेगा। बिहार के क्षितिज से उगे सूर्य का प्रकाश पूरे देश में फैले- इसकी उम्मीद व कामना की जानी चाहिये। 'जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' के नैसर्गिक सिद्धांत पर आधारित इस निर्णय का अपना सामाजिक महत्व तो है, लेकिन इससे देश के राजनैतिक समीकरण भी बदलेंगे। प्रगतिशील सोच के साथ बढ़े इस कदम का वैसा ही प्रतिरोध हर उस कट्टर ताकतों द्वारा वैसा ही होगा जैसे समाज के हर सुधारों का अब तक पिछले 2500 वर्षों से होता आया है। बिहार सरकार को चाहिये कि जनसंख्या के अनुसार लोगों को उनका हक दिलाने के लिये आवश्यक कदम तत्काल उठाये और अन्य राज्यों को भी प्रेरणा दे।
'सामाजिक न्याय की भूमि' कहे जाने वाले बिहार के मुख्य सचिव द्वारा जारी किये गये आंकड़े पूरी भारतीय राजनीति में उथल-पुथल मचाने के लिये काफी हैं क्योंकि इससे ओबीसी को भारतीय समाज में अपने आकार व ताकत का अहसास होने जा रहा है। इन आंकड़ों में बताया गया है कि राज्य में ओबीसी की संख्या सर्वाधिक है। यह अनुमान पहले भी था लेकिन वह गणना के माध्यम से ही सिद्ध किया जा सकता था। इसलिये भारतीय जनता पार्टी इसका विरोध करती आई जबकि बिहार की जनता दल यूनाइटेड व राष्ट्रीय जनता दल गठबन्धन की सरकार (नीतीश व तेजस्वी यादव) इसके पक्ष में थे। पिछले दिनों बने संयुक्त विपक्षी गठबन्धन इंडिया (इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक इन्क्लूजिव एलाएंस) ने इसका समर्थन किया। राहुल गांधी ने इसके पक्ष में जोरदार आवाज उठाई। पिछले साल की सितम्बर के पहले हफ्ते से निकाली कन्याकुमारी से कश्मीर तक की चार हजार किलोमीटर की यात्रा के दौरान उन्होंने यह बात तो उठाई ही, बाद की तमाम सभाओं एवं वार्ताओं में भी वे आबादी के अनुसार हिस्सेदारी की वकालत करते रहे हैं।
लोकसभा के भीतर अपने भाषण में उन्होंने जब यह आंकड़ा प्रस्तुत किया कि भारत सरकार के कुल 90 सचिवों में केवल तीन ही अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) के हैं जो कुल बजट का मात्र 5 फीसदी ही नियंत्रित करते हैं, तो यह बात सबके लिये चौंकाने वाली थी और सत्ता पक्ष के पास इसका कोई जवाब ही नहीं था। राहुल ने यह बात भी कही कि पिछड़ा व अति पिछड़ा वर्गों के लिये नौकरियों में वाजिब तरीके से आरक्षण तत्काल लागू किया जाये जिससे उन्हें न्याय मिल सके। उन्होंने यह भी चेतावनी दे रखी है कि अगर केन्द्र सरकार इसे लागू नहीं करती तो उनकी पार्टी सत्ता में आने पर कर देगी। चूंकि 2021 में कोविड के कारण जनगणना ही नहीं हुई है तो यह पता करना मुश्किल है कि ओबीसी कितने है। इसके लिये राहुल का कहना है कि 2011 की जनगणना के अनुसार ही इसे लागू कर दिया जाये।
राहुल की इस मांग के साथ उनकी पार्टी के अतिरिक्त पूरा इंडिया गठबन्धन खड़ा है। वैसे भी वर्तमान परिदृश्य में कांग्रेस का ट्रैक रिकार्ड बेहतर दिखाई दे रहा है क्योंकि उसके चार मुख्यमंत्रियों में से तीन ओबीसी वर्गों से हैं- छत्तीसगढ़ के भूपेश बघेल, राजस्थान के अशोक गहलोत और कर्नाटक के सिद्धारमैया। राहुल-नीतीश के इस दांव से भाजपा का परेशान होना स्वाभाविक है क्योंकि ओबीसी का एक बड़ा वर्ग पिछले कुछ समय से भाजपा का कोर वोट बैंक बना हुआ है जबकि नेतृत्व सवर्णों के हाथ में है या वर्ण व्यवस्था का समर्थक है जो उनका सशक्तिकरण कतई नहीं चाहेगा। उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इसे स्वीकार नहीं करेगा।
