आजादी के तोहफे पर सियासत का फीता
देश एक बार फिर आजादी की वर्षगांठ मनाने तैयार है। 2014 से पहले स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस, जनता के उत्सव हुआ करते थे

- सर्वमित्रा सुरजन
बांग्लादेश के नए मुखिया ने बिल्कुल नोबेल विजेता के अनुरूप ही बातें कही हैं। समस्याएं लोगों में नहीं व्यवस्था में होती है और उन गड़बड़ियों को दूर करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। व्यवस्था की कमियों से ध्यान भटकाने के लिए धर्म की आड़ में इंसानों को अगर निशाना बनाया जाना लोकतंत्र की पहचान नहीं है। यह बात बांग्लादेश के लिए ही नहीं भारत के लिए भी उतनी ही माकूल है।
देश एक बार फिर आजादी की वर्षगांठ मनाने तैयार है। 2014 से पहले स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस, जनता के उत्सव हुआ करते थे। लेकिन पिछले 10 सालों में माहौल बदल गया है। अब इन राष्ट्रीय पर्वों को अनाधिकारिक तरह से भाजपा के अधिकार क्षेत्र के दायरे में मनाया जाने लगा है। 2 अक्टूबर का महत्व भी भाजपा ने लगभग खत्म ही कर दिया है, क्योंकि अब चरखा चलाते गांधी की जगह खादी वाले मोदी के कैलेंडर का चलन देश में हो गया है। 2021 से आजादी के अमृत महोत्सव को मनाने की शुरुआत नरेन्द्र मोदी ने की और उसके बाद तो जैसे आजादी पर भाजपा का कॉपीराइट ही हो गया। अमृत महोत्सव के बाद हर घर तिरंगा अभियान की शुरुआत हो गई। अब 15 अगस्त के कुछ दिनों पहले से तिरंगा यात्राएं निकाली जाने लगी हैं, जिनमें भाजपा नेता और उनके समर्थक बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। मेरा तिरंगा उसके तिरंगे से बड़ा क्यों नहीं, बस यही स्पर्धा खुलकर शुरु होना बाकी है, वर्ना दिखावे में कोई किसी से पीछे नहीं है।
तिरंगा फहराने में किसी नागरिक को कोई आपत्ति नहीं है, यह जरूर है कि संघ को इससे आपत्ति थी और शायद इसलिए संघ मुख्यालय में तिरंगा 2002 तक नहीं फहराया गया, उसके बाद इसकी शुरुआत हुई। इस बारे में पिछले साल जब मोहन भागवत से सवाल किया गया तो उनका जवाब था कि हम जहां रहते हैं, वहां तिरंगा फहराते हैं। सवाल तिरंगा फहराने का नहीं है, लेकिन जब इसकी रक्षा की बात आए, तो हम सबसे आगे रहते हैं। श्री भागवत ने एक सीधे सवाल का जवाब गोल-मोल तरीके से दे दिया। यही गोल-मोल रवैया अब मोदी सरकार का भी दिख रहा है। 2021 से ही नरेन्द्र मोदी ने विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने की शुरुआत भी की। हर साल 14 अगस्त को अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन दिए जाते हैं, जिसमें बंटवारे की भयानक याद को ताजा किया जाता है। इस बरस भी यही हुआ। देश के दो हिस्से होने के बाद लाखों लोगों को अपनी जड़ों से उखड़कर किस तरह विस्थापित होना पड़ा, इसकी तस्वीरें नरेन्द्र मोदी की तस्वीरों के साथ दी गईं।
भाजपा की इस मानसिकता को समझना थोड़ा मुश्किल लगता है कि बुरी यादों को वह किस तरह राजनीति के लिए इस्तेमाल करती है और उसमें विध्वंसक शब्दों का जो खिलवाड़ होता है, वह भी आश्चर्य ही है। संविधान हत्या विरोधी दिवस भाजपा का ताजा दांव है, जिसमें आपातकाल की याद लोगों को दिलाई जाएगी और इसके लिए हत्या जैसे शब्द का सहज इस्तेमाल भाजपा ने कर लिया। इसी तरह विभाजन की विभीषिका के साथ स्मृति शब्द जोड़ा गया। ऐसा नहीं है कि बंटवारे के दर्द को लोगों ने बाद में याद नहीं किया। भीष्म साहनी के लेखन का बड़ा हिस्सा बंटवारे पर ही है। सआदत हसन मंटो, कृष्णा सोबती, कमलेश्वर, अमृता प्रीतम, यशपाल जैसे कई लेखकों ने बंटवारे पर कहानियां, उपन्यास, नाटक लिखे। बंटवारे पर फिल्में, धारावाहिक भी बने। लेकिन सबमें मूल सवाल यही रहा कि सरहदें बंटने से क्या इंसानियत के मायने बदल जाते हैं। क्या कोई भी धर्म इंसानियत से बड़ा हो सकता है।
नरेन्द्र मोदी को कभी अपने लिखे को पढ़ने से फुर्सत मिले, तो उन्हें विभाजन पर लिखे गए साहित्य को भी पढ़ना चाहिए, तब उन्हें यह अहसास होगा कि विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस की शुरुआत करके असल में उन्होंने फिर से बंटवारे की मानसिकता को ताजा करने का काम किया है। संघ की सोच तो हमेशा से अखंड भारत वाली रही है। हालांकि भू राजनैतिक परिस्थितियों को दरकिनार करके संघ किस तरह से इस सोच को अमल में लाएगा, यह भी एक अबूझ पहेली है।
