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लोकतंत्र का तमाशा और इंडिया की राह

हमें पहले जीतकर आना होगा, उसके बाद लोकतांत्रिक तरीके से हमारे चुने हुए सांसद तय कर लेंगे कि प्रधानमंत्री पद पर कौन बैठेगा

लोकतंत्र का तमाशा और इंडिया की राह
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हमें पहले जीतकर आना होगा, उसके बाद लोकतांत्रिक तरीके से हमारे चुने हुए सांसद तय कर लेंगे कि प्रधानमंत्री पद पर कौन बैठेगा। ये महत्वपूर्ण बयान कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने मंगलवार को दिया है। इंडिया गठबंधन की चौथी बैठक मंगलवार 19 दिसम्बर को दिल्ली में हुई, जिसमें गठबंधन के सभी 28 दलों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। भाजपा के खिलाफ बने इस विपक्षी गठबंधन की इस बार की बैठक कई मायनों में महत्वपूर्ण थी। मुंबई में हुई तीसरी बैठक के बाद अब जाकर हुई इस चौथी बैठक में काफी लंबा अंतराल रहा, और इस दरम्यान इंडिया गठबंधन को लेकर जितने किस्म की अफवाहें मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए फैलाई जा सकती थीं, वो सब फैलाई गईं। इन अफवाहों में दस बार इंडिया गठबंधन में टूट पड़ी, उसके नेताओं की राहें अलग हो गईं, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी और नीतीश कुमार जैसे नामों को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताते हुए यह भी कहा गया कि ये सब कांग्रेस के खिलाफ एक हो सकते हैं। इस बीच हुए विधानसभा चुनावों में मध्यप्रदेश में सीटों को लेकर कांग्रेस और सपा के बीच हुए मतभेद को सीधे अखिलेश यादव की कांग्रेस को चुनौती के तौर पर पेश किया जाने लगा।

मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की हार को सीधे इंडिया की हार से जोड़ा गया और लगे हाथ ये तर्क भी दिया गया कि अब इंडिया गठबंधन में कांग्रेस की भूमिका कमतर हो जाएगी। अब तक कांग्रेस बड़े भाई की भूमिका में थी, लेकिन अब बाकी दल उसकी बात नहीं सुनेंगे। लेकिन ये तमाम दावे मंगलवार को तब खोखले साबित हो गए, जब बैठक के बाद सभी दलों ने श्री खड़गे को ही प्रेस को संबोधित करने के लिए कहा। इससे पहले खबर ये भी आई कि बैठक में ममता बनर्जी ने गठबंधन के संयोजक पद के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे के नाम को प्रस्तावित किया और अरविंद केजरीवाल ने उसका समर्थन किया। हालांकि अभी संयोजक पद के लिए किसी नाम की आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है।

लेकिन जिन ममता बनर्जी के लिए कहा जा रहा था कि वे कांग्रेस को अग्रणी भूमिका में नहीं आने देना चाहती हैं, उन्होंने ही श्री खड़गे के नाम को आगे बढ़ाकर ये बता दिया कि आने वाले लोकसभा चुनावों में इंडिया का नेतृत्व कांग्रेस ही मुख्य रूप से करेगी। गौरतलब है कि बैठक के लिए इससे पहले दिल्ली पहुंची ममता बनर्जी ने बयान दिया था कि इंडिया के प्रधानमंत्री उम्मीदवार का फैसला 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद किया जाएगा। इस सीधे बयान को जबरदस्ती तोड़-मरोड़ कर अन्य अर्थों में पेश किया जा रहा था। जबकि सुश्री बनर्जी और श्री खड़गे एक जैसी बात ही कह रहे हैं।

