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जनता का डंका बज गया

भाजपा के अलावा दूसरे दलों के भी उन तमाम अहंकारी नेताओं को जवाब मिल गया है

जनता का डंका बज गया
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- सर्वमित्रा सुरजन

भाजपा के अलावा दूसरे दलों के भी उन तमाम अहंकारी नेताओं को जवाब मिल गया है, जिन्होंने खुद को जनतंत्र से ऊपर समझने की गलती की। अपनी कमजोरियों को सहजता से स्वीकार नहीं किया और न ही सही सलाह देने वालों को सुनने की समझदारी दिखाई। इंडिया गठबंधन में भी कई नेता ऐसे ही अतिआत्मविश्वास और घमंड का शिकार रहे।

नरेन्द्र मोदी का हमेशा दावा रहा है कि दुनिया में उनका डंका बजता है। लेकिन 4 जून को जब 18वीं लोकसभा के नतीजे आए तो नरेन्द्र मोदी देश तक में अपने नाम का डंका नहीं बजवा पाए। जबकि भाजपा ने पूरा चुनाव मोदी नाम के इर्द-गिर्द ही लड़ा। वाराणसी में ले-देकर नरेन्द्र मोदी अपनी सीट बचा पाए। दो बार का प्रधानमंत्री होने के बावजूद वे आसान जीत नहीं दर्ज कर पाए, ना ही बड़े अंतर से सीट जीती।

महज डेढ़ लाख वोट का अंतर हार और जीत का रहा। उनसे अधिक वोट राहुल गांधी रायबरेली में ले आए, जबकि स्मृति ईरानी और नरेन्द्र मोदी राहुल गांधी को वायनाड और रायबरेली दोनों से भगाने का दावा करते रहे। खैर, नरेन्द्र मोदी ने राहुल गांधी ही नहीं भारतीय जनता को समझने में भी भूल की। उन्हें लगा होगा कि वे एक तरफ निम्न स्तर के भाषणों से विपक्ष पर प्रहार करते रहेंगे और दूसरी तरफ विभिन्न वेषभूषाओं में पूजा-पाठ करते दिखेंगे तो जनता इससे प्रभावित होगी। यहीं वे चूक कर गए, क्योंकि इस देश की आम जनता के पास वो पैनी नजर है जिससे वो असलियत और दिखावे का फर्क कर लेती है। पांच किलो अनाज लेने के लिए लाइनों में खड़े 85 करोड़ लोगों की जेबें बेशक खाली रहीं, लेकिन सामान्य समझ भरी-पूरी रही। जिससे वे समझ गए कि उन्हें इस तरह लाइनों में खड़ा करने का जिम्मेदार कौन है।

क्यों उनके जवान बच्चे काम पर नहीं जाते, लेकिन धार्मिक जुलूसों या कांवड़ यात्रा का हिस्सा बनते हैं और बाकी खाली वक्त में बेरोजगारी की कुंठा और तनाव से गुजरते हैं। जो सरकार हजारों करोड़ का भव्य मंदिर बनवा सकती है, जो बिना जरूरत के सेंट्रल विस्टा का निर्माण करती है, वो रोजगार देने वाले उद्यमों को खड़ा क्यों नहीं करती। जय जवान और जय किसान वाले इस देश में जवानों और किसानों की दुर्दशा किन कारणों से हुई, ऐसे कई सवालों का जवाब जनता ने बीते वर्षो में खुद से तलाश कर लिया था। इसलिए इस बार उसने ऐसा जनादेश दिया कि फिर कोई नेता यह बड़बोलापन न कर सके कि एक अकेला सब पर भारी है। लोकतंत्र में एक अकेले के लिए न कभी कोई जगह थी, न रहेगी, ये बड़ा संदेश इन चुनावों में जनता ने दे दिया।

पाठकों को भाजपा का घोषणापत्र याद होगा ही, जिसमें भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा से कहीं ज्यादा तस्वीरें नरेन्द्र मोदी की थीं और जनता से किए वादों को मोदी की गारंटी के नाम से ही पेश किया गया। चुनावों में सबसे अधिक प्रचार भी नरेन्द्र मोदी ने ही किया। कई महीनों से वे दिल्ली में अपने प्रधानमंत्री कार्यालय में कम और चुनाव क्षेत्रों में ज्यादा नजर आए। 15 अगस्त 2023 को लालकिले की प्राचीर से उन्होंने ऐलान कर दिया था कि तीसरी बार भी मैं ही झंडा फहराने आऊंगा। यह सीधे-सीधे भारतीय जनता के विवेक और लोकतांत्रिक अधिकारों को चुनौती थी कि तुम्हारी मर्जी अब मायने नहीं रखती, केवल मेरे मन की बात का महत्व है। इसके बाद 5 फरवरी 2024 को संसद में प्रधानमंत्री मोदी ने ऐलान कर दिया कि एनडीए को 4 सौ के ऊपर और अकेले भाजपा को 370 सीटें मिलेंगी। यह दावा देश के मिज़ाज भांपने के दम पर किया गया था।

