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पर्दों के पीछे गरीब छिप सकते हैं, गरीबी नहीं

देश जिन ऊंचाइयों पर बैठा है, वहां उसके साथ और कौन है? वहां केवल विदेशी मेहमान हैं और उनकी आवाभगत करते हुए सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी हैं

पर्दों के पीछे गरीब छिप सकते हैं, गरीबी नहीं
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- डॉ. दीपक पाचपोर

देश जिन ऊंचाइयों पर बैठा है, वहां उसके साथ और कौन है? वहां केवल विदेशी मेहमान हैं और उनकी आवाभगत करते हुए सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी हैं। यहां तक कि सत्ता से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण लोग तक मौजूद नहीं हैं, जो उनकी अपनी पार्टी के हों या सरकार में शामिल लोग। फिर विपक्षी नेताओं की बिसात ही क्या? यह तो सही है कि यह विशिष्ट आयोजन था और उसमें मौजूदगी खास लोगों की हो सकती थी।

इसी शनिवार-रविवार को सम्पन्न हुए जी-20 के सम्मेलन का समापन हो चुका है। तमाम राष्ट्राध्यक्षों की रवानगी हो चुकी है। शक्तिशाली देशों के अंतरराष्ट्रीय संगठन की प्रक्रियागत व रोटेशन में मिली अध्यक्षता को एक तरह से अर्जित पद प्राप्ति का सा प्रचारित कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस आयोजन का प्रचारात्मक एवं स्वयं की छवि एक स्टेट्समैन की तरह बनाने का जितना लाभ उठा सकते थे, उतना उठा चुके हैं। अब इसका फायदा अगले लोकसभा चुनाव में कैसे उठाना है, यह भी वे सोच चुके होंगे। बड़े-बड़े नेताओं के साथ वार्ताएं करते या उनके साथ दोस्ताना ताल्लुक रखने के कारण देश की शक्ति बढ़ने का आभास दिलाने वाली कई खबरें और तस्वीरें पिछले दो दिनों से विभिन्न अखबारों में शाया हुई हैं और सत्ता से मित्रता के आदी टीवी समाचार चैनल फालोअप या साइड स्टोरीज़ के नाम पर अब तक खुशनुमा तस्वीरें दिखा रहे हैं। देश नयी बुलन्दियों पर दिखाया जा रहा है या कम से कम ऐसा माना जा रहा है।

देश जिन ऊंचाइयों पर बैठा है, वहां उसके साथ और कौन है? वहां केवल विदेशी मेहमान हैं और उनकी आवाभगत करते हुए सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी हैं। यहां तक कि सत्ता से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण लोग तक मौजूद नहीं हैं, जो उनकी अपनी पार्टी के हों या सरकार में शामिल लोग। फिर विपक्षी नेताओं की बिसात ही क्या? यह तो सही है कि यह विशिष्ट आयोजन था और उसमें मौजूदगी खास लोगों की हो सकती थी परन्तु आम जनता को जिस तरह से इस दौरान सरकार ने अवांछनीय और त्याज्य बनाया, वह बेहद शर्मनाक है। मुख्यधारा का मीडिया ऐसी खबरें छापने से परहेज करता है लेकिन अब जो बातें सामने आ रही हैं वे भयावह हैं। दिल्ली और देश को खुशहाल साबित करने के लिये जिस प्रकार से गरीब बस्तियों को हरे पर्दों से ढंक दिया गया, वह बताता है कि मोदी सरकार ऐसी जनता को नहीं चाहती। उसके लिये ये देशवासी ही नहीं है। सम्भवत: मोदी अपने अतिथियों को बतलाना चाहते हैं कि उनके देश में न कोई गरीब है और न ही भुखमरी है। मानों यहां गरीब बस्तियां ही नहीं हैं।

यह अलग बात है कि मोदी अपने बारे में इस आशय की बातें फैलाकर ही इस पद तक पहुंचे हैं कि वे काफी गरीब परिवार से आते हैं और उनकी मां ने लोगों के घरों में बर्तन मांजकर सबका गुजारा किया है। यह भी कि उन्होंने बहुत छुटपन में रेलवे स्टेशन पर चाय बेची है। उनकी जिजीविषा को हमेशा से सराहा गया है लेकिन सवाल यह है कि गरीबी से उठकर आये मोदी को देश के इन गरीबों को छिपाने की ज़रूरत क्यों पड़ी? फिर, क्या पर्दे टांग देने से यह तथ्य छिप सकता है कि देश में गरीबी है? गरीब तो छिपाये जा सकते हैं, गरीबी नहीं। यह वैश्विक और डिजीटल व्यवस्था है जहां कोई भी किसी से कुछ नहीं छिपा सकता। सारे आंकड़े और तथ्य सार्वभौमिक हैं। उलटे, सारे देशों के विकास सम्बन्धी सभी तरह के आंकड़े उसी दुनिया में एकत्र होते हैं, वहीं उनकी समीक्षा होती है और वहीं टिकाऊ विकास लक्ष्य के सभी मानकों में कौन सा देश किस रैंक पर है, इसे भी तय करने वाले वे ही देश हैं।

