निराधार बातों में कमजोर होती देश की जड़ें
श्री मोदी ने नोटबंदी के साथ-साथ आत्मनिर्भर भारत, स्टैंड अप भारत जैसे अभियान भी चलाए

- सर्वमित्रा सुरजन
श्री मोदी ने नोटबंदी के साथ-साथ आत्मनिर्भर भारत, स्टैंड अप भारत जैसे अभियान भी चलाए। लेकिन देश के 16 मंत्रालय अगर आत्मनिर्भरता से काम करने की जगह विदेशी सलाहकार कंपनियों से सलाह ले और उसके लिए 5 सौ करोड़ का भुगतान करे तो क्या इसे सरकार की विफलता नहीं कहा जाना चाहिए।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की गहमागहमी, जातिगत जनगणना, नीतीश कुमार का बिहार विधानसभा में दिया गया बयान और फिर उस पर माफी, केदारनाथ धाम में राहुल और वरुण गांधी की मुलाकात जैसी खबरों के शोर में दो और खबरों पर नजर पड़ी। पहली, पुर्तगाल के प्रधानमंत्री एंटोनियो कोस्टा ने भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया और दूसरी, पिछले पांच सालों में यानी अप्रैल 2017 से जून 2022 तक मोदी सरकार के 16 मंत्रालयों ने पांच अंततराष्ट्रीय सलाहाकार कंपनियों को 5 सौ करोड़ रूपयों का भुगतान किया है। इस बीच आठ नवंबर की तारीख आई तो नोटबंदी के सात साल पर भी सुर्खियां बननी चाहिए थी कि इन सात सालों में देश को पांच सौ के पुराने और हजार के नोट बंद करने का क्या फायदा मिला, लेकिन मुख्यधारा का मीडिया इस वक्त नोटबंदी का जिक्र कर मोदी सरकार के मुंह का जायका क्यों बिगाड़ेगा। अलबत्ता कांग्रेस ने जरूर इस मौके पर कुछेक चुभते हुए पोस्ट किए हैं। जैसे राहुल गांधी ने लिखा-
नोटबंदी एक सोची समझी साज़िश थी, रोज़गार तबाह करने की। श्रमिकों की आमदनी रोकने की। छोटे व्यापारों को खत्म करने की। किसानों को नुकसान पहुंचाने की। असंगठित अर्थव्यवस्था को तोड़ने की। 99 प्रतिशत आम भारतीयों पर हमला, 1 प्रतिशत पूंजीपति मोदी 'मित्रों' को फायदा। ये एक हथियार था, आपकी जेब काटने का- परम मित्र की झोली भर कर उसे 609 से दुनिया का दूसरा सबसे अमीर बनाने का!
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने लिखा कि नोटबंदी के बाद मोदी जी ने 50 दिन मांगे थे, आज 7 साल हो गए। वो चौराहा तो नहीं मिला, देश को दोराहे पर ज़रूर खड़ा कर दिया। एक तरफ़ अमीर, अरबपति अमीर हो गया है, तो दूसरी ओर, गरीब और भी गरीब होता जा रहा है। आज 150 लोगों को श्रद्धांजलि देने का अवसर है जिन्होंने नोटबंदी के चक्रवात को झेला! देश की अर्थव्यवस्था और विकास दर को गहरा धक्का लगा। एक ही झटके में लाखों छोटे व्यवसाय ठप्प पड़ गए। करोड़ों लोगों ने अपनी नौकरियां गंवाई। पाई-पाई जोड़कर जो हमारी गृह लक्ष्मी महिलाओं ने बचत जुटाई थी, वो ख़त्म हो गई। जाली नोट और बढ़ गए, 500 के जाली नोटों में पिछले साल ही 14प्रतिशत बढ़ोतरी हुई और 2000 के नोटों पर भी नोटबंदी लागू करनी पड़ी। (आरबीआई)। काले धन पर लगाम लगाने में विफ़ल रही मोदी सरकार। नकदी के चलन में 2016 से अब तक 83 प्रतिशत उछाल आया। पिछले 7 वर्षों में संपत्ति खरीदने वालों में से 76प्रतिशत को कीमत का एक हिस्सा नकद में चुकाना पड़ा। (स्थानीय सर्वे) मोदी सरकार की नोटबंदी आम नागरिकों के जीवन में एक गहरे ज़ख्म की तरह है, जिसकी मरहम-पट्टी वो आज तक कर रहें हैं।
