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सीएए का असल मकसद

केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन एक्ट यानी सीएए को आखिरकार लागू करने का फैसला सुना ही दिया है

सीएए का असल मकसद
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केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन एक्ट यानी सीएए को आखिरकार लागू करने का फैसला सुना ही दिया है। सोमवार दिन में सारे देश में इस बात पर चर्चा चल रही थी कि चुनावी बॉंड के आंकड़े दिखाने में टालमटोल करने वाले स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को सुप्रीम कोर्ट ने जो कड़ा आदेश दिया है, उसका क्या असर भाजपा और नरेन्द्र मोदी पर होगा, लेकिन शाम होते-होते चर्चा का रुख ही बदल गया। पहले खबर आई कि प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्र के नाम संबोधन करने वाले हैं, जिससे कयास लगने लगे कि अब साहब कौन सा फरमान सुनाने वाले हैं।

नोटबंदी और लॉकडाउन की उनकी घोषणाओं के बाद अब प्रधानमंत्री के राष्ट्र्र के नाम संबोधन को सहज रूप में नहीं लिया जाता है। हालांकि जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि प्रधानमंत्री कोई संबोधन नहीं कर रहे हैं और उन्होंने अग्नि 5 के परीक्षण पर बधाई का ट्वीट किया है। लेकिन इस ट्वीट के फौरन बाद ही यह खबर आ गई कि सरकार ने सीएए के नियमों की अधिसूचना जारी कर दी है और इसी के साथ यह क़ानून देश में लागू हो गया है।

गौरतलब है कि 2019 में ही केंद्र सरकार ने सीएए को संसद के दोनों सदनों से पारित करवा लिया था और इस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर भी तभी हो गए थे। यानी सरकार के पास इसे लागू करने के लिए पर्याप्त समय था। संसदीय कार्य नियमावली के मुताबिक राष्ट्रपति की मंजूरी के छह महीने के अंदर किसी भी कानून के नियम तय किए जाने चाहिए या फिर सरकार को लोकसभा और राज्यसभा में अधीनस्थ विधान समितियों से विस्तार मांगना होता है। 2020 से ही गृह मंत्रालय सीएए के नियम बनाने के लिए संसदीय समितियों से समय-समय पर विस्तार मांगता रहा, दूसरे शब्दों में कहें तो सीएए लागू करने को टालता रहा। शायद भाजपा इसके लिए माकूल वक्त के इंतजार में थी या इसे किसी ट्रंप कार्ड की तरह इस्तेमाल करने की फिराक में थी। तभी चुनाव की घोषणा के कुछ दिनों पहले सीएए को लागू करने का ऐलान हुआ है।

यह सर्वविदित है कि राम मंदिर के उद्घाटन के नाम पर धु्रवीकरण की जो कल्पना भाजपा ने की थी, वो पूरी नहीं हुई। लोगों के सामने रोजगार और महंगाई के सवाल धर्म से अधिक महत्वपूर्ण बन कर खड़े हो गए। अलग-अलग राज्यों में जिस तरह भाजपा सरकारों की पूरी की पूरी कैबिनेट सामूहिक दर्शन के लिए अयोध्या पहुंच रही है, उससे यही नजर आ रहा है कि लोगों को किसी भी तरह राम मंदिर की याद दिलाई जा रही है, ताकि चुनाव में उसका लाभ मिल सके। राम मंदिर का कार्ड नहीं चल पाया तो अब सीएए का कार्ड चला गया है।

ज्ञात हो कि नागरिकता कानून में संशोधन के बाद अब इसका जो रूप सामने आया है, उसमें संविधान की मूल भावना का उल्लंघन है। संविधान का अनुच्छेद 14 नागरिकों को समानता का अधिकार देता है, किसी भी तरह के भेदभाव को नकारता है। लेकिन इस कानून में नागरिकता का प्रावधान ही धर्म के आधार पर है। सीएए के तहत 31 दिसंबर 2014 से पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान केवल इन तीन देशों से भारत आए गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों यानी हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय को नागरिकता देने की व्यवस्था की गई है। अब तक किसी भी व्यक्ति को भारतीय नागरिकता लेने के लिए कम से कम 11 साल भारत में रहना अनिवार्य था, लेकिन सीएए के साथ ही पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों के लिए यह समय अवधि 11 साल से घटाकर 6 साल कर दी गई है।

पहली नजर में देखने पर यह व्यवस्था वसुधैव कुटुंबकम और शरणागत की रक्षा जैसे महान विचारों को धरातल पर लाने की प्रतीत होती है। लेकिन इसमें बड़ी चालाकी से विभाजन के तत्व शामिल किए गए हैं क्योंकि इसमें केवल गैर मुस्लिमों को नागरिकता का प्रावधान है, श्रीलंका में सताए हुए तमिल और म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों के लिए यह सदाशयता नहीं दिखाई गई है। सीएए में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की साजिश भी नजर आती है। कुछ दिनों पहले भाजपा सांसद अनंत हेगड़े ने कहा था कि 4 सौ सीटें संविधान बदलने और हिंदू धर्म की रक्षा के लिए चाहिए। इसका मतलब है कि भाजपा संविधान बदलने की नीयत रखती है। श्री मोदी ने अभी अपने सांसद के बयान का खंडन नहीं किया है, तो इससे आशंका बलवती होती है कि क्या भाजपा संविधान के मुताबिक शासन चलाएगी। सीएए का फैसला भी संविधान के मुताबिक नहीं है। साथ ही इससे देश की समस्याओं में और बढ़ोतरी के डर भी संलग्न है।

जब इस कानून को लाने की तैयारी केंद्र सरकार ने की थी, तभी से इसका विरोध भी शुरु हो गया था। दिल्ली में शाहीन बाग में महिलाओं ने इसके विरोध में लंबा आंदोलन चलाया और फिर यह पूरे देश में फैला। इसका पूर्वोत्तर के राज्यों में भी काफी विरोध हुआ, क्योंकि असम, मेघालय, मणिपुर, मिज़ोरम, त्रिपुरा, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश ये सभी बांग्लादेश की सीमा के बेहद क़रीब हैं और यहां के नागरिकों को डर है कि बांग्लादेश से आने वाले लोग अगर भारत के नागरिक बन गए तो इससे उनके अधिकार छीने जाएंगे। मणिपुर में जब मैतेई और कूकी समुदायों के बीच अधिकारों की ऐसी ही लड़ाई से हिंसक संघर्ष खड़ा हो गया तो कल्पना की जा सकती है कि आने वाले वक्त में देश में ऐसे कई और संघर्ष हो सकते हैं।

यानी साफ तौर पर यह जानबूझकर देश में खतरे पैदा करने की कोशिश है। भाजपा इसमें अपना राजनैतिक लाभ देख रही होगी, लेकिन देश को इससे नुकसान ही होगा। देश की 140 करोड़ की आबादी के लिए ही बुनियादी सुविधाओं, नौकरी, शिक्षा, सड़क, अस्पताल आदि की समुचित व्यवस्था सरकार नहीं कर पा रही है। पिछले 10 सालों में कम से कम 12 लाख लोग विदेश जाकर बस गए हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि सरकार अपने नागरिकों को जीने का बेहतर माहौल नहीं दे पा रही है। ऐसे में तीन देशों के गैर मुस्लिमों के लिए नागरिकता के दरवाजे खोलने का कोई औचित्य नहीं दिखता, सिवाए इसके कि चुनावों में धु्रवीकरण किया जा सके।


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