दरअसल इस समय देश में जो राजनैतिक माहौल बन चुका है, उसमें इंडिया गठबंधन के सभी दलों को यह स्पष्ट हो चुका है कि उनके लिए एकजुट रहना सबसे बड़ी प्राथमिकता है, बाकी सारी बातें दोयम हैं। यही बात अब देश की जनता को भी समझने की जरूरत है। देश के संसदीय इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि एक साथ 151 विपक्षी सांसदों को निलंबित कर दिया जाए। प्रधानमंत्री मोदी भारत के लिए मदर ऑफ डेमोक्रेसी की उपमा देते हैं, लेकिन आज उसी भारत में मर्डर ऑफ डेमोक्रेसी जैसा नजारा बन चुका है।

लोकतंत्र तभी जिंदा कहलाएगा, जब सत्ता पक्ष के साथ संसद में विपक्ष भी मौजूद हो। जब विपक्ष को सवाल पूछने और सत्ता से जवाब मांगने पर दंडित किया जाए। जब विपक्ष की गैरमौजूदगी में बिना चर्चा के महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कर कानून बनाने का रास्ता तैयार हो जाए, तब हम कैसे दावा कर सकते हैं कि हमारे देश में लोकतंत्र जिंदा है। संसद तक पहुंचा एक-एक प्रतिनिधि कम से कम अपने संसदीय क्षेत्र के 15-20 लाख लोगों की आवाज बनता है। अब हिसाब लगा लीजिए कि 151 सांसदों को निलंबित कर एक झटके में कितने करोड़ लोगों की आवाज को मोदी सरकार ने खामोश करवा दिया। प्रधानमंत्री मोदी पिछले कुछ वक्त से मेरे देशवासियों, मित्रो या भाइयो-बहनो की जगह मेरे परिवारजनो का संबोधन जनता को देते हैं, तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि अपने परिवार के करोड़ों लोगों की जुबान पर ताला लगवाकर आखिर कौन से परिवार धर्म का पालन किया जा रहा है।

संसद का नया भवन जब उद्घाटित हुआ था तब श्री मोदी ने विपक्ष को मिलकर साथ चलने की नसीहत दी थी, रोना-धोना छोड़ने कहा था। उनके शब्दों के वास्तविक अर्थ शायद अब जाकर खुले हैं कि असल में प्रधानमंत्री विपक्ष को आगाह कर रहे थे कि संसद में बहस और चिंतन, सवाल और जवाब की परिपाटी पुराने भवन में ही स्मारक की तरह सजा दी गई है, नए भवन में यह सब नहीं होगा, केवल मन की बात होगी। जो कोई मन की बात सुनने से इंकार करेगा, उसे लोकतंत्र पर अच्छा लेक्चर सुनाकर बाहर कर दिया जाएगा। असल में संसद का नया भवन केवल नाम को ही संसद भवन रह गया है, इसे शायद आने वाली पीढ़ियां लोकतंत्र के मकबरे की तरह याद रखें।

अगर हम देश की धड़कनों को सुनाने वाली संसद को मकबरे में तब्दील होते नहीं देखना चाहते हैं तो फिर हर हाल में लोकतंत्र की परिपाटियों को जिंदा रखना होगा। और इसके लिए केवल कुछ दलों पर जिम्मेदारी नहीं डाली जा सकती है, बल्कि यह देश के हरेक नागरिक, हरेक संस्था, हरेक राजनैतिक दल का कर्तव्य है। लेकिन फिलहाल इंडिया गठबंधन के दल ही लोकतंत्र के लिए बेचैन नजर आ रहे हैं। क्या भाजपा के सभी नेता संसद में जो कुछ हुआ, उससे सहमत हैं। क्या बसपा, एआईएमआईएम, वाईएसआर कांग्रेस, टीडीपी, बीआरएस, बीजेडी जैसे तमाम दल अब भी लोकतंत्र का तमाशा बनते देख कर चुप रहेंगे। क्या कांग्रेस से उनकी अदावत लोकतंत्र और देश से भी बड़ी है। इन सवालों पर ईमानदारी से जवाब तलाशने होंगे, वर्ना आने वाली पीढ़ियां भारतीय लोकतंत्र को कहानियों में ही सुन पाएंगी।


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