दिखावे के लिये कर भी ले तो इसे यथार्थ के धरातल पर नहीं उतारेगा। अगर भाजपा शासित राज्यों में इसकी मांग उठती है और ओबीसी नये सिरे से देशव्यापी जातिगत जनगणना की मांग कर सकता है (जो करनी भी चाहिये), तो इसका परिणाम यह हो सकता है कि भाजपा से जुड़े ओबीसी समुदाय दूसरे उन दलों में जा सकते हैं जो उनके आरक्षण एवं सशक्तिकरण के समर्थक हैं। इसलिये भाजपा नेताओं का व्यथित होना स्वाभाविक है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो इसे इंडिया (उनकी शब्दावली में घमंडिया) की जाति-आधारित राजनीति करार दिया है जबकि खुद मोदी एक चुनावी सभा में यह कहकर वोट मांग चुके हैं कि 'जो इस प्रदेश में साहू है, वही गुजरात में मोदी है'। इसी नाम को लेकर उनके इशारे पर राहुल गांधी के खिलाफ पूरे मोदी समुदाय की अवमानना का मामला दर्ज कराया गया है जिसके चलते उनकी सांसदी छिन जाती है। यह अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सजा पर रोक लगने से वह बहाल भी हो जाती है। भाजपा के मुखर सांसद गिरिराज सिंह ने इन आंकड़ों को भ्रम फैलाने फैलाने वाला कृत्य बताया जबकि सच्चाई यह है कि इससे सभी वर्गों के आंकड़ों सम्बन्धी भ्रम को दूर करने में मदद मिली है। बिहार में 1978 में कुल आरक्षण के भीतर 12 प्रतिशत अति पिछड़ों व 8 फीसदी पिछड़ों के लिये आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। 'आरक्षण में आरक्षण' का यह फार्मूला लोगों के विरोध का कारण बनता रहा है और इन्हें अदालतों में चुनौतियां भी मिलती रही हैं। बिहार ने रास्ता साफ कर दिया है जो कर्पूरी ठाकुर ने दिखाया था और अब नीतीश अन्य राज्यों को दिखला रहे हैं।
इस मामले में राजनैतिक समीकरण तो पीछे चलकर आएंगे, इसका बड़ा असर पिछड़े व वंचितों के जीवन स्तर में सुधार को लेकर होगा। सामाजिक न्याय का रास्ता इस तरह से प्रशस्त होगा कि नौकरियों में अधिक भागीदारी से पिछड़े व अति पिछड़े वर्गों का सशक्तिकरण होगा तथा जिस समतामूलक समाज की कल्पना सुधारवादी नेताओं व महापुरुषों ने की थी, उसका मार्ग प्रशस्त होगा। एक यह भी तर्क दिया जाता है कि अब सरकारी नौकरियां रह कहां गई हैं जो इतनी बड़ी संख्या में आरक्षण के हकदार लोगों को दी जा सकें, तो कहा जा सकता है कि पिछड़े व अति पिछड़े वर्गों का जब नौकरियों के लिये दबाव होगा तो सरकार को शासकीय सेवाओं में नौकरियां बढ़ानी पड़ेंगी। फिर इसके लिये चाहे नीतियों में बदलाव ही क्यों न करना पड़े। फिलहाल तो मोदी सरकार का रुझान निजीकरण की ओर है जिसके चलते उसके पास शासकीय उपक्रमों का मानव संसाधन घटाकर उन्हें घाटे में लाने का फार्मूला है। कम्पनियों को घाटे में लाकर उन्हें औने-पौने में अपने मित्र कारोबारियों को बेच देना ही भाजपा की औद्योगिक नीति है।
देखा जाए तो यह कदम एक बड़े वर्ग की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समझ में इज़ाफ़ा करने वाला साबित होगा। ओबीसी को यह समझ में आयेगा कि उसका इस्तेमाल भाजपा केवल सवर्णों की ताकत बढ़ाने एवं सवर्णों के हाथ में देश के सारे संसाधन सौंप देने का खेल करती आई है। नीतीश के इस कदम से ओबीसी के बल पर सामाजिक धु्रवीकरण का भाजपायी दांव आगामी पांच विधानसभा चुनाव में तो नाकाम होगा ही, 2024 का लोकसभा चुनाव भी वह हार सकती है।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