चुनाव प्रक्रिया शुरु हुई नहीं थी कि नरेन्द्र मोदी ने यह बताना शुरु कर दिया कि कितने देश उन्हें अभी से जून के बाद होने वाले कार्यक्रमों के लिए बतौर प्रधानमंत्री न्यौता दे रहे हैं। अर्थात न केवल उन्हें बल्कि दुनिया को भी यकीन है कि आएगा तो मोदी ही। जी हां, यही नारा भाजपा में मोदी समर्थकों की जुबां पर हमेशा रहा है। ये नारा अपने आप में खासा अलोकतांत्रिक है। लेकिन जिनके सरोकारों में लोकतंत्र दूर-दूर तक न हो, उनसे क्या अपेक्षा की जा सकती है।

इस देश को लोकतंत्र और संविधान बचाने की सारी अपेक्षाएं विपक्ष से ही थीं। क्योंकि देश ने यह मंजर भी देख लिया कि कैसे एक के बाद एक करते-करते सौ से अधिक सांसदों को संसद से निलंबित कर दिया गया। किस तरह संसद के नए भवन के भीतर धुआं फैलाने की घटना हो गई। जिसे हमला ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि इसमें जान-माल की हानि तो नहीं हुई, लेकिन संसद की मर्यादा पर वार तो किया ही गया था। विपक्ष इस मुद्दे पर सरकार से जवाब मांगता रह गया, मगर जैसे पुराने सारे सवाल संसद की दीवारों से टकराकर लौट गए, वैसा ही इस मुद्दे पर भी हुआ। देश देख रहा था कि पिछले दस सालों में संसद लोकतंत्र का मंच नहीं रह गया, मन की बात करने का अड्डा बन गया है। जहां कई बड़े फैसले, महत्वपूर्ण विधेयक बिना किसी चर्चा के केवल बहुमत के दम पर पारित कर लिए गए। पुरानी संसद में, आजादी के बाद जब देश निर्माण के साथ-साथ संविधान निर्माण का काम हो रहा था तो एक-एक धारा, अनुच्छेद, बिंदु पर गंभीर विमर्श होते थे, भारत के विविधताओं से भरे संसार को सहेजने की कोशिश होती थी ताकि हर किसी का आत्मगौरव और सम्मान कायम रहे, भले ही वह अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक। पिछले दस बरसों में इसी संविधान को धता बताने का काम शुरु हो गया। आम भारतीय की भावनाओं, अधिकारों और हितों से मानो सरकार का कोई लेना-देना ही नहीं रहा। जिस फैसले से सत्ता मजबूत हो, उद्योगपति मित्रो का हित साधन हो, बस वही फैसले लिए जाते रहे।

इस नकारात्मकता से भरे माहौल में वह भारत बेहद तेजी से खत्म होता जा रहा था, जिसके बारे में अल्लामा इकबाल ने कहा था कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जमां हमारा। इस माहौल के बारे में राहुल गांधी ने अपनी पहली भारत जोड़ो यात्रा में देश को सचेत किया। नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान, जैसी बात महज नारा नहीं था, अपने आप में पूरा दर्शन था, जिसमें भारत की हस्ती को न मिटने देने का संकल्प था। इस संकल्प में देश की जनता ने राहुल गांधी का साथ दिया, उसके साथ-साथ विपक्ष के कई दलों ने अपना समर्थन दिया। नतीजा यह रहा कि इंडिया गठबंधन एक मजबूत विकल्प के तौर पर सियासी मंच पर उभर गया। जो लोग मोदी नहीं तो कौन जैसा बेमानी सवाल उठाते रहे, उन्हें सटीक जवाब मिल गया कि हर बार मोदी ही हों, यह बिल्कुल भी जरूरी नहीं है।प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ऐसा कोई भी शख्स बैठ सकता है, जिसके दल या गठबंधन ने बहुमत हासिल किया हो और फिर उसके दल या गठबंधन के लोगों ने उसे प्रधानमंत्री पद पर बिठाया हो। नरेन्द्र मोदी और उनके पहले के सारे प्रधानमंत्री इसी तरह इस कुर्सी पर बैठे, लेकिन न जाने किस मकसद से भाजपा ने यह सवाल उठाना शुरु कर दिया कि मोदी नहीं तो कौन।

बहरहाल, अब भाजपा को जवाब तो मिल ही गया है, और भाजपा के अलावा दूसरे दलों के भी उन तमाम अहंकारी नेताओं को जवाब मिल गया है, जिन्होंने खुद को जनतंत्र से ऊपर समझने की गलती की। अपनी कमजोरियों को सहजता से स्वीकार नहीं किया और न ही सही सलाह देने वालों को सुनने की समझदारी दिखाई। इंडिया गठबंधन में भी कई नेता ऐसे ही अतिआत्मविश्वास और घमंड का शिकार रहे। जिसका नुकसान विपक्ष को उठाना पड़ा। अब जबकि देश के लिए बेहद महत्वपूर्ण 18वीं लोकसभा का चुनाव खत्म हो गया है, नतीजे आ गए हैं, गलतियां पता चल गई हैं और जनता की ताकत भी सामने आ गई है, उम्मीद है अहंकारी नेता आत्ममंथन करेंगे और समझेंगे कि लोकतंत्र में डंका जनता का ही बजता है।


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