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मोदी की हिन्दू-मुस्लिम से तौबा का यथार्थ

भारत में पिछले 10 वर्षों के दौरान एक ऐसा मीडिया विकसित हुआ है जिसका प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से घरोबा जैसा है

मोदी की हिन्दू-मुस्लिम से तौबा का यथार्थ
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भारत में पिछले 10 वर्षों के दौरान एक ऐसा मीडिया विकसित हुआ है जिसका प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से घरोबा जैसा है। यह कोई नवनिर्मित मीडिया नहीं है वरन विद्यमान मीडिया का ही बड़ा हिस्सा है जिसने अपने आप को मोदीमय कर लिया है। मोदी का वह समर्थक है सो वह भारतीय जनता पार्टी के हर काम-काज की तारीफ करता है। मोदी के मित्र उसके भी मित्र हैं और मोदी के दुश्मन उसके भी दुश्मन बन जाते हैं। मोदी के कहे को तर्कसंगत साबित करने से लेकर उनके हर फैसले को 'मास्टरस्ट्रोक' बतलाने वाला यह मीडिया कहने को स्वतंत्र है पर वह चलता है मोदी एवं उनकी पार्टी की विचारधारा के अनुरूप। देश के कुछ बड़े कारोबारी घरानों की मिल्कियत वाले इन मीडिया घरानों ने, जिनमें प्रकाशन वाला मीडिया है तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी- अपने उच्च शिक्षित व मोटी तनख्वाह वाले पत्रकारों को पिछले दशक भर से एक ही काम में लगा रखा है, वह है भाजपा की सरकार को बनाये रखना।

इनमें से कुछ पत्रकार बेहद मुंहलगे हैं जो भाजपा प्रवक्ताओं जैसे काम करते हैं। मोदी को जो कहना होता है, वे उनमें से कुछ को अपने साथ लेते हैं और कोई नयी बात करते हैं। इन बातों को प्रकाशित सामग्री के रूप में या स्टूडियो के जरिये लोगों तक पहुंचाया जाता है। इन्हीं पत्रकारों के जरिये लोगों को कभी पता चलता है कि मोदी ने कोई शिक्षा हासिल नहीं की है, तो वे ही जनता तक यह बात पहुंचाते हैं कि मोदी ने 35 साल भिक्षावृत्ति की है। उन्हीं के जरिये देश जान सका है कि मोदी जी ने कई वर्षों तक हिमालय में तपस्या की है। कुछ मोदी से सुनी तो कुछ अपनी कल्पना शक्ति के बल पर यह मीडिया दो हजार के नोट में चिप लगाता है तो गोबर में हीरा खोजता फिरता है। वैसे तो मोदी पत्रकारों से बहुत कम बात करते हैं। उनकी एक अदद प्रेस कांफ्रेंस के लिये पूरा देश 10 बरस से तरस रहा है। 'मन की बात' या जनता से बहुत दूर व सुरक्षित ऊंचाई पर बने मंचों से एकालाप के जरिये अपनी बात कहने के आदी हैं पीएम।

वाराणसी से लोकसभा के लिये तीसरी बार अपना नामांकन भरने के बाद पतित पावनी गंगा मैया के तटों पर विचरण करते हुए मोदी ने यकायक सेक्यूलर चोला ओढ़ लिया। उन्होंने मीडिया वाली से कहा- 'जिस दिन मैं हिन्दू-मुस्लिम करने लगूंगा उस दिन मैं सार्वजनिक जीवन में रहने योग्य नहीं रह जाऊंगा।' उनका यह बयान सभी लोगों, खासकर उनके अपने पार्टी कार्यकर्ताओं व समर्थकों के लिये आश्चर्य और सदमे की तरह रहा होगा, लेकिन उक्त पत्रकार ने उनके इस बयान को बिग ब्रेकिंग के रूप में प्रसारित कर नाम तो कमा लिया, लेकिन पत्रकार-धर्म को पूरी तरह से गंगा में विसर्जित करते हुए। प्रेस कांफ्रेंस में तो किसी भी पत्रकार को ज्यादा सवाल करने का अवसर अक्सर नहीं मिलता पर ऐसे एक्सक्लूज़िव साक्षात्कारों में न सवालों की सीमा होती है, न समय की बंदिश। फिर उपरोक्त महिला पत्रकार ने क्यों मोदी से यह नहीं कहा कि, 'मोदी जी, हाल ही में आपने तो कांग्रेस के न्यायपत्र पर 'मुसलिम लीग की छाया' बतलाया था और आपने लोगों से यह भी कहा था कि यदि कांग्रेस सत्ता में आई तो आपके मंगलसूत्र छीनकर 'कई बच्चों वालों' को दे देगी,' या यह भी नहीं पूछा कि, 'मोदी जी, कांग्रेस का तो देश में पिछले 55 वर्षों तक राज रहा। उसने ऐसा तो कभी भी नहीं किया।' पत्रकार को मोदी जी के स्मरण में यह भी लाना था कि आप खुद कहते रहे हैं कि 'मैं कपड़े देखकर जान जाता हूं।' मोदी को वह सारा कुछ ध्यान दिलाना था कि कैसे 10 साल उन्होंने हिन्दू-मुसलिम और भारत-पाकिस्तान करते हुए गुजार दिये।

खैर, मोदी से जितने लोगों ने हाल के वर्षों में साक्षात्कार किये हैं, उन्हें ध्यान से देखा जाये तो इस आरोप में दम दिखता है कि सवाल भी पहले से तय होते हैं और जवाब भी। तभी तो किसी भी प्रकाशित या प्रसारित इंटरव्यू में ऐसे कोई सवाल नहीं होते जो मोदी या भाजपा को असहज करते हों। न उनमें नोटबन्दी समेत मोदी सरकार की तमाम असफल योजनाओं का जिक्र होता है, न ही मणिपुर का। न महिला पहलवानों के साथ होती ज्यादतियों का और न ही आदिवासी के सिर पर पेशाब करते भाजपा कार्यकर्ता का। न भ्रष्टाचारी कहे जाने वाले विरोधियों के भाजपा प्रवेश का और न ही इलेक्टोरल बॉन्डस का।

खैर, होगा भी नहीं। मोदी ने जो दावा किया था कि हिन्दू-मुस्लिम करने पर वे सार्वजनिक जीवन के योग्य नहीं रह जाते, वह (दावा) ज्यादा देर तक जिंदा न रह सका। अगली ही सुबह (बुधवार को) महाराष्ट्र के डिंडौरी की आम सभा में मोदी ने बयान दिया कि 'अगर कांग्रेस की सरकार आएगी तो वह सरकार के पूरे बजट का 15 प्रतिशत अल्पसंख्यकों को दे देगी।' फिर, उसी दिन मुंबई की सभाओं में उन्होंने राममंदिर का जिक्र किया और कहा कि शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे जीवित होते तो बहुत दुखी होते क्योंकि 'नकली शिवसेना' (उद्धव ठाकरे गुट) ने राममंदिर में प्राणप्रतिष्ठा का विरोध किया था जबकि बाल ठाकरे का सपना मंदिर निर्माण का था। सवाल है कि क्या मोदी व भाजपा का चुनावी विमर्श हिन्दू-मुस्लिम किये बिना सम्भव है? उत्तर है- नहीं, क्योंकि पिछले 100 वर्षों से भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वैचारिक आधार धार्मिक विभाजन ही तो है। मोदी ने इससे तौबा कर ली तो उन्हें हटाने में न भाजपा-संघ देर करेगा न समर्थक-कार्यकर्ता।


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