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शराब पीने की रफ्तार गिरने लगी

अब बिहार के जानकार लोग तो यह बात नहीं मानेंगे कि शराब की बिक्री की रफ्तार कुछ कम होने में उनके प्रदेश की शराबबंदी का भी योगदान है

शराब पीने की रफ्तार गिरने लगी
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- अरविन्द मोहन

जहां बंदिश है वहां राजस्व का या कथित विकास का क्या नुकसान हो रहा है यह हिसाब उंगलियों पर गिनवा दिया जाता है। लेकिन जगह-जगह शराब के खिलाफ आंदोलन भी हों रहे है, खासकर महिलाओं की तरफ से। जिन घरों के पुरुष अपनी कमाई और स्वास्थ्य शराब की भेंट चढ़ा देते हैं उस घर को चलाना महिलाओं के लिए कितना मुश्किल होता है यह कोई नहीं सोचता।

अब बिहार के जानकार लोग तो यह बात नहीं मानेंगे कि शराब की बिक्री की रफ्तार कुछ कम होने में उनके प्रदेश की शराबबंदी का भी योगदान है, असल में ऐसा हो सकता है। देश में शराब की मांग जहां तीन साल पहले बारह फीसदी की रफ्तार से बढ़ी वह अब गिरकर चार फीसदी और फिर दो फीसदी हो चुकी है और इस कारोबार के लोग इसे भी राहत की खबर ही मान रहे हैं क्योंकि वैश्विक स्तर पर शराब की खपत में एक फीसदी साल की कमी आती जा रही है। और यह कमी शराब कंपनियों की उत्पादन क्षमता घटाने या ब्रांड प्रोमोशन में ढील देने के चलते नहीं आ रही है। माना जाता है कि यह औसत क्रय शक्ति कम होने और शराब की कीमत के आबादी के एक हिस्से की क्रय शक्ति से बाहर होने के चलते हो रहा है। ये लोग दूसरी ओर सस्ती चीजों से नशा की लत शांत कर रहे होंगे, यह सामान्य अनुमान है। इसमें अधिक मारक ड्रग और घटिया कच्ची शराब शामिल है। इनके दुष्प्रभाव जगजाहिर हैं और अपने यहां, खासकर नशाबंदी वाले बिहार और गुजरात में, अक्सर कच्ची शराब पीने से मौत की खबरें आती हैं और ऐसे लोग शासन की चिंता से बाहर हो चुके हैं।

अपने यहां जो कमी आ रही है वह मुख्यत: शराब पर भारी कर लगाने से आ रही है। जीएसटी लागू होने के बाद से ज्यादातर राज्यों के राजस्व में कमी आई है। खर्च के आइटम बढ़ते ही जा रहे हैं, खासकर लोकलुभावन कार्यक्रमों से चुनाव जीतने की होड़ बढ़ने के कारण। सो सबको राजस्व बढ़ाने का एक ही सरल तरीका दिखता है- शराब की बिक्री बढ़ाओ और उस पर ज्यादा कर लगाकर खजाना भरो। दिल्ली में हमने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से निकली आप की सरकार के इस खेल में शामिल होने का तमाशा देखा है। अब भाजपा सरकार ने बिक्री और उपलब्धता में किसी किस्म की सख्ती की हो इसकी सूचना नहीं है। ठीक उलटी सूचना पड़ोस के उत्तर प्रदेश की है जो आज देश में न सिर्फ सबसे ज्यादा शराब बेचता है बल्कि जिसकी बिक्री बढ़ाने की रफ्तार भी सबसे तेज है। योगी राज शुरु होते समय जो राजस्व 17250 करोड़ था वह अब पचास हजार करोड़ तक पहुंच चुका है। यही नहीं, इस सरकार की शराब के ठेकों की नीलामी नीति को भी शराब के व्यापार के लोग सबसे अनुकूल पाते हैं। नोएडा और गाजियाबाद देश में शराब की सबसे ज्यादा और तेज वृद्धि वाले जिले हैं।