कांग्रेस ने भी अपनी एक पोस्ट में एक वीडियो को साझा करते हुए इसे देश पर आक्रमण की तरह बताया है। अब ये हरेक की अपनी मर्जी है कि वह इन बातों को राजनीतिक बयानबाजी समझे या इसे मोदीजी का देशहित में किया गया ऐसा हवन माने, जिसमें किसी न किसी की बलि तो चढ़नी ही थी। लेकिन ये सवाल अपनी जगह बरकरार रहेगा कि आखिर नोटबंदी का फैसला, प्रधानमंत्री मोदी ने किससे पूछकर किया या किसके कहने पर किया। क्या नोटबंदी करने के पीछे जो तर्क दिए गए थे, वो सही साबित हुए। क्योंकि आतंकवाद खत्म नहीं हुआ इसका सबसे बड़ा सबूत 2019 का पुलवामा हमला है। अभी मई से मणिपुर में जो हालात बने हैं, उसमें अब मुद्दा केवल दो जातिगत समूहों के बीच हिंसा का नहीं रह गया है, बल्कि इसमें भ्रष्टाचार, आतंकवाद सारे तत्व शामिल दिखाई दे रहे हैं। अभी कुछ दिनों पहले ही खबर आई है कि छह महीनों की हिंसा में लूटे गए हथियारों में केवल 25 प्रतिशत हथियार ही बरामद हुए हैं।
जबकि मुख्यमंत्री बीरेन सिंह अवैध हथियार रखने वालों पर कड़ी कार्रवाई की बात करते रहे हैं। अब इसे भ्रष्टाचार न समझा जाए, तो फिर क्या कहा जाए। जो हथियार लूटे गए, वो कहीं न कहीं इस्तेमाल हो रहे होंगे और उनके लिए जो पैसों का लेन-देन हो रहा होगा, वो नकदी में ही होगा। इसका मतलब नोटबंदी जैसे फैसले का कोई असर नहीं हुआ, क्योंकि काला धन अब भी देश में घूम ही रहा है। रिजर्व बैंक भी यही कह रहा है कि जाली नोटों में बढ़ोतरी हुई है, नकदी का चलन बढ़ा है। इसलिए जब श्री खड़गे मोदीजी के 50 दिन दे दो वाले बयान की याद दिला रहे हैं, तो इसे राजनीतिक आरोप की जगह देश की चिंता की तरह देखे जाने की जरूरत है।
प्रधानमंत्री मोदी की आदत है कि वे आज एक बात भूलकर कल उसे भूल जाते हैं। इस आदत के लिए ही जुमलेबाजी जैसे शब्द का इस्तेमाल हुआ है। देश का कोई समझदार नागरिक नहीं चाहेगा कि वह अपने निर्वाचित प्रधानमंत्री को 50 दिन का वक्त देकर चौराहे पर आने कहे। हमारे संविधान निर्माताओं के प्रताप से देश अब तक ऐसी अराजक स्थिति में आने से बचा हुआ है। प्रधानमंत्री भले लोगों की भावनाओं को भुनाने के लिए कुछ भी कहें और फिर भूल जाएं। लेकिन क्या लोगों को इतने बड़े फैसलों और उनके परिणामों को भूलना चाहिए। जो कौम अपने इतिहास से सबक लेकर वर्तमान को सुधार नहीं सकती, उसका भविष्य खतरे में ही रहेगा। 2016 में लिए फैसले को हम धर्म या जाति के नाम पर खड़े किए मुद्दों में भूल जाएं तो हम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे।