श्री मोदी ने इस बरस ट्वीट किया है कि हम उन अनगिनत लोगों को याद करते हैं जो विभाजन की भयावहता से प्रभावित हुए और उन्हें बहुत तकलीफ हुई। यह उनके साहस को श्रद्धांजलि देने का भी दिन है, जो मानवीय लचीलेपन की शक्ति को दर्शाता है। विभाजन से प्रभावित बहुत से लोगों ने अपने जीवन को फिर से संवारा और अपार सफलता प्राप्त की। आज, हम अपने देश में एकता और भाईचारे के बंधनों की हमेशा रक्षा करने की अपनी प्रतिबद्धता को भी दोहराते हैं। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने कहा कि पाकिस्तान का या तो भारत में विलय होगा या फिर हमेशा के लिए इतिहास से समाप्त हो जाएगा। भाजपा के इन दो नेताओं के वक्तव्यों से समझ आता है कि असल में इनके लिए आजादी का महत्व सत्ता से जुड़ा हुआ है और इसमें विभाजन के दिन को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करना पड़े तो यह भी इन्हें मंजूर है।
देश में एकता और भाईचारे की बात करने वाले प्रधानमंत्री मोदी चुनावी भाषणों में कपड़ों से पहचान की बात भी करते हैं और जिनके ज्यादा बच्चे होंगे, कांग्रेस उन्हें आपका धन दे देगी, जैसे बयान भी देते हैं। गनीमत है कि देश की जनता ने इन चुनावों में ऐसे भाषणों को तरजीह नहीं दी। वैसे भी भारत की जनता आजादी और लोकतंत्र दोनों का महत्व अच्छे से समझती है। खासकर मौजूदा वैश्विक हालात देखकर यह बात और गहराई से समझी जा सकती है कि एक आजाद और लोकतांत्रिक देश में रहने के क्या मायने होते हैं। इजरायल के आक्रमण से फिलीस्तीन के लोगों की जो दशा हुई है, शायद नारकीय शब्द भी उसके लिए पर्याप्त नहीं होगा। अपने क्रूर शासक की सरपरस्ती में इजरायली सैनिक नृशंसता की सारी हदें पार कर रहे हैं और संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं बतकही से काम चला रही हैं। अमेरिका की शह पर युद्ध का घिनौना खेल खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। इधर रूस और यूक्रेन में भी किसी तरह युद्ध विराम नहीं हो रहा, बल्कि यूक्रेन रूस की सीमाओं के भीतर आ गया है, जिससे साफ हो गया है कि नाटो का खतरनाक खेल इतनी जल्दी रुकने वाला नहीं है। हमारे अपने पड़ोसी बांग्लादेश में जिस तरह से तख्तापलट किया गया, वह चिंताजनक है ही, उससे भी खतरनाक बात यह है कि वहां धार्मिक पहचान के आधार पर हिंसा हो रही है। जबकि बांग्लादेश अपने गठन की शुरुआत से धर्मनिरपेक्षता को लेकर चला है। मगर सत्ता की आड़ में धर्मांध तत्वों ने वहां भी घुसपैठ कर ली। गनीमत यह है कि वहां की अंतरिम सरकार के मुखिया और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मोहम्मद युनूस ने 13 अगस्त को ढाकेश्वरी मंदिर जाकर अल्पसंख्यकों को आश्वासन दिया कि वे उनके हितों की रक्षा करने के लिए तैयार हैं। मो.युनूस ने कहा कि 'हमारी लोकतांत्रिक आकांक्षाओं में हमें मुसलमान, हिंदू या बौद्ध नहीं बल्कि इंसान के तौर पर में देखा जाना चाहिए। हमारे अधिकार सुनिश्चित किए जाने चाहिए। सभी समस्याओं की जड़ संस्थागत व्यवस्थाओं के क्षय में है। इसीलिए ऐसे मुद्दे उठते हैं। संस्थागत व्यवस्थाओं को दुरुस्त करने की जरूरत है।'
बांग्लादेश के नए मुखिया ने बिल्कुल नोबेल विजेता के अनुरूप ही बातें कही हैं। समस्याएं लोगों में नहीं व्यवस्था में होती है और उन गड़बड़ियों को दूर करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। व्यवस्था की कमियों से ध्यान भटकाने के लिए धर्म की आड़ में इंसानों को अगर निशाना बनाया जाना लोकतंत्र की पहचान नहीं है। यह बात बांग्लादेश के लिए ही नहीं भारत के लिए भी उतनी ही माकूल है। कहने को तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी लालकिले की प्राचीर से अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा की बात कह चुके हैं, लेकिन उनके शासनकाल में यह बात अमल में कभी आती नहीं दिखी। कांवड़ यात्रा के मार्ग पर दुकानों में नाम लिखने से लेकर ताजमहल के भीतर गंगाजल चढ़ाने और वक्फ बोर्ड संशोधन तक भेदभाव की परतें कई स्तरों पर खुली हैं। इन ताजा उदाहरणों के अलावा दस सालों के कई ऐसे प्रकरण हैं, जब संविधानप्रदत्त समानता के अधिकार का हनन हुआ है।
इस पृष्ठभूमि में जब हम एक और स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहे हैं, तो हरेक नागरिक को खुद से सवाल करना चाहिए कि आजादी के अनुपम तोहफे को क्या सियासत के फीते में बांधने की अनुमति किसी को भी दी जा सकती है।