व्यापार के जानकार मानते हैं कि जो दुनिया का ट्रेंड है वह हमारे यहां भी है। लेकिन दो वजहों से हमारे यहां अभी कमी या गिरावट नहीं दिखती। गरीबी, क्रय शक्ति में कमी और घटिया नशा का रिकार्ड तो हमारा ही ज्यादा खराब है। लेकिन हमारे समाज में अब तक महिलाओं के शराब पीने का बुरा माना जाता था। आज समाज के एक समूह मे महिलाओं में शराब पीने का चलन तेजी से बढ़ रहा है। बीते तीन दशक के उदारीकरण से पैदा और मजबूत हुआ यह वर्ग इससे लाभान्वित है और भारी कमाई वाले काम कर रहा है। इनमें लड़कियों की संख्या भी काफी है। शराब की खपत बढ़ाने वाला एक जमात यह भी है। एक दूसरा कारण विदेशी ब्रांड के शराब की उपलब्धता सुलभ होना है। कभी विदेशी शराब पर 350 फीसदी तक का सीमा शुल्क लगता था। आज यह सस्ता हुआ है या देश में ही उसका उत्पादन होने लगा है। इसके चलते भी मांग बढ़ी है। रम की बिक्री में सालाना एक फीसदी की वृद्धि हुई है, ब्रांडी में ढाई फीसदी तो वोदका में 19 फीसदी और जिन में पंद्रह फीसदी वृद्धि की रफ्तार है। व्हिस्की की मांग जरूर सबसे ज्यादा बनी हुई है और उसमें कमी आती नहीं दिखती। युवा वर्ग में शान, फैशन और मेलजोल का माध्यम बनने से भी शराब की लोकप्रियता और खपत बढ़ रही है।

शराब व्यवसाय से जुड़े लोगों का मानना है कि उत्तर प्रदेश, दिल्ली, कर्नाटक, महाराष्ट्र और हरियाणा (जहां शराब अपेक्षाकृत सस्ती मिलती है) जैसे राज्यों में खपत ठीक रहने की वजह उदारीकरण से अमीर हुए वर्ग का यहां सिमटना भी बदलाव का एक पक्ष है। शराब की खपत या नशे का चलन हर कहीं बढ़ा है लेकिन अमीरी से शराब की बिक्री का सीधा रिश्ता है और शराब की खपत के साथ की और चीजों की मांग और खपत भी बढ़ती है। मांसाहार ऐसी एक चीज है। बढ़ने को तो उत्तर प्रदेश के हर जिले में शराब की मांग बढ़ी है (बिहार के सीमावर्ती जिलों में और भी ज्यादा) लेकिन गाजियाबाद और नोएडा का जोड़ नहीं है। हरियाणा में भी गुड़गांव और फरीदाबाद सबसे आगे है। जाहिर तौर पर बाजार इससे खुश है लेकिन बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो लागत, कीमत और टैक्स बढ़ाने से महंगी हुई शराब नहीं ले पा रहा है। यह जमात बढ़ता जा रहा है। अनाज की कीमतों, न्यूट्रल अल्कोहल और कांच समेत पैकेजिंग के अन्य मटेरियल की कीमत बढ़ाने से शराब उद्योग पर भी जोर बढ़ा है। सरकार और उसके पास दाम और टैक्स बढ़ाने का विकल्प है लेकिन सोने के अंडों की चाह में मुर्गी हलाल हुई तो कुछ भी नहीं मिलेगा।

इसके साथ ही यह भी सच है कि शराब पीने से जुड़े उत्पाद भी बढ़ते गए हैं-खासकर कमजोर और दिहाड़ी करने वाले वर्ग में। जहां ठेकों से सस्ती शराब का विकल्प है वहां भी वह क्या नुकसान करती है इस बारे में कोई अध्ययन करने या कराने की फुरसत किसी को नहीं है। जहां बंदिश है वहां राजस्व का या कथित विकास का क्या नुकसान हो रहा है यह हिसाब उंगलियों पर गिनवा दिया जाता है। लेकिन जगह-जगह शराब के खिलाफ आंदोलन भी हों रहे है, खासकर महिलाओं की तरफ से। जिन घरों के पुरुष अपनी कमाई और स्वास्थ्य शराब की भेंट चढ़ा देते हैं उस घर को चलाना महिलाओं के लिए कितना मुश्किल होता है यह कोई नहीं सोचता। लेकिन जब जहरीली शराब और जैसे तैसे बनाई अवैध शराब बड़े पैमाने पर जान लेती है तो सभी आंसू बहाने आ जाते है और फिर दूसरे दिन सब भूल भी जाते हैं।


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