श्री मोदी ने नोटबंदी के साथ-साथ आत्मनिर्भर भारत, स्टैंड अप भारत जैसे अभियान भी चलाए। लेकिन देश के 16 मंत्रालय अगर आत्मनिर्भरता से काम करने की जगह विदेशी सलाहकार कंपनियों से सलाह ले और उसके लिए 5 सौ करोड़ का भुगतान करे तो क्या इसे सरकार की विफलता नहीं कहा जाना चाहिए। पेट्रोल और ऊर्जा से लेकर नीति आयोग और आधार परियोजना तक कई कामों के लिए प्राइस वाटरहाउस कूपर्स, डेलॉइट, अर्न्स्ट एंड यंग, केपीएमजी और मैकेन्सी जैसी कंपनियों की सेवाएं ली गई हैं। इंडियन एक्सपे्रस की खबर के मुताबिक 2024-25 के बजट के पहले वित्त मंत्रालय ने सभी मंत्रालयों को पत्र लिखकर जानकारी मांगी है कि किसने किस सलाहकार कंपनी की सेवाएं लीं, किस आधार पर लीं, और कब तक के लिए ली हैं। अब पाठक खुद विचार करें कि एक ओर केंद्र सरकार लाखों रिक्त पदों को भर नहीं रही है।
यानी हमारे देश के योग्य युवाओं को रोजगार नहीं मिल रहा। बदले में कुछेक हजार नियुक्ति पत्र बांटने का काम अब प्रधानमंत्री कर रहे हैं। कई सार्वजनिक निकायों को घाटे का रोना रोते हुए निजी हाथों में सौंपा गया है और उनमें भी अधिकतर पर एक ही औद्योगिक समूह का मालिकाना हक है। बेरोजगारों के लिए हर चुनाव में घोषणाएं और भत्ते देने का ऐलान हो रहा है, लेकिन विदेशी कंपनियों को सलाह के नाम पर सैकड़ों करोड़ बांटे जा रहे हैं। सरकार करोड़ों का ये खर्च भी जनता के टैक्स से ही उठा रही है। यानी जनता दोनों तरफ से घाटे में है। उसे कमाने के अवसर नहीं मिल रहे और जो थोड़ी बहुत कमाई है, वो आउटसोर्सिंग की भेंट चढ़ रही है।
श्री मोदी को हार्डवर्क और हार्वर्ड वाला तंज कसने में बहुत मजा आया होगा। लेकिन उनके मजे के चक्कर में देश सजा ही भुगत रहा है। अगले पांच साल भी पांच किलो मुफ्त अनाज मिलेगा, ऐसी घोषणा पर खुश होने की जगह सवाल होना चाहिए कि आखिर मांग कर खाने वाली हालत में जनता को क्यों पहुंचाया गया है। क्यों दस सालों में उसके लिए रोजगार और आत्मनिर्भरता के ऐसे इंतजाम नहीं हुए कि वह इंसानी गरिमा के साथ जी सके। देश को आउटसोर्सिंग के साथ चलाकर आखिर कौन से गौरव की रक्षा सरकार कर रही है। और यहीं पहली खबर पर ध्यान जाता है कि महज एक आरोप के कारण पुर्तगाल के प्रधानमंत्री ने इस्तीफा दे दिया। हमारे यहां भी रेल मंत्री रहते हुए लालबहादुर शास्त्री ऐसी मिसाल कायम कर चुके हैं।
लेकिन अब लोगों की कमजोर याददाश्त का फायदा उठाकर अगले साल भी मैं ही आऊंगा जैसी घोषणाएं लालकिले से हो रही हैं। पांच सौ और हजार के नोटबंद करने की सातवीं बरसी पर मोदीजी ने एक और ऐलान कर दिया है कि अपने तीसरे कार्यकाल में मैं देश को विश्व की अर्थव्यवस्था में सबसे ऊपर ले जाऊंगा। जो काम दो कार्यकाल में नहीं हो सका, उसे तीसरे कार्यकाल में करने के दावे का आधार क्या है, ये पता नहीं। ये सरकार ऐसी ही निराधार बातों पर चल रही है और देश की जड़ें कमजोर हो रही हैं।