पर्दों के पीछे की असलियत से स्वयं मोदी उतने वाकिफ़ नहीं होंगे जितने इन देशों की एजेंसियां हैं और वे जानते हैं कि किन सूचकांकों में भारत की स्थिति कहां पर है। सारा जग जानता है कि देश की 80 करोड़ से ज्यादा की आबादी के मुफ्त 5 किलो प्रति माह के राशन पर जीवित है। एक सामान्य बुद्धि का राजनयिक या राष्ट्राध्यक्ष, जो भारत सम्बन्धी सारे आंकड़ों व तथ्यों से लैस होकर ही सम्मेलन में शिरकत करने आया होगा, समझ गया होगा कि उनके रास्तों में पड़ने वाले इलाकों में ये बड़े-बड़े पर्दे क्यों लगाये गये हैं। दुनिया यह भी जानती है कि चकाचौंध में भरोसा रखने वाले मोदी ने विदेशी मेहमानों के आगमन पर उनके अपने गृहनगर अहमदाबाद की मलिन बस्तियों को दीवारें उठवाकर छिपा दिया था ताकि गुजरात मॉडल की सच्चाइयां सामने न आयें जिसका ढिंढोरा खूब पीटा गया था और उसी मॉडल को देश भर में लागू करने के लिये मोदी गुजरात से उठकर दिल्ली चले आये हैं।

यह तो सही है कि मेहमानों के सामने अपने घर का श्रेष्ठ दिखाने और बुरा छिपाने की प्रवृत्ति स्वाभाविक होती है। यह भी सही है कि लोग अक्सर अपने बूढ़े मां-बाप, बीमार बुआ, विधवा सास, बहन, मां आदि को किसी अलग कमरे में रख देते हैं और कोशिश करते हैं कि मेहमानों के जाने के बाद ही उन्हें निकालें। यह हकीकत है परन्तु स्वीकार्य नहीं, न ही मानवीय गरिमा के अनुकूल। फिर, यह व्यक्तिगत स्तर पर या परिवार के स्तर पर की बात हो सकती है लेकिन देश के स्तर पर इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि पर्दों के पीछे छिपाये गये लोगों का भी देश के इस गौरवपूर्ण क्षणों का आनंद लेने का उतना ही हक है जितना कि लकदक कपड़ों में सजे और बड़ी गाड़ियों में आवाजाही करने वाले अन्य लोगों का है। वैसे भी वे कौन सा आयोजन स्थल के भीतर घुसे जा रहे हैं या शाही दावतों में घुस सकते हैं? वे अपने घरों से निकल भी न सकें, इसकी मुकम्मल व्यवस्था सरकारी तंत्र ने कर रखी थी। लगभग तीन-चार दिन सुरक्षा के नाम पर एक तरह से कर्फ्यू ही लगा रखा था। लोगों को ज़रूरी कामों के लिये भी निकलना दूभर था अथवा लम्बी दूरियों के या असुविधापूर्ण रास्ते लेने पड़े। यह अमानवीयता है। अपने ही देश की बड़ी आबादी को इस तरह से पर्दे से ढंक देना उनका अपमान भी है। यह सारा कुछ सचमुच बहुत निर्मम है। क्या जनता केवल वोटर है? मनुष्य होने के नाते उसके साथ जो गरिमापूर्ण व्यवहार होना चाहिये, वह सरकार की ओर से बहुत संकीर्ण व क्षुद्र प्रयोजनों के चलते होता हुआ नहीं दिखता।

हालांकि अपनी छवि बांधने के चक्कर में सत्ता के लिये यह बहुत छोटी सी कीमत समझी गई हो, पर यह कोई लोकतांत्रिक व्यवहार नहीं है। यह एक तरह से राजशाही या तानाशाही प्रणाली है कि अपने ही लोगों को इस तरह से बंद कर रखा जाये। मानों वे त्याज्य व अवांछनीय हों।

अमानवीयता तो यह भी है कि सम्मेलन के पहले दो-तीन दिनों पहले से अभियान चलाकर दिल्ली के सैकड़ों कुत्तों को बहुत निर्मम तरीके से पकड़कर अज्ञात जगहों पर ले जाया गया। उन्हें पकड़ने और नगर निगम की गाड़ियों व पिंजरों में जैसे भरा गया, लगता नहीं कि उनमें से बहुत जीवित बचे होंगे। बचे भी होंगे तो घायल, बीमार, भूखे-प्यासे रखे गये होंगे। ऐसा नज़ारा भी देश ने पहली बार ही देखा है। पशु प्रेमी व्यक्ति एवं संगठन इस दौरान तो नदारद रहे ही, अब तक उनका इसके खिलाफ कोई बयान भी नहीं दिख रहा है। ऐसे मौके पर भारतीय जनता पार्टी की सांसद एवं पूर्व मंत्री मेनका गांधी की याद आनी स्वाभाविक है जो अपने श्वान प्रेम के लिये विख्यात रही हैं। गाड़ी के नीचे एक पिल्ले के दबने से भी दुखी होने वाले नरेन्द्र मोदी सैकड़ों निरीह प्राणियों के प्रति हुई क्रूरता से कितना पसीजे होंगे, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
लोगों को पर्दों से ढंकना हो या फिर मूक प्राणियों पर बेकदर अत्याचार- दोनों ही अस्वीकार्य है